कान्हा कानरीया पेहरीरे मीरा पदावली

कान्हा कानरीया पेहरीरे मीरा बाई पदावली

कान्हा कानरीया पेहरीरे
कान्हा कानरीया पेहरीरे॥टेक॥
जमुनाके नीर तीर धेनु चरावे। खेल खेलकी गत न्यारीरे॥१॥
खेल खेलते अकेले रहता। भक्तनकी भीड भारीरे॥२॥
बीखको प्यालो पीयो हमने। तुह्मारो बीख लहरीरे॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरण कमल बलिहारीरे॥४॥
 
प्रभु की लीलाओं में रमने और भक्ति की गहराई का भाव इस भजन में समाया है। कन्हैया की साधारण सी कंदरिया और यमुना तट पर गायें चराने की लीला मन को मोह लेती है, जो सिखाती है कि सच्चा सुख सादगी और प्रेम में है। वह अकेले खेलता है, पर उसका साथ भक्तों की भीड़ को आनंद देता है। जैसे यमुना के तट पर कन्हैया की नटखट हरकतें गोपियों को रिझाती हैं, वैसे ही प्रभु का स्मरण मन को हर पल उल्लास से भर देता है। संसार का विष, जैसे कटु वचन या दुख, भक्त प्रेम से पी जाता है, क्योंकि प्रभु का नाम ही उस विष को अमृत में बदल देता है। उदाहरण के लिए, जैसे कोई प्यासा यमुना के जल से तृप्त होता है, वैसे ही भक्ति का रस मन की सारी तृष्णा मिटा देता है। प्रभु के चरणों में शरण लेने से जीवन की हर कठिनाई एक खेल बन जाती है। उनकी भक्ति में डूबकर आत्मा सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाती है और अनंत प्रेम में लीन होकर सच्ची शांति पाती है।
 
मन माने जब तार प्रभुजी ॥ध्रु०॥
नदिया गहेरी नाव पुराणी । कैशी उतरु पार ॥१॥
पोथी पुरान सब कुच देखे । अंत न लागे पार ॥२॥
मीर कहे प्रभु गिरिधर नागर । नाम निरंतर सार ॥३॥

जमुनामों कैशी जाऊं मोरे सैया । बीच खडा तोरो लाल कन्हैया ॥ध्रु०॥
ब्रिदाबनके मथुरा नगरी पाणी भरणा । कैशी जाऊं मोरे सैंया ॥१॥
हातमों मोरे चूडा भरा है । कंगण लेहेरा देत मोरे सैया ॥२॥
दधी मेरा खाया मटकी फोरी । अब कैशी बुरी बात बोलु मोरे सैया ॥३॥
शिरपर घडा घडेपर झारी । पतली कमर लचकया सैया ॥४॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चरणकमल बलजाऊ मोरे सैया ॥५॥ 
 
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