अरे राणा पहले क्यों न बरजी
अरे राणा पहले क्यों न बरजी, लागी गिरधरिया से प्रती।।टेक।।
मार चाहे छाँड, राणा, नहीं रहूँ मैं बरजी।
सगुन साहिब सुमरताँ रे, में थाँरे कोठे खटकी।
राणा जी भेज्या विष रां प्याला, कर चरणामृत गटकी।
दीनबन्धु साँवरिया है रै, जाणत है घट-घट की।
म्हारे हिरदा माँहि बसी है, लटवन मोर मुकूट की।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, मैं हूँ नागर नट की।।
(बरजी=रोक, सगुन=साकार,गुणों का भण्डार,
साहिब=कृष्ण, कोठे=मन में, गटकी=एकदम पी
गई, घट-घट की=प्रत्येक आदमी के हृदय की)
मार चाहे छाँड, राणा, नहीं रहूँ मैं बरजी।
सगुन साहिब सुमरताँ रे, में थाँरे कोठे खटकी।
राणा जी भेज्या विष रां प्याला, कर चरणामृत गटकी।
दीनबन्धु साँवरिया है रै, जाणत है घट-घट की।
म्हारे हिरदा माँहि बसी है, लटवन मोर मुकूट की।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, मैं हूँ नागर नट की।।
(बरजी=रोक, सगुन=साकार,गुणों का भण्डार,
साहिब=कृष्ण, कोठे=मन में, गटकी=एकदम पी
गई, घट-घट की=प्रत्येक आदमी के हृदय की)