करम गति टारै नाहिं टरी भजन लिरिक्स

करम गति टारै नाहिं टरी Karam Gati Taare Nahi Tari Lyrics Kabir Bhajan Lyrics

करम गति टारै नाहिं टरी॥ टेक॥
मुनि वसिष्ठ से पण्डित ज्ञानी सिधि के लगन धरि।
सीता हरन मरन दसरथ को बनमें बिपति परी॥ १॥
कहँ वह फन्द कहाँ वह पारधि कहॅं वह मिरग चरी।
कोटि गाय नित पुन्य करत नृग गिरगिट-जोन परि॥ २॥
पाण्डव जिनके आप सारथी तिन पर बिपति परी।
कहत कबीर सुनो भै साधो होने होके रही॥ ३॥
 
कबीरदास जी के इस पद्य में 'करम गति टारै नाहिं टरी' का अर्थ है कि कर्मों की गति (प्रभाव) को टाला नहीं जा सकता; जो होना है, वह होकर ही रहता है।

पद्य का भावार्थ:

मुनि वसिष्ठ से पण्डित ज्ञानी, सिधि के लगन धरि।
सीता हरन मरन दसरथ को, बनमें बिपति परी॥

महाज्ञानी मुनि वसिष्ठ ने राम और सीता का विवाह शुभ मुहूर्त में संपन्न कराया। फिर भी, दशरथ की मृत्यु, सीता का हरण और राम का वनवास जैसी विपत्तियाँ घटित हुईं। यह दर्शाता है कि पूर्व निर्धारित कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है।

कहँ वह फन्द कहाँ वह पारधि, कहँ वह मिरग चरी।
कोटि गाय नित पुन्य करत नृग, गिरगिट-जोन परि॥

वह शिकारी, उसका जाल और हिरण कहाँ हैं? राजा नृग, जो प्रतिदिन करोड़ों गायों का दान करते थे, एक ब्राह्मण की गाय के विवाद के कारण गिरगिट की योनि में जन्मे। यह बताता है कि कर्मों का फल अनिवार्य है।

पाण्डव जिनके आप सारथी, तिन पर बिपति परी।
कहत कबीर सुनो भै साधो, होने होके रही॥

पांडवों के सारथी स्वयं भगवान श्रीकृष्ण थे, फिर भी उन्हें अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा। कबीर कहते हैं, हे साधुजन, सुनो! जो होना है, वह होकर ही रहेगा; कर्मों का प्रभाव अटल है। 

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