
भोले तेरी भक्ति का अपना ही
आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान ।
सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान ॥
ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार ।
कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार ॥
जोबन मिकदारी तजी, चली निशान बजाय ।
सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥
कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय ।
जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय ॥
झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद ।
जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद ॥
काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय ।
कहैं कबीर में क्या करूँ, कोई नहीं पतियाय ॥
निश्चय काल गरासही, बहुत कहा समुझाय ।
कहैं कबीर मैं का कहूँ, देखत न पतियाय ॥
जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय ।
जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय ॥
कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय ।
जरा मुई न भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय ॥
जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त ।
दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥
आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान।
सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान॥
इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि व्यक्ति की आँखें होते हुए भी वह सत्य को नहीं देख पाता, कान होते हुए भी सत्य वचनों को नहीं सुन पाता। सिर के बाल सफेद हो गए हैं, अर्थात् बुढ़ापा आ गया है, फिर भी वह पूर्णतः अज्ञानी बना हुआ है।
ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार।
कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार॥
इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति ज्ञानी होता है, वही हमारे शब्दों का सही अर्थ समझता है। कबीर कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है, जबकि अन्य लोग यम के फंदे में फंसे रहते हैं।
जोबन मिकदारी तजी, चली निशान बजाय।
सिर पर सेत सिरायचा, दिया बुढ़ापै आय॥
इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जवानी का समय बीत गया, अब बुढ़ापा आ गया है। सिर पर सफेद बालों का मुकुट सज गया है, लेकिन फिर भी व्यक्ति अहंकार और दिखावे में लगा हुआ है।
कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय।
जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय॥
इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि समय क्षण-क्षण करके बीतता जा रहा है, जीवन समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। लेकिन जीव सांसारिक जंजालों में फंसा हुआ है, और मृत्यु का दीपक बुझने को है।
झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद।
जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद॥
इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य झूठे सुखों को ही सच्चा सुख मानकर प्रसन्न होता है। लेकिन यह संसार काल का आहार है, कुछ लोग पहले ही काल के ग्रास बन चुके हैं, और कुछ बनने वाले हैं।
काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय।
कहैं कबीर में क्या करूँ, कोई नहीं पतियाय॥
इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि काल (मृत्यु) जीव को निगल जाता है, मैंने यह बात बहुत समझाई है। लेकिन कबीर कहते हैं कि मैं क्या करूँ, कोई इस सत्य को मानने को तैयार नहीं है।
जो उगै सो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय।
जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय॥
इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जो उत्पन्न होता है, वह नष्ट होता है; जो फूलता है, वह मुरझाता है; जो बनता है, वह ढह जाता है; और जो जन्म लेता है, वह मर जाता है। यह संसार का अटल सत्य है।
कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय।
जरा मुई न भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय॥
इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति संसार में कुशल-क्षेम पूछता है, वह नहीं जानता कि यहाँ कोई भी स्थायी नहीं है। बुढ़ापा और भय समाप्त नहीं हुए हैं, तो कुशलता कहाँ से होगी?
जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त।
दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र॥
इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि बुढ़ापा कुत्ते की तरह है और जवानी खरगोश की तरह। काल (मृत्यु) हमेशा शिकारी की तरह तैयार है। इन दो दुश्मनों के बीच हमारा शरीर एक झोंपड़ी की तरह है, ऐसे में कुशलता कहाँ से मिलेगी?
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