अरे राणा पहले क्यों न बरजी
अरे राणा पहले क्यों न बरजी मीरा बाई पदावली
अरे राणा पहले क्यों न बरजी
अरे राणा पहले क्यों न बरजी, लागी गिरधरिया से प्रती।।टेक।।
मार चाहे छाँड, राणा, नहीं रहूँ मैं बरजी।
सगुन साहिब सुमरताँ रे, में थाँरे कोठे खटकी।
राणा जी भेज्या विष रां प्याला, कर चरणामृत गटकी।
दीनबन्धु साँवरिया है रै, जाणत है घट-घट की।
म्हारे हिरदा माँहि बसी है, लटवन मोर मुकूट की।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, मैं हूँ नागर नट की।।
मार चाहे छाँड, राणा, नहीं रहूँ मैं बरजी।
सगुन साहिब सुमरताँ रे, में थाँरे कोठे खटकी।
राणा जी भेज्या विष रां प्याला, कर चरणामृत गटकी।
दीनबन्धु साँवरिया है रै, जाणत है घट-घट की।
म्हारे हिरदा माँहि बसी है, लटवन मोर मुकूट की।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, मैं हूँ नागर नट की।।
(बरजी=रोक, सगुन=साकार,गुणों का भण्डार, साहिब=कृष्ण, कोठे=मन में, गटकी=एकदम पी गई, घट-घट की=प्रत्येक आदमी के हृदय की)
प्रभु से प्रेम का बंधन इतना गहरा है कि संसार की कोई ताकत उसे तोड़ नहीं सकती। मन ने जब गिरधर को अपनाया, तो सारी बाधाएँ—चाहे राजा का क्रोध हो या विष का प्याला—तुच्छ हो गईं। यह प्रेम ऐसी शक्ति है, जो विष को भी अमृत बना देता है, जैसे कोई भक्त चरणामृत की तरह हर कष्ट को गले लगा ले।
प्रभु साकार हैं, उनके गुणों का स्मरण मन को हर पल आलोकित करता है। वह हृदय की हर धड़कन को जानते हैं, हर भाव को समझते हैं। उनके प्रेम में डूबा मन उनकी मुरली की तान और मोरपंख की लटकन में खो जाता है। यह प्रेम नाच है, जहाँ आत्मा प्रभु की नटखट लीला में रम जाती है। सांसारिक बंधन चाहे जितना रोके, भक्त का हृदय तो उसी नागर के चरणों में अर्पित है, जहाँ सच्ची मुक्ति और आनंद बसता है।
प्रभु साकार हैं, उनके गुणों का स्मरण मन को हर पल आलोकित करता है। वह हृदय की हर धड़कन को जानते हैं, हर भाव को समझते हैं। उनके प्रेम में डूबा मन उनकी मुरली की तान और मोरपंख की लटकन में खो जाता है। यह प्रेम नाच है, जहाँ आत्मा प्रभु की नटखट लीला में रम जाती है। सांसारिक बंधन चाहे जितना रोके, भक्त का हृदय तो उसी नागर के चरणों में अर्पित है, जहाँ सच्ची मुक्ति और आनंद बसता है।
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