कबीर साहेब के दोहे का अर्थ जानिये सरल हिंदी में
चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात ।
मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात ॥
विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद ।
अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद ॥
हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर ।
सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥
मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल ।
जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल ॥
परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान ।
घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान ॥
जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार ।
जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार ॥
क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज ।
छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज ॥
जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग ।
सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग ॥
कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं ।
ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं ॥
जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध ।
माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद ॥
अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान ।
ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान ॥
नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह ।
जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह ॥
मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर ।
अविनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर ॥
मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय ।
मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय ॥
एक बून्द के कारने, रोता सब संसार ।
अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार ॥
समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान ।
गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान ॥
राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान ।
पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान ॥
मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार ।
सत्य शब्द नहिं खोजई, जावै जम के द्वार ॥
चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय ।
तोको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय ॥
क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ ।
पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ ॥
चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात।
मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात॥अर्थ: जो लोग चले गए, वे वापस नहीं मिलते; अब किससे उनके बारे में पूछूँ? माता-पिता, पुत्र और संबंधी—सभी सांसारिक संबंध अस्थायी और मिथ्या हैं।
विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद।
अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद॥अर्थ: इंद्रिय सुखों और वासनाओं में उलझकर मनुष्य ने अपना जीवन व्यर्थ गंवा दिया। अब पछताने से क्या होगा? अपनी करनी को याद कर।
हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर।
सो सरवर सेवा नहीं, जाल काल नहिं कीर॥अर्थ: हे बुद्धिहीन मछली! तू अपना शरीर सुरक्षित नहीं रख सकी। जिस सरोवर की सेवा नहीं की, वहाँ जाल तेरा काल बन गया।
मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल।
जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल॥अर्थ: मछली ने जल का मोह नहीं छोड़ा, लेकिन मछुआरा (धीमर) उसका काल बन गया। जिस-जिस तालाब में वह जाती है, वहाँ-वहाँ जाल बिछा हुआ मिलता है।
परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान।
घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान॥अर्थ: कमलिनी (कमलिनी) परदे में रहकर अपने कुल की मर्यादा रखती थी। लेकिन जैसे ही काल (मृत्यु) की घड़ी आई, वह सब छोड़कर चली गई।
जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार।
जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार॥अर्थ: हे लोगों, जागो, सोओ मत, नींद से प्रेम मत करो। जैसे रात का सपना होता है, वैसा ही यह संसार भी है—क्षणभंगुर और असत्य।
क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज।
छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज॥अर्थ: क्या करें, क्या जोड़ें, जीवन के कार्य टूटते जा रहे हैं। शरीर, घर, धन, राज्य—सब कुछ छोड़-छोड़कर जाता है।
जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग।
सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग॥अर्थ: जिन घरों में नौबत (वाद्ययंत्र) बजती थी और छत्तीसों राग गाए जाते थे, वे घर भी अब खाली पड़े हैं, वहाँ कौए बैठने लगे हैं।
कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं।
ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं॥अर्थ: कबीर कहते हैं, यह काया (शरीर) पाहुनी (अतिथि) है, और हंस (आत्मा) बटाऊ (यात्री) है। मुझे नहीं पता यह कब जाएगा, मुझे इसका भरोसा नहीं है।
जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध।
माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद॥अर्थ: यदि तू मोह के फंदे में पड़ा है, तो अंधा (मूर्ख) कब निकलेगा? माया का मद तुझ पर चढ़ा है, हे मतिमंद (मूढ़), भूल मत कर।
अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान।
ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान॥अर्थ: जो व्यक्ति अहिरन (गाय-बैलों) की चोरी करता है और सुई का दान करता है, वह ऊँचे स्थान पर चढ़कर देखता है कि विमान (स्वर्ग) कितनी दूर है।
नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह।
जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह॥अर्थ: मनुष्य नारायण (भगवान) का रूप है, तू इसे मात्र देह मत समझ। यदि समझ सकता है, तो समझ ले कि यह संसार पलक झपकते ही खो जाता है।
मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर।
अविनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर॥अर्थ: मन मर गया, माया मर गई, संशय (संदेह) से शरीर मर गया। जो अविनाशी है, वह नहीं मरा, तो कबीर क्यों मरें?
मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय।
मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय॥अर्थ: सभी कहते हैं, 'मैं मरूँ, मैं मरूँ', लेकिन मेरी मृत्यु से उनकी बलाएँ (दुःख) मरती हैं। यदि मरना था, तो पहले ही मर चुका; अब कौन मरने जाए?