प्रभुजी मैं अरज करुँ छूं म्हारो बेड़ो लगाज्यो पार

प्रभुजी मैं अरज करुँ छूं म्हारो बेड़ो लगाज्यो पार

प्रभुजी मैं अरज करुँ छूं म्हारो बेड़ो लगाज्यो पार
प्रभुजी मैं अरज करुँ छूं म्हारो बेड़ो लगाज्यो पार।।
इण भव में मैं दुख बहु पायो संसा-सोग निवार।
अष्ट करम की तलब लगी है दूर करो दुख-भार।।
यों संसार सब बह्यो जात है लख चौरासी री धार।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर आवागमन निवार।।
 
प्रभु की शरण में यह अर्ज वह पुकार है, जो भवसागर के दुखों से पार उतरने की कामना करती है। संसार के संदेह और शोक, जो मन को घेरे रखते हैं, केवल उनकी कृपा से ही मिटते हैं। जैसे नाविक तूफान में नाव को किनारे लगाता है, वैसे ही प्रभु भक्त के जीवन को दुखों से मुक्त करते हैं।

अष्ट कर्मों का बोझ और लख चौरासी का चक्र, यह संसार की धारा है, जो आत्मा को बार-बार बाँधती है। प्रभु का नाम वह नौका है, जो इस चक्र से मुक्ति दिलाती है। मन को उनके चरणों में समर्पित करो, क्योंकि उनकी कृपा ही वह शक्ति है, जो जन्म-मरण के बंधन को तोड़कर आत्मा को अविनाशी सुख देती है।

गिरधर का आश्रय वह ठिकाना है, जो हर दुख-भार को हल्का कर देता है। उनकी भक्ति में रमने से मन का हर संशय मिटता है, और जीवन उनकी कृपा से सार्थक हो जाता है।
 
चालो ढाकोरमा जइज वसिये। मनेले हे लगाडी रंग रसिये॥ध्रु०॥
प्रभातना पोहोरमा नौबत बाजे। अने दर्शन करवा जईये॥१॥
अटपटी पाघ केशरीयो वाघो। काने कुंडल सोईये॥२॥
पिवळा पितांबर जर कशी जामो। मोतन माळाभी मोहिये॥३॥
चंद्रबदन आणियाळी आंखो। मुखडुं सुंदर सोईये॥४॥
रूमझुम रूमझुम नेपुर बाजे। मन मोह्यु मारूं मुरलिये॥५॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। अंगो अंग जई मळीयेरे॥६॥

चालो मन गंगा जमुना तीर।
गंगा जमुना निरमल पाणी सीतल होत सरीर।
बंसी बजावत गावत कान्हो, संग लियो बलबीर॥
मोर मुगट पीताम्बर सोहे कुण्डल झलकत हीर।
मीराके प्रभु गिरधर नागर चरण कंवल पर सीर॥

चालो सखी मारो देखाडूं। बृंदावनमां फरतोरे॥ध्रु०॥
नखशीखसुधी हीरानें मोती। नव नव शृंगार धरतोरे॥१॥
पांपण पाध कलंकी तोरे। शिरपर मुगुट धरतोरे॥२॥
धेनु चरावे ने वेणू बजावे। मन माराने हरतोरे॥३॥
रुपनें संभारुं के गुणवे संभारु। जीव राग छोडमां गमतोरे॥४॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। सामळियो कुब्जाने वरतोरे॥५॥ 
 
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