प्यारे दरसन दीज्यो आय तुम बिन रह्यो

प्यारे दरसन दीज्यो आय तुम बिन रह्यो न जाय

प्यारे दरसन दीज्यो आय
प्यारे दरसन दीज्यो आय, तुम बिन रह्यो न जाय।।
जल बिन कमल, चंद बिन रजनी, ऐसे तुम देख्याँ बिन सजनी।
आकुल व्याकुल फिरूँ रैन दिन, बिरह कालजो खाय।।
दिवस न भूख, नींद नहिं रैना, मुख सूं कथत न आवे बैना।
कहा कहूँ कछु कहत न आवै, मिलकर तपत बुझाय।।
क्यूँ तरसावो अन्तरजामी, आय मिलो किरपाकर स्वामी।
मीरा दासी जनम-जनम की, पड़ी तुम्हारे पाय।।
 
मन प्रभु के दर्शन को तरस रहा है, उनके बिना जीवन अधूरा सा लगता है। जैसे कमल बिना जल के मुरझाता है, या चांद के बिना रात सूनी होती है, वैसे ही प्रभु की एक झलक बिना मन व्याकुल है। दिन-रात बेचैनी में बीतते हैं, विरह की आग हृदय को जलाती है। न भूख सताती है, न नींद आती है, और मन की पीड़ा शब्दों में बयां नहीं होती। अंतर्जामी प्रभु से करुणा की याचना है कि वे मिलकर इस ताप को शांत करें। मीरां जनम-जनम की दासी है, जो उनके चरणों में पड़ी रहती है। यह भक्ति का वह प्रेम है, जो दर्शन की प्यास में आत्मा को तड़पाता है।
 
कुण बांचे पाती, बिना प्रभु कुण बांचे पाती।
कागद ले ऊधोजी आयो, कहां रह्या साथी।
आवत जावत पांव घिस्या रे (वाला) अंखिया भई राती॥
कागद ले राधा वांचण बैठी, (वाला) भर आई छाती।
नैण नीरज में अम्ब बहे रे (बाला) गंगा बहि जाती॥
पाना ज्यूं पीली पड़ी रे (वाला) धान नहीं खाती।
हरि बिन जिवणो यूं जलै रे (वाला) ज्यूं दीपक संग बाती॥
मने भरोसो रामको रे (वाला) डूब तिर्‌यो हाथी।
दासि मीरा लाल गिरधर, सांकडारो साथी॥

प्रभु के बिना कोई पत्र पढ़ने वाला कौन है? ऊधो का लाया कागज मन को और बेचैन करता है, क्योंकि प्रभु साथ नहीं। आने-जाने में पांव घिस गए, आंखें रात-सी लाल हो गईं। राधा पत्र पढ़ते-पढ़ते छाती भर आती है, नयनों से गंगा-सी धारा बहती है। मन पीला पड़ गया, जैसे पाना बिना पानी के सूख जाए, और भोजन का स्वाद खो गया। हरि के बिना जीवन दीपक की बाती-सा जलता है। फिर भी राम पर अटल भरोसा है, जो डूबते हाथी को भी तार देता है। मीरां का मन गिरधर में रमा है, जो उसका सच्चा साथी है। यह भक्ति का वह विश्वास है, जो विरह की पीड़ा में भी प्रभु के प्रेम को थामे रखता है।
 
कुबजानें जादु डारा। मोहे लीयो शाम हमारारे॥ कुबजा०॥ध्रु०॥
दिन नहीं चैन रैन नहीं निद्रा। तलपतरे जीव हमरारे॥ कुब०॥१॥
निरमल नीर जमुनाजीको छांड्यो। जाय पिवे जल खारारे॥ कु०॥२॥
इत गोकुल उत मथुरा नगरी। छोड्यायो पिहु प्यारा॥ कु०॥३॥
मोर मुगुट पितांबर शोभे। जीवन प्रान हमारा॥ कु०॥४॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। बिरह समुदर सारा॥ कुबजानें जादू डारारे कुब०॥५॥
 
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