अयोध्या काण्ड-26 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Ayodhya Kand in Hindi तुलसी दास राम चरित मानस अयोध्या काण्ड

राम चरित मानस अयोध्या काण्ड
तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में |
raam charit maanas ayodhya kaand




राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई।।
कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी।।
तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए।।
देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने।।
को साहिब सेवकहि नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी।।
निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें।।
सो गोसाइँ नहि दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी।।
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना।।
दो0-यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर।
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर।।299।।
–*–*–
सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ।।
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा।।
देखेउँ पाय सुमंगल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला।।
बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ीं चूक साहिब अनुरागू।।
कृपा अनुग्रह अंगु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई।।
राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाईं।।
नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई।।
अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी।।
दो0-सुह्रद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि।।300।।
–*–*–
प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई।।
सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की।।
सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई।।
अग्या सम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा।।
अस कहि प्रेम बिबस भए भारी। पुलक सरीर बिलोचन बारी।।
प्रभु पद कमल गहे अकुलाई। समउ सनेहु न सो कहि जाई।।
कृपासिंधु सनमानि सुबानी। बैठाए समीप गहि पानी।।
भरत बिनय सुनि देखि सुभाऊ। सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ।।
छं0-रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी।
मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी।।
भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से।
तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से।।
सो0-देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब।
मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत।।301।।
कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू।।
काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती।।
प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला। सो उचाटु सब कें सिर मेला।।
सुरमायाँ सब लोग बिमोहे। राम प्रेम अतिसय न बिछोहे।।
भय उचाट बस मन थिर नाहीं। छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं।।
दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी। सरित सिंधु संगम जनु बारी।।
दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं। एक एक सन मरमु न कहहीं।।
लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू।।
दो0-भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ।
लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ।।302।।
–*–*–
कृपासिंधु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे।।
सभा राउ गुर महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री।।
रामहि चितवत चित्र लिखे से। सकुचत बोलत बचन सिखे से।।
भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई।।
जासु बिलोकि भगति लवलेसू। प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू।।
महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी।।
आपु छोटि महिमा बड़ि जानी। कबिकुल कानि मानि सकुचानी।।
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई।।
दो0-भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि।
उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि।।303।।
–*–*–
भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ। लघु मति चापलता कबि छमहूँ।।
कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को।।
सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को। जेहि न सुलभ तेहि सरिस बाम को।।
देखि दयाल दसा सबही की। राम सुजान जानि जन जी की।।
धरम धुरीन धीर नय नागर। सत्य सनेह सील सुख सागर।।
देसु काल लखि समउ समाजू। नीति प्रीति पालक रघुराजू।।
बोले बचन बानि सरबसु से। हित परिनाम सुनत ससि रसु से।।
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना। लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना।।
दो0-करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात।
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात।।304।।
–*–*–
जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती।।
समउ समाजु लाज गुरुजन की। उदासीन हित अनहित मन की।।
तुम्हहि बिदित सबही कर करमू। आपन मोर परम हित धरमू।।
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा।।
तात तात बिनु बात हमारी। केवल गुरुकुल कृपाँ सँभारी।।
नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू।।
जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू। जग केहि कहहु न होइ कलेसू।।
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा।।
दो0-राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम।।305।।
–*–*–
सहित समाज तुम्हार हमारा। घर बन गुर प्रसाद रखवारा।।
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू।।
सो तुम्ह करहु करावहु मोहू। तात तरनिकुल पालक होहू।।
साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी।।
सो बिचारि सहि संकटु भारी। करहु प्रजा परिवारु सुखारी।।
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई। तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई।।
जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा। कुसमयँ तात न अनुचित मोरा।।
होहिं कुठायँ सुबंधु सुहाए। ओड़िअहिं हाथ असनिहु के घाए।।
दो0-सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ।।306।।
–*–*–
सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअ जनु सानी।।
सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी।।
भरतहि भयउ परम संतोषू। सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू।।
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू।।
कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी। बोले पानि पंकरुह जोरी।।
नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को।।
अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई।।
सो अवलंब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई।।
दो0-देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ।
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ।।307।।
–*–*–
एकु मनोरथु बड़ मन माहीं। सभयँ सकोच जात कहि नाहीं।।
कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई।।
चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन। खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन।।
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी। आयसु होइ त आवौं देखी।।
अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू। तात बिगतभय कानन चरहू।।
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता।।
रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं। राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं।।
सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा। मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा।।
दो0-भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल।
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल।।308।।
–*–*–
धन्य भरत जय राम गोसाईं। कहत देव हरषत बरिआई।
मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू।।
भरत राम गुन ग्राम सनेहू। पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू।।
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन। नेमु पेमु अति पावन पावन।।
मति अनुसार सराहन लागे। सचिव सभासद सब अनुरागे।।
सुनि सुनि राम भरत संबादू। दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू।।
राम मातु दुखु सुखु सम जानी। कहि गुन राम प्रबोधीं रानी।।
एक कहहिं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई।।
दो0-अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।
राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप।।309।।
–*–*–
भरत अत्रि अनुसासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई।।
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू।।
पावन पाथ पुन्यथल राखा। प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा।।
तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू।।
तब सेवकन्ह सरस थलु देखा। किन्ह सुजल हित कूप बिसेषा।।
बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू। सुगम अगम अति धरम बिचारू।।
भरतकूप अब कहिहहिं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा।।
प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहहिं बिमल करम मन बानी।।
दो0-कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ।
अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ।।310।।
–*–*–
+

एक टिप्पणी भेजें