अपणे करम को वै छै दोस मीरा बाई पदावली

अपणे करम को वै छै दोस मीरा बाई पदावली

अपणे करम को वै छै दोस
अपणे करम को वै छै दोस, काकूं दीजै रे ऊधो अपणे।।टेक।।
सुणियो मेरी बगड़ पड़ोसण, गेले चलत लागी चोट।
पहली ज्ञान मानहिं कीन्ही, मैं मत ताकी बाँधी पोट।
मैं जाण्यूँ हरि अबिनासी, परी निवारोनी सोच।।

(छै=है, बगड़ पडोसन=पडोसी स्त्री, गेले=रास्ते में, पोच=बुरा, निवारोनी=निवारण करो, सोच=चिंता)
 
जीवन के दुख-सुख, सारी उठापटक, ये सब अपने ही कर्मों का फल हैं। इस सत्य को समझ लेना ही मन की उलझनों को सुलझाने की कुंजी है। किसी और को दोष देने से पहले अपने कर्मों की ओर देखना, यह वह दर्पण है, जो आत्मा को साफ दिखाता है। जैसे कोई बीज बोया जाए, वैसा ही फल मिलता है।

पड़ोसन की बातें, रास्ते की चोटें, ये सब बाहरी हैं, पर मन की शांति भीतर से आती है। पहला ज्ञान यही है कि प्रभु अविनाशी हैं, उनका आश्रय लेने से सारी चिंताएँ मिट जाती हैं। यह विश्वास वह पाल है, जो भवसागर की नाव को किनारे तक ले जाती है।

हरि का नाम मन में बाँध लेना, यह वह ताकत है, जो हर सोच, हर डर को दूर करती है। जैसे सूरज की किरणें कोहरे को छाँट देती हैं, वैसे ही प्रभु का स्मरण मन के अंधेरे को मिटा देता है। यह भक्ति वह रास्ता है, जो आत्मा को अपने कर्मों के बोझ से मुक्त कर, प्रभु के चरणों तक ले जाता है। 
 
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