गोबिन्द कबहुं मिलै पिया मेरा मीरा भजन

गोबिन्द कबहुं मिलै पिया मेरा मीरा भजन

 गोबिन्द कबहुं मिलै पिया मेरा
चरण-कंवल को हंस-हंस देखू राखूं नैणां नेरा
गोबिंद कबहुं मिलै पिया मेरा ।

निरखणकूं मोहि चाव घणेरो कब देखूं मुख तेरा
गोबिंद कबहुं मिलै पिया मेरा ।

ब्याकुल प्राण धरे नहिं धीरज मिल तूं मीत सबेरा
गोबिंद कबहुं मिलै पिया मेरा ।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर ताप तपन बहुतेरा
गोबिंद कबहुं मिलै पिया मेरा ।
 
भीजे म्हांरो दांवत चीर, सवाणियो लूम रह्यो रे।।टेक।।
आप तो जाय बिदेसां छाये, जिवड़ो धरेत न धीर।
लिख लिख पतियां सदेसा भेजूँ कब घर आवै म्हारो पीव।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर दरसन दो ने बलवीर।।

(दांवत चीर=पल्ले का कपड़ा, सावणियों=सावन का महीना, लूम रह्यो=छाय रहा है, पतियाँ=पत्र, पीव=प्रियतम, बलबीर=कृष्ण)
 
प्रभु के मिलन की तड़प वह गहरी प्यास है, जो मीरा के हृदय को गोविंद के चरण-कमलों की ओर खींचती है। उनकी सुंदर मुख-छवि को निहारने की लालसा, वह प्रेम है, जो मन को बेकरार रखता है, जैसे कमल सूरज के बिना अधूरा है। यह व्याकुलता उस आत्मा की है, जो धीरज खोकर केवल प्रभु के दर्शन माँगती है, ताकि तपन का ताप शांत हो।

सावन की बारिश में भीगा दामन, वह विरह का प्रतीक है, जो भक्त को प्रियतम की याद में तरसाता है। प्रभु के बिदेस होने का दुख, जीव को अधीर करता है, और पत्र भेजने की चाह, वह पुकार है, जो हरि को घर बुलाती है। यह प्रेम वह बादल है, जो बरसकर मन को प्रभु के रंग में भिगो देता है।

मीरा का गिरधर से दर्शन माँगना, वह निश्छल समर्पण है, जो बलवीर के चरणों में सब कुछ अर्पित कर देता है। यह भक्ति वह नदी है, जो प्रभु के चरणों में बहती हुई, आत्मा को उनके प्रेम में डुबो देती है, और जीवन को उनकी कृपा के रंग से सराबोर कर देती है।
 
चालने सखी दही बेचवा जइंये, ज्या सुंदर वर रमतोरे॥ध्रु०॥
प्रेमतणां पक्कान्न लई साथे। जोईये रसिकवर जमतोरे॥१॥
मोहनजी तो हवे भोवो थयो छे। गोपीने नथी दमतोरे॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। रणछोड कुबजाने गमतोरे॥३॥

चालो अगमके देस कास देखत डरै।
वहां भरा प्रेम का हौज हंस केल्यां करै॥
ओढ़ण लज्जा चीर धीरज कों घांघरो।
छिमता कांकण हाथ सुमत को मूंदरो॥
दिल दुलड़ी दरियाव सांचको दोवडो।
उबटण गुरुको ग्यान ध्यान को धोवणो॥
कान अखोटा ग्यान जुगतको झोंटणो।
बेसर हरिको नाम चूड़ो चित ऊजणो॥
पूंची है बिसवास काजल है धरमकी।
दातां इम्रत रेख दयाको बोलणो॥
जौहर सील संतोष निरतको घूंघरो।
बिंदली गज और हार तिलक हरि-प्रेम रो॥
सज सोला सिणगार पहरि सोने राखड़ीं।
सांवलियांसूं प्रीति औरासूं आखड़ी॥
पतिबरता की सेज प्रभुजी पधारिया।
गावै दासि कर राखिया॥

Kabahu mile Piya Mora । कबहुं मिलै पिया मोरा | मीरा बाई का पद by Indresh ji upadhyay with Lyrics

प्रभु के प्रति प्रेम एक ऐसी तड़प है जो हृदय को हर पल उनकी ओर खींचती है। यह चाह केवल दर्शन की नहीं, बल्कि उस गहरे मिलन की है जहाँ आत्मा प्रभु के चरणों में लीन हो जाए। जैसे कोई दीवाना प्रिय के मुख को निहारने के लिए व्याकुल रहता है, वैसे ही भक्त की आँखें प्रभु के रंग में डूबी रहती हैं, हर क्षण उनके दर्शन की आस में। यह आस मन को स्थिर नहीं रहने देती, पर यही उसकी सबसे बड़ी शक्ति भी है।

हृदय की व्याकुलता तब और बढ़ जाती है जब प्रभु का सान्निध्य दूर सा प्रतीत होता है। यह दूरी केवल भौतिक नहीं, बल्कि मन की वह अवस्था है जहाँ धैर्य जवाब देने लगता है। फिर भी, प्रभु का नाम और उनकी स्मृति ही वह संबल है जो मन को टूटने नहीं देता। जैसे कोई पथिक सुबह की पहली किरण का इंतज़ार करता है, वैसे ही भक्त प्रभु के मिलन की प्रतीक्षा में हर पल जीता है।

प्रभु का प्रेम वह अग्नि है जो हृदय के सारे ताप को और तीव्र कर देती है, पर यही अग्नि मन को शुद्ध भी करती है। यह ताप दुख का नहीं, बल्कि उस प्रेम का प्रतीक है जो भक्त को प्रभु के और करीब लाता है। जैसे मीरा अपने गिरधर के लिए तड़पती है, वैसे ही सच्चा भक्त हर साँस में प्रभु को पुकारता है, यह जानते हुए कि वे कहीं और नहीं, बल्कि हृदय में ही बसे हैं।

यह प्रेम और भक्ति का रिश्ता ही जीवन का सच्चा सुख है। प्रभु के चरणों में समर्पित मन को न कोई डर सताता है, न कोई कमी खलती है। यह विश्वास कि प्रभु कभी अपने भक्त से दूर नहीं होते, हर व्याकुलता को शांति में बदल देता है। प्रभु का नाम, उनकी स्मृति, और उनके प्रति प्रेम ही वह प्रकाश है जो मन के अंधेरे को मिटाकर उसे सदा प्रभु के रंग में रंग देता है।
 
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