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स्याम! मने चाकर राखो जी
गिरधारी लाला! चाकर राखो जी।
चाकर रहसूं बाग लगासूं नित उठ दरसण पासूं।
ब्रिंदाबन की कुंजगलिन में तेरी लीला गासूं।।
चाकरी में दरसण पाऊँ सुमिरण पाऊँ खरची।
भाव भगति जागीरी पाऊँ, तीनूं बाता सरसी।।
मोर मुकुट पीताम्बर सोहै, गल बैजंती माला।
ब्रिंदाबन में धेनु चरावे मोहन मुरलीवाला।।
हरे हरे नित बाग लगाऊँ, बिच बिच राखूं क्यारी।
सांवरिया के दरसण पाऊँ, पहर कुसुम्मी सारी।
जोगी आया जोग करणकूं, तप करणे संन्यासी।
हरी भजनकूं साधू आया ब्रिंदाबन के बासी।।
मीरा के प्रभु गहिर गंभीरा सदा रहो जी धीरा।
आधी रात प्रभु दरसन दीन्हें, प्रेमनदी के तीरा।।
चालने सखी दही बेचवा जइंये, ज्या सुंदर वर रमतोरे॥ध्रु०॥
प्रेमतणां पक्कान्न लई साथे। जोईये रसिकवर जमतोरे॥१॥
मोहनजी तो हवे भोवो थयो छे। गोपीने नथी दमतोरे॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। रणछोड कुबजाने गमतोरे॥३॥
चालो अगमके देस कास देखत डरै।
वहां भरा प्रेम का हौज हंस केल्यां करै॥
ओढ़ण लज्जा चीर धीरज कों घांघरो।
छिमता कांकण हाथ सुमत को मूंदरो॥
दिल दुलड़ी दरियाव सांचको दोवडो।
उबटण गुरुको ग्यान ध्यान को धोवणो॥
कान अखोटा ग्यान जुगतको झोंटणो।
बेसर हरिको नाम चूड़ो चित ऊजणो॥
पूंची है बिसवास काजल है धरमकी।
दातां इम्रत रेख दयाको बोलणो॥
जौहर सील संतोष निरतको घूंघरो।
बिंदली गज और हार तिलक हरि-प्रेम रो॥
सज सोला सिणगार पहरि सोने राखड़ीं।
सांवलियांसूं प्रीति औरासूं आखड़ी॥
पतिबरता की सेज प्रभुजी पधारिया।
गावै दासि कर राखिया॥
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