रटता क्यौं नहीं रे हरिनाम

रटता क्यौं नहीं रे हरिनाम

रटता क्यौं नहीं रे हरिनाम
रटता क्यौं नहीं रे हरिनाम। तेरे कोडी लगे नही दाम॥
नरदेहीं स्मरणकूं दिनी। बिन सुमरे वे काम॥१॥
बालपणें हंस खेल गुमायो। तरुण भये बस काम॥२॥
पाव दिया तोये तिरथ करने। हाथ दिया कर दान॥३॥
नैन दिया तोये दरशन करने। श्रवन दिया सुन ज्ञान॥४॥
दांत दिया तेरे मुखकी शोभा। जीभ दिई भज राम॥५॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। है जीवनको काम॥६॥


 
मानव जीवन अनमोल अवसर है, जिसमें हर क्षण ईश्वर-स्मरण का मूल्य बढ़ता है। फिर भी, मोह में उलझा मन उस नाम को नहीं रटता, जिससे आत्मा का कल्याण हो सकता है। सांसारिक दौड़-भाग में जीवन की वास्तविक दिशा खो जाती है—बाल्यावस्था में खेलकूद, युवावस्था में वासनाओं की प्रवृत्ति और फिर अंततः खाली हाथ।

ईश्वर ने हर अंग को दिव्य प्रयोजन के लिए दिया है—पांव तीर्थ में चलें, हाथ सेवा और दान में लगें, नेत्र सत्य और शुभ दर्शन करें, श्रवण ज्ञान का सत्कार करें, और जीभ सदा हरिनाम में रमे। यह शरीर केवल भौतिक सुख-सुविधा में गंवाने के लिए नहीं, बल्कि परम सत्य की अनुभूति में आगे बढ़ने के लिए मिला है।

हरिनाम ही जीवन का वास्तविक कार्य है—वह शक्ति जो अंततः आत्मा को परमगति तक पहुंचाती है। जो इस अवसर को समझकर अपने जीवन को भक्ति में समर्पित करता है, वही सच्चे अर्थों में कृतार्थ होता है। नाम-स्मरण से बढ़कर कोई संपदा नहीं, क्योंकि यह हर सांस को अर्थ और गति प्रदान करता है। 
 
जीवन का असली धन हरि का नाम है, जो बिना मूल्य के अनमोल है। यह मानव देह ईश्वर ने स्मरण के लिए दी, पर बिना भक्ति के सब व्यर्थ है। बचपन खेल में, यौवन सांसारिक इच्छाओं में खो जाता है, और मन भटकता रहता है। जैसे कोई खेत में बीज बोए बिना फसल की आशा करे, वैसे ही हरि-स्मरण के बिना जीवन अधूरा है।

ईश्वर ने तीर्थ करने को पैर, दान देने को हाथ, दर्शन को आँखें, ज्ञान सुनने को कान, और मुख की शोभा के लिए दांत दिए, पर जीभ का सबसे बड़ा कार्य राम-नाम का जाप है। यह नाम जपने से मन शुद्ध होता है, जैसे जल धारा में पत्थर चिकना हो जाता है। सच्चा जीवन वही, जो प्रभु की भक्ति में बीते। मीरा का यही संदेश है कि गिरिधर के चरणों में समर्पण ही जीवन का परम लक्ष्य है।
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