मन माने जब तार प्रभुजी मन माने जब तार प्रभुजी॥टेक॥ नदिया गहेरी नाव पुराणी। कैशी उतरु पार॥१॥ पोथी पुरान सब कुच देखे। अंत न लागे पार॥२॥ मीर कहे प्रभु गिरिधर नागर। नाम निरंतर सार॥३॥
आली, म्हांने लागे वृन्दावन नीको। घर घर तुलसी ठाकुर पूजा दरसण गोविन्दजी को॥ निरमल नीर बहत जमुना में, भोजन दूध दही को। रतन सिंघासन आप बिराजैं, मुगट धर्यो तुलसी को॥ कुंजन कुंजन फिरति राधिका, सबद सुनन मुरली को। मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बजन बिना नर फीको॥
आली , सांवरे की दृष्टि मानो, प्रेम की कटारी है॥ लागत बेहाल भई, तनकी सुध बुध गई , तन मन सब व्यापो प्रेम, मानो मतवारी है॥ सखियां मिल दोय चारी, बावरी सी भई न्यारी, हौं तो वाको नीके जानौं, कुंजको बिहारी॥ चंदको चकोर चाहे, दीपक पतंग दाहै, जल बिना मीन जैसे, तैसे प्रीत प्यारी है॥ बिनती करूं हे स्याम, लागूं मैं तुम्हारे पांव, मीरा प्रभु ऐसी जानो, दासी तुम्हारी है॥
कठण थयां रे माधव मथुरां जाई, कागळ न लख्यो कटकोरे॥ध्रु०॥ अहियाथकी हरी हवडां पधार्या। औद्धव साचे अटक्यारे॥१॥ अंगें सोबरणीया बावा पेर्या। शीर पितांबर पटकोरे॥२॥ गोकुळमां एक रास रच्यो छे। कहां न कुबड्या संग अतक्योरे॥३॥ कालीसी कुबजा ने आंगें छे कुबडी। ये शूं करी जाणे लटकोरे॥४॥ ये छे काळी ने ते छे। कुबडी रंगे रंग बाच्यो चटकोरे॥५॥ मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। खोळामां घुंघट खटकोरे॥६॥