कैसे जिऊँ री माई हरि बिन कैसे जिऊ
कैसे जिऊँ री माई हरि बिन कैसे जिऊ री मीरा बाई पदावली
कैसे जिऊँ री माई, हरि बिन कैसे जिऊ री
कैसे जिऊँ री माई, हरि बिन कैसे जिऊँ री ।।टेक।।
उदक दादुर पीनवत है, जल से ही उपजाई।
पल एक जल कूँ मीन बिसरे, तलफत मर जाई।
पिया बिन पीली भई रे, ज्यों काठ घुन खाय।
औषध मूल न संचरै, रे बाला बैद फिरि जाय।
उदासी होय बन बन फिरूँ, रे बिथा तन छाई।
दासी मीराँ लाल गिरधर, मिल्या है सुखदाई।।
कैसे जिऊँ री माई, हरि बिन कैसे जिऊँ री ।।टेक।।
उदक दादुर पीनवत है, जल से ही उपजाई।
पल एक जल कूँ मीन बिसरे, तलफत मर जाई।
पिया बिन पीली भई रे, ज्यों काठ घुन खाय।
औषध मूल न संचरै, रे बाला बैद फिरि जाय।
उदासी होय बन बन फिरूँ, रे बिथा तन छाई।
दासी मीराँ लाल गिरधर, मिल्या है सुखदाई।।
(उदक=पानी, मीन=मछली, तलफत=तड़प कर, बाला=वल्लभ,प्रियतम)
हरि के बिना जीवन सूना है, जैसे आत्मा का हर रंग फीका पड़ जाए। यह विरह ऐसा है, मानो मछली जल से दूर तड़प रही हो, या दादुर बिना पानी के सूख जाए। प्रियतम के बिना मन पीला पड़ गया, जैसे लकड़ी को घुन चुपके-चुपके खा जाए। कोई दवा, कोई बैद इस पीड़ा को ठीक नहीं कर सकता; मन उदास होकर जंगलों में भटकता है, शरीर में व्यथा समाई रहती है।
पर जब दासी मीरा को गिरधर मिले, तो सारी तड़प सुख में बदल गई। जैसे कोई प्यासा राहगीर मरुस्थल में झरना पा ले, वैसे ही हरि का मिलन आत्मा को शांति और आनंद देता है। यह भक्ति का वह सत्य है, जो हर दुख को मिटाकर जीवन को प्रेम और सुख से भर देता है।
पर जब दासी मीरा को गिरधर मिले, तो सारी तड़प सुख में बदल गई। जैसे कोई प्यासा राहगीर मरुस्थल में झरना पा ले, वैसे ही हरि का मिलन आत्मा को शांति और आनंद देता है। यह भक्ति का वह सत्य है, जो हर दुख को मिटाकर जीवन को प्रेम और सुख से भर देता है।
सुमन आयो बदरा । श्यामबिना सुमन आयो बदरा ॥ध्रु०॥
सोबत सपनमों देखत शामकू । भरायो नयन निकल गयो कचरा ॥१॥
मथुरा नगरकी चतुरा मालन । शामकू हार हमकू गजरा ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । समय गयो पिछे मीट गया झगरा ॥३॥
मैया मोकू खिजावत बलजोर । मैया मोकु खिजावत ॥ध्रु०॥
जशोदा माता मील ली जाबे । लायो जमुनाको तीर ॥१॥
जशोदाही गोरी नंदही गोरा । तुम क्यौं भयो शाम सरीर ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । नयनमों बरखत नीर ॥३॥
फिर बाजे बरनै हरीकी मुरलीया सुनोरे । सखी मेरो मन हरलीनो ॥१॥
गोकुल बाजी ब्रिंदाबन बाजी । ज्याय बजी वो तो मथुरा नगरीया ॥२॥
तूं तो बेटो नंद बाबाको । मैं बृषभानकी पुरानी गुजरियां ॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । हरिके चरनकी मैं तो बलैया ॥४॥
सोबत सपनमों देखत शामकू । भरायो नयन निकल गयो कचरा ॥१॥
मथुरा नगरकी चतुरा मालन । शामकू हार हमकू गजरा ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । समय गयो पिछे मीट गया झगरा ॥३॥
मैया मोकू खिजावत बलजोर । मैया मोकु खिजावत ॥ध्रु०॥
जशोदा माता मील ली जाबे । लायो जमुनाको तीर ॥१॥
जशोदाही गोरी नंदही गोरा । तुम क्यौं भयो शाम सरीर ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । नयनमों बरखत नीर ॥३॥
फिर बाजे बरनै हरीकी मुरलीया सुनोरे । सखी मेरो मन हरलीनो ॥१॥
गोकुल बाजी ब्रिंदाबन बाजी । ज्याय बजी वो तो मथुरा नगरीया ॥२॥
तूं तो बेटो नंद बाबाको । मैं बृषभानकी पुरानी गुजरियां ॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । हरिके चरनकी मैं तो बलैया ॥४॥
मीराबाई इस पद में अपनी माँ (या सखी) से प्रश्न करती हैं कि वह प्रियतम हरि (श्रीकृष्ण) के बिना जीवन कैसे जिएँ। अपने वियोग की गहन पीड़ा को समझाने के लिए वे एक मार्मिक उदाहरण देती हैं: जिस प्रकार मेंढक पानी में पलते हैं, और मछली पानी (उदक) से ही उत्पन्न होती है, लेकिन यदि मछली एक क्षण के लिए भी जल को भूल जाए, तो वह तड़पकर मर जाती है। ठीक उसी तरह, हरि के बिना मीरा का जीवन निरर्थक है। वे कहती हैं कि पिया (प्रियतम कृष्ण) के वियोग में उनका शरीर पीला पड़ गया है, जैसे लकड़ी को घुन खा जाता है, और अब किसी भी प्रकार की औषधि (दवा) का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है, यहाँ तक कि वैद्य भी हार मानकर लौट गए हैं। अंत में, मीरा यह स्वीकार करती हैं कि वे उदास होकर वन-वन भटक रही हैं क्योंकि उनके पूरे तन में विरह की पीड़ा (बिथा) छा गई है, और वे प्रार्थना करती हैं कि केवल गिरधर लाल से मिलकर ही उन्हें सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है।
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