कबीर के दोहे गुरु प्रेरणा हिंदी अर्थ सहित

कबीर के दोहे गुरु प्रेरणा हिंदी अर्थ सहित

कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय |
अंक भरे भरि भेरिये, पाप शरीर जाय ||

दरशन कीजै साधु का, दिन में कइ कइ बार |
आसोजा का भेह ज्यों, बहुत करे उपकार ||

दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करू इकबार |
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ||

दूजे दिन नहीं करि सके, तीजे दिन करू जाय |
कबीर साधु दरश ते, मोक्ष मुक्ति फन पाय ||

बार - बार नहिं करि सकै, पाख - पाख करि लेय |
कहैं कबीर सों भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ||

मास - मास नहिं करि सकै, छठे मास अलबत |
थामें ढ़ील न कीजिये, कहैं कबीर अविगत ||

बरस - बरस नहिं करि सकैं, ताको लगे दोष |
कहैं कबीर वा जीव सों, कबहु न पावै मोष ||

खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय |
कहैं कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ||

सुनिये पार जो पाइया, छाजिन भोजन आनि |
कहैं कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ||
 
हस्ती चढ़िये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार।
श्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार॥

अर्थ: ज्ञान के हाथी पर सवार होकर, सहजता से विनम्रता का वस्त्र धारण करें। यह संसार कुत्ते के समान है, जो बिना कारण भौंकता रहता है।

या दुनिया दो रोज की, मत कर या सो हेत।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख हेत॥

अर्थ: यह दुनिया दो दिन की है, इससे अधिक मोह मत रखो। गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुख का कारण है।

कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर।
खाली हाथों वह गये, जिनके लाख करोर॥

अर्थ: कबीर कहते हैं, यह शरीर नष्ट हो रहा है, यदि संभव हो तो इसे बचाओ। वे लोग भी खाली हाथ गए, जिनके पास लाखों-करोड़ों थे।

सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान।
निरगुन सरगुन के परे, तहीं हमारा ध्यान॥

अर्थ: सगुण (साकार) की सेवा करो और निर्गुण (निराकार) का ज्ञान प्राप्त करो। हमारा ध्यान उस परमात्मा पर है, जो सगुण और निर्गुण दोनों से परे है।

घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदैं बरसैं, झर लाग गए।
हर तलाब में कमल खिले, तहाँ भानु परगट भये॥

अर्थ: बादल गरजते हैं, बिजली चमकती है, बूंदें बरसती हैं, और झरने बहने लगते हैं। हर तालाब में कमल खिलते हैं, वहां सूर्य प्रकट होता है।

क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा॥

अर्थ: काशी हो या बंजर मगहर, मेरे हृदय में राम बसे हैं। यदि काशी में शरीर त्याग दूं, तो राम पर कौन सा उपकार होगा?

कस्तुरी कुँडली बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ।
ऎसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ॥

अर्थ: कस्तूरी हिरण की नाभि में होती है, लेकिन हिरण उसे जंगल में खोजता है। इसी प्रकार, राम हर हृदय में हैं, पर दुनिया उन्हें बाहर खोजती है।

प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय।
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय॥

अर्थ: प्रेम न तो खेतों में उगता है, न ही बाजार में बिकता है। राजा या प्रजा, जो भी इसे चाहता है, उसे अपना सिर समर्पित करके ही प्राप्त कर सकता है।

माला फेरत जुग भया, मिटा ना मन का फेर।
कर का मनका छाड़ि, के मन का मनका फेर॥

अर्थ: माला फेरते युग बीत गए, लेकिन मन का भ्रम नहीं मिटा। हाथ की माला छोड़कर, मन की माला फेरो।

माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर।
आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर॥

अर्थ: न माया मरी, न मन मरा, शरीर बार-बार मरता है। आशा और तृष्णा नहीं मरीं, ऐसा कबीर कहते हैं।

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद॥

अर्थ: मनुष्य झूठे सुख को ही सुख मानकर प्रसन्न होता है। यह संसार काल का चबेना है, कुछ मुंह में है, कुछ गोद में।

वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर॥

अर्थ: वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते, नदी अपना जल संचय नहीं करती। परोपकार के लिए ही साधु ने यह शरीर धारण किया है।

साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय।
तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय॥

अर्थ: साधु महान परोपकारी होते हैं, जो धन की वर्षा करते हैं। वे दूसरों की तपन बुझाते हैं और अपने साथ पारस (सद्गुण) लाते हैं।

सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार।
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार॥

अर्थ: सोने के समान सज्जन और साधु जन टूटकर भी सौ बार जुड़ जाते हैं। लेकिन दुर्जन कुम्हार के घड़े के समान हैं, जो एक धक्के से दरार खा जाते हैं।

जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं।
ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं॥

अर्थ: जिस घर में साधु की पूजा नहीं होती, हरि की सेवा नहीं होती, वह घर मरघट के समान है, जहां भूत निवास करते हैं।

मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ।
कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ॥

अर्थ: मूर्ख के साथ संगति मत करो, जैसे लोहा पानी में नहीं तैरता। केले का पत्ता, सीप और सांप के मुख में एक ही बूंद का भिन्न प्रभाव होता है।
 
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