आव सजनियाँ बाट मैं जोऊँ मीराबाई

आव सजनियाँ बाट मैं जोऊँ मीरा बाई पदावली

आव सजनियाँ बाट मैं जोऊँ
आव सजनियाँ बाट मैं जोऊँ, तेरे कारण रैण न सोऊँ।।टेक।।
जक न परत मन बहुत उदासी, सुन्दर स्याम मिलौ अबिनासी।
तेरे कारण सब हम त्यआगे, षान पान पै मन नहीं लागै। 
 मीराँ के प्रभु दरसण दीज्यौ, मेरी अरज कान सूँण लीज्यौ।।
(जोऊँ=देखना, जक=चैन, षान=खाना, कान सूँण लीज्यो=/ध्यान देकर सुनो)
 
प्रियतम की बाट जोहते मन इतना व्याकुल है कि रातों की नींद उड़ गई। उनके बिना चैन नहीं, हृदय उदासी से भरा है, और केवल उनके सुंदर, अविनाशी रूप की चाह बाकी है। उनके लिए सारा खाना-पान, सांसारिक सुख त्याग दिए, क्योंकि मन अब कहीं और लगता ही नहीं।

मीरा की पुकार उनके दर्शन की है, उनकी कृपा की याचना है। जैसे कोई प्यासा झरने की आवाज सुनकर दौड़ता है, वैसे ही यह भक्ति आत्मा को प्रभु की ओर खींचती है। यह प्रेम और श्रद्धा का वह बंधन है, जो हर सांस को उनकी अर्ज सुनने और दर्शन पाने की आशा में जीवित रखता है।

सुंदर मारो सांवरो । मारा घेर आउंछे वनमाली ॥ध्रु०॥
नाना सुगंधी तेल मंगाऊं । ऊन ऊन पाणी तपाऊं छे ॥
मारा मनमों येही वसे छे । आपने हात न्हवलाऊं छे ॥१॥
खीर खांड पक्वान मिठाई । उपर घीना लडवा छे ॥
मारो मनमों येही वसे छे । आपने होतसे जमाऊं छे ॥२॥
सोना रुपानो पालनो बंधाऊं । रेशमना बंद बांधूं छे ॥
मारा मनमों येडी वसे छे । आपने हात झूलाऊं छे ॥३॥
मीराके प्रभू गिरिधर नागर । चरनकमल बलहारु छे ॥
मारा मनमों येही वसे छे । अपना ध्यान धराऊं छे ॥४॥

कागळ कोण लेई जायरे मथुरामां वसे रेवासी मेरा प्राण पियाजी ॥ध्रु०॥
ए कागळमां झांझु शूं लखिये । थोडे थोडे हेत जणायरे ॥१॥
मित्र तमारा मळवाने इच्छे । जशोमती अन्न न खाय रे ॥२॥
सेजलडी तो मुने सुनी रे लागे । रडतां तो रजनी न जायरे ॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चरनकमल तारूं त्यां जायरे ॥४॥

सामळोजी मारी बात । बाई तमे सामळोजी मारी बात ॥ध्रु०॥
राधा सखी सुंदर घरमां । कुबजानें घर जात ॥१॥
नवलाख धेनु घरमां दुभाय । घर घर गोरस खात ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चरणकमलपर हात ॥३॥

बन जाऊं चरणकी दासी रे । दासी मैं भई उदासी ॥ध्रु०॥
और देव कोई न जाणूं । हरिबिन भई उदासी ॥१॥
नहीं न्हावूं गंगा नहीं न्हावूं जमुना । नहीं न्हावूं प्रयाग कासी ॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चरनकमलकी प्यासी ॥३॥
 
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