क्यूँ गुमान करे काया का मन मेरे
क्यूँ गुमान करे काया का मन मेरे
क्यूँ गुमान करे काया का मन मेरेएक दिन छोड़ कर ये जहाँ जाना है
नाम गुरु का सुमिर मन मेरे बावरे
एक दिन छोड़ कर ये जहाँ जाना है।
तूने संसार को तो है चाहा मगर
नाम प्रभु का है तूने तो ध्याया नही
मोह ममता में तू तो फँसा ही रहा
ज्ञान गुरु का हिरदय लगाया नही
मौत नाचे तेरे सर पे ओ बावरे।
एक दिन छोड
आयेगा जब बुलावा तेरा बावरे
छोड़ के इस जहाँ को जाएगा तू
साथ जाएगा ना एक तिनका कोई
प्यारे रो रो बहुत पछताएगा तू
आज से अभी से लग जा तू राम में।
एक दिन छोड
सुंदर भजन में इस काया की क्षणभंगुरता और प्रभु के नाम की महिमा का गहरा उद्गार व्यक्त होता है। यह भाव मन को झकझोरता है कि इस देह का गर्व व्यर्थ है, क्योंकि एक दिन सब कुछ छोड़कर जाना है, जैसे पंछी शाम को अपने नीड़ को लौट जाता है। काया का गुमान मिट्टी के ढेले-सा है, जो पानी की बूंदों में घुल जाता है।
मन संसार की माया में उलझा रहता है, मोह-ममता के बंधनों में जकड़ा रहता है, पर प्रभु का नाम स्मरण नहीं करता। यह भूल उस यात्री की तरह है, जो राह में रेत के महल बनाता है, यह भूलकर कि उसका असली ठिकाना कहीं और है। गुरु का ज्ञान हृदय में न उतारने से मन भटकता रहता है, और मृत्यु सिर पर नाचती रहती है, जैसे बादल की छाया बिना रुके सरकती है।
मन संसार की माया में उलझा रहता है, मोह-ममता के बंधनों में जकड़ा रहता है, पर प्रभु का नाम स्मरण नहीं करता। यह भूल उस यात्री की तरह है, जो राह में रेत के महल बनाता है, यह भूलकर कि उसका असली ठिकाना कहीं और है। गुरु का ज्ञान हृदय में न उतारने से मन भटकता रहता है, और मृत्यु सिर पर नाचती रहती है, जैसे बादल की छाया बिना रुके सरकती है।