अपनी गरज हो मिटी सावरे मीरा बाई पदावली

अपनी गरज हो मिटी सावरे मीरा बाई पदावली

अपनी गरज हो मिटी सावरे
अपनी गरज हो मिटी सावरे हाम देखी तुमरी प्रीत॥टेक॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीराके प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
 
जब मन प्रभु की प्रीत में डूब जाता है, तो सारी सांसारिक चिंताएँ, सारी स्वार्थ की गांठें अपने आप खुल जाती हैं। यह प्रेम वह रस है, जो आत्मा को तृप्त कर देता है, जैसे प्यासा जल पाकर शांत हो जाता है। प्रभु की भक्ति में वह शक्ति है, जो मन को निश्चिंत कर देती है।

द्वारका के स्वामी का आश्रय लेने से मन का हर डर मिट जाता है। यह प्रेम इतना असीम है कि कुल, मर्यादा, और संसार की रीतें गौण हो जाती हैं। जैसे कोई पक्षी खुले आकाश में उड़ान भरता है, वैसे ही भक्त प्रभु के प्रेम में बंधनों से मुक्त हो जाता है।

प्रभु के दर्शन बिना मन अधूरा सा लगता है, जैसे चाँद बिना रात फीकी हो। यह तड़प ही सच्ची प्रीत की निशानी है। गिरधर के चरणों में मन रम जाए, तो फिर कोई और चाह बाकी नहीं रहती। यह भक्ति वह दीप है, जो हृदय में सदा जलता रहता है, और जीवन को प्रभु के रंग से सराबोर कर देता है। 
 
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