यहि बिधि भक्ति कैसे होय

यहि बिधि भक्ति कैसे होय

यहि बिधि भक्ति कैसे होय
यहि बिधि भक्ति कैसे होय।।टेक।।
मन की मैल हियतें न छूटी, दियो तिलक सिर धोय।
काम कूकर लोभ डोरी, बाँधि मौहि चण्डाल।
क्रोध कसाई रहत घट में, कैसे मिले गोपाल।
बिलार विषया लालची रे, ताहि भोजन देत।
दीन हीन ह्व छुपा रत से, राम नाम न लेत।
आपहिं आप पुजाय के रे, फूले अंग न समात।
अभिमान टीले किये बहु कहु, जल कहाँ ठहरात।
जो तेरे हिय अन्तर की जानै, तासी कपट न बनै।
हिरदे हरि को नम न आवै, सुख तै मनिया गनै।
हरि हितु से हेत कर, संसार आसा त्याग।
दास मीराँ लाल गिरधर सहज कर वैराग।।

सच्ची भक्ति तब तक नहीं हो सकती, जब तक मन की मैल—काम, क्रोध, लोभ, और अभिमान—दूर न हो। बाहरी कर्मकांड, जैसे तिलक लगाना या सिर धोना, मन को शुद्ध नहीं करते। काम और लोभ की रस्सी आत्मा को नीच कर्मों में बाँधती है, क्रोध हृदय में कसाई की तरह डेरा जमाए रहता है, और लालच विषैले विचारों को भोजन देता है। ऐसे में प्रभु का मिलन कैसे हो?

जो मन में कपट और अहंकार भरा है, वह राम-नाम से दूर रहता है, जैसे पानी ढलान पर नहीं ठहरता। सच्चा सुख वही जो हरि के प्रति प्रेम और समर्पण से मिले। इसके लिए संसार की आशाओं को त्यागकर, हृदय में प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम जगाना होगा। मीरा का मार्ग यही है—गिरधर के चरणों में सहज वैराग्य और दास्य भाव से जीवन को सार्थक करना, जहां आत्मा को शांति और परम आनंद मिलता है।
 
सत्य भक्ति केवल बाह्य आडंबर से नहीं होती, यह हृदय की निर्मलता और अहंकार के त्याग से प्रस्फुटित होती है। यदि मन में विकार भरा हो, यदि लोभ और विषयों की लालसा मन को जकड़े रखे, तो ईश्वर का साक्षात्कार कैसे संभव होगा? बाहरी तिलक और स्नान से आत्मा शुद्ध नहीं होती—उसके लिए भीतर की मलिनता को धोना आवश्यक है।

काम, क्रोध, लोभ और अहंकार ऐसे बंधन हैं, जो जीव को भक्ति के मार्ग से दूर रखते हैं। क्रोध जब हृदय में घर कर लेता है, तो शांति नष्ट हो जाती है, और अहंकार जब बढ़ जाता है, तो सत्य की धारा अवरुद्ध हो जाती है। जल को स्थिर रखने के लिए पात्र सम होता है, वैसे ही भक्ति के लिए अहंकार का समर्पण अनिवार्य है।

जो व्यक्ति अपने बाहरी दिखावे में ही उलझा रहता है, वह आत्म-गौरव में फूला रहता है, परंतु यह भ्रम की स्थिति है। ईश्वर केवल उस अंतःकरण को जानते हैं, जो सत्य और प्रेम से भरा हो। जब हृदय विनम्रता से झुकता है, जब सांसारिक आसक्ति त्यागकर प्रेम केवल प्रभु के प्रति होता है, तब सहज ही वैराग्य उत्पन्न होता है—और वही सच्ची भक्ति की पहचान है। यही मार्ग मोक्ष की ओर ले जाता है।
 

(यहि विधि=इस प्रकार से, मैल=पाप, हियतें= हृदय से,मन से, काम=वासना, कूकर=कुत्ता, चण्डाल=क्रूर,निष्ठुर, घट=हृदय, बिलार=बिलाव, आपहि आप पुजाय के=अपनी पूजा स्वयं करके, अहं भावना से, फूले अंग न समात=बहुत अधिक प्रसन्न होता है, बहु=बहुत, कहु=कहो, अन्तर की= अन्दर की, मनिय=माला के दाने, हरि-हितु= हरिभक्त, हेत=प्रेम, सहज=धार्मिक क्षेत्र में, निर्गुण सन्तों के अनुसार सहज शब्द का अर्थ है सहजाचरण और सदाचरण)
 


Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

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