होली पिया बिन लागाँ री खारी भजन

होली पिया बिन लागाँ री खारी मीरा बाई पदावली

होली पिया बिन लागाँ री खारी।।टेक।।
सूनो गाँव देस सब सूनो, सूनी सेज अटारी।
सूनी बिरहन पिब बिन डोलें, तज गया पीव पियारी।
बिरहा दुख भारी।
देस बिदेसा णा जावाँ म्हारो अणेसा भारी।
गणताँ गणतां घिस गयाँ रेखाँ आँगरियाँ री सारी।
आयाँ णा री मुरारी।
बाजोयं जांझ मृदंग मुरलिया बाज्यां कर इकतारी।
आयां बसंत पिया घर णारी, म्हारी पीड़ा भारी।
श्याम क्याँरी बिसारी।
ठाँड़ी अरज करां गिरधारी, राख्यां लाल हमारी।
मीराँ रे प्रभु मिलज्यो माधो, जनम जनम री क्वाँरी।
मणे लागी सरण तारी।।

(खारी=फीकी,आनन्दहीन, अणेसा=अन्देसा,संशय, क्वाँरी=अविवाहित)

प्रियतम के बिना जीवन की हर रंगत, हर उत्सव फीका पड़ जाता है। होली का रंग, गाँव-देस की चहल-पहल, सेज और अटारी—सब सूना लगता है, जब मन का सखा साथ न हो। यह विरह की आग है, जो हृदय को जलाती है, जैसे बिना बादल की धरती तपती रहती है।

बाहर का संसार कितना भी बुलाए, पर मन का डर और दुख उसे कहीं जाने नहीं देता। प्रभु के बिना हर पल गिनना, जैसे उँगलियों की रेखाएँ घिस जाएँ। यह तड़प वह प्यास है, जो मुरारी के दर्शन बिना शांत नहीं होती। बाजे जितने भी मृदंग-मुरलियाँ, बसंत की बहार भी बेकार लगती है, जब श्याम ने साथ छोड़ दिया।

गिरधारी से ठाढ़ी अर्ज यही कि मेरी लाज रखो, मेरे प्रेम को थामो। यह पुकार उस आत्मा की है, जो जनम-जनम से प्रभु की क्वाँरी बनी, केवल उसी की शरण में रमना चाहती है। जब माधो का साथ मिलता है, तो सारी पीड़ा, सारी तड़प प्रेम के रंग में डूब जाती है। यह भक्ति वह आलिंगन है, जो आत्मा को प्रभु से एक कर देता है, और जीवन को सदा के लिए उनकी शरण में बाँध देता है।
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