माई मेरो मोहने मन हर्यो मीरा बाई पदावली

माई मेरो मोहने मन हर्यो मीरा बाई पदावली

माई मेरो मोहने मन हर्यो
माई मेरो मोहने मन हर्यो।।टेक।।
कहा करूँ कित जाऊं सजनी, प्रान पुरूष सूं बर्यो।
हूँ जल भरने जात थी सजनी, कलस माथे करयो।
साँवरी सी किसोर मूरत, कछुक टोनो करयो।
लोक लाज बिसारी डारी, तबहीं कारज सरयो।
दासि मीराँ लाल गिरधर, छान ये वर बरयो।।

(मोहने=कृष्णने, पुरूष=ब्रह्म,कृष्ण, बर्यो=मिल गए, माथे=सिर पर, टोनो=जादू, सरयो=सिद्ध हुआ, छान=छिपे-छिपे, बरयो=वरण किया)
 
मन कृष्ण के प्रेम में इस कदर डूबा है कि वह उनके रंग में पूरी तरह रंग गया। आत्मा व्याकुल है, न कहीं जाने का ठिकाना है, न कुछ करने का उपाय। यह प्रेम उस पल जागा जब साधारण कार्य में, जैसे जल भरने जाते हुए, उनकी सांवली मूरत ने मन मोह लिया। उनका रूप, उनकी छवि, मानो जादू सा बिखेर गई। लोक-लाज का बंधन टूटा, और मन ने प्रभु को ही अपना सब कुछ मान लिया।

यह प्रेम सांसारिक नहीं, बल्कि आत्मा का परम पुरुष के साथ मिलन है। मीरां का मन गिरधर को चुनता है, छिपे-छिपे उनके प्रेम में लीन हो जाता है। यह भक्ति का वह मार्ग है, जहां प्रेम ही पूजा है, और समर्पण ही जीवन का लक्ष्य।
 
प्रभु तुम कैसे दीनदयाळ॥ध्रु०॥
मथुरा नगरीमों राज करत है बैठे। नंदके लाल॥१॥
भक्तनके दुःख जानत नहीं। खेले गोपी गवाल॥२॥
मीरा कहे प्रभू गिरिधर नागर। भक्तनके प्रतिपाल॥३॥

प्रभुजी थे कहाँ गया, नेहड़ो लगाय।
छोड़ गया बिस्वास संगाती प्रेम की बाती बलाय।।
बिरह समंद में छोड़ गया छो हकी नाव चलाय।
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे तुम बिन रह्यो न जाय।।

फरका फरका जो बाई हरी की मुरलीया, सुनोरे सखी मारा मन हरलीया॥ध्रु०॥
गोकुल बाजी ब्रिंदाबन बाजी। और बाजी जाहा मथुरा नगरीया॥१॥
तुम तो बेटो नंदबावांके। हम बृषभान पुराके गुजरीया॥२॥
यहां मधुबनके कटा डारूं बांस। उपजे न बांस मुरलीया॥३॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमलकी लेऊंगी बलय्या॥४॥

हरि मेरे जीवन प्राण अधार।
और आसरो नांही तुम बिन, तीनू लोक मंझार।।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार
आपबिना मोहि कछु न सुहावै निरख्यौ सब संसार।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार
मीरा कहै मैं दासि रावरी, दीज्यो मती बिसार।।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार
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