कान्हा बनसरी बजाय गिरधारी मीरा पदावली

कान्हा बनसरी बजाय गिरधारी मीरा बाई पदावली

कान्हा बनसरी बजाय गिरधारी
कान्हा बनसरी बजाय गिरधारी। तोरि बनसरी लागी मोकों प्यारीं॥टेक॥
दहीं दुध बेचने जाती जमुना। कानानें घागरी फोरी॥१॥
सिरपर घट घटपर झारी। उसकूं उतार मुरारी॥२॥
सास बुरीरे ननंद हटेली। देवर देवे मोको गारी॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरनकमल बलहारी॥४॥
 
प्रभु की भक्ति में डूबने का आनंद और सांसारिक कष्टों से मुक्ति का भाव इस भजन में झलकता है। जैसे कन्हैया की बंसी की मधुर धुन मन को मोह लेती है, वैसे ही प्रभु का स्मरण जीवन के दुखों को भुला देता है। संसार में कष्ट हैं—घर-परिवार की निंदा, समाज की कठोर बातें, रोजमर्रा की मेहनत, जैसे दही-दूध बेचने की थकान या रास्ते में टूटी घागरी—ये सब मन को विचलित करते हैं। पर प्रभु का सहारा ऐसा है, मानो वह स्वयं बोझ उतार ले। उदाहरण के लिए, जैसे भारी घड़ा सिर पर रखकर चलने वाली गोपी को मुरारी का साथ राहत देता है, वैसे ही भक्ति का मार्ग मन को हल्का करता है। सास-ननद की कटुता, देवर की गाली, ये सब क्षणिक हैं, लेकिन प्रभु के चरणों की शरण अनंत सुख देती है। भक्ति में लीन होकर मनुष्य सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है और प्रभु के प्रेम में डूबकर सच्चा आनंद पाता है। चरणकमल की भक्ति ही जीवन का आधार है, जो हर दुख को प्रेम की मधुर धुन में बदल देता है।
 
नामोकी बलहारी गजगणिका तारी ॥ध्रु०॥
गणिका तारी अजामेळ उद्धरी । तारी गौतमकी नारी ॥१॥
झुटे बेर भिल्लणीके खावे । कुबजा नार उद्धारी ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चरणकमल बलिहारी ॥३॥

जोगी मेरो सांवळा कांहीं गवोरी ॥ध्रु०॥
न जानु हार गवो न जानु पार गवो । न जानुं जमुनामें डुब गवोरी ॥१॥
ईत गोकुल उत मथुरानगरी । बीच जमुनामो बही गवोरी ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चरनकमल चित्त हार गवोरी ॥३॥

लक्ष्मण धीरे चलो मैं हारी ॥ध्रु०॥
रामलक्ष्मण दोनों भीतर । बीचमें सीता प्यारी ॥१॥
चलत चलत मोहे छाली पड गये । तुम जीते मैं हारी ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चरणकमल बलिहारी ॥३॥

प्रभु तुम कैसे दीनदयाळ ॥ध्रु०॥
मथुरा नगरीमों राज करत है बैठे । नंदके लाल ॥१॥
भक्तनके दुःख जानत नहीं । खेले गोपी गवाल ॥२॥
मीरा कहे प्रभू गिरिधर नागर । भक्तनके प्रतिपाल ॥३॥ 
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