श्रंगार-सोरठा
गई आगि उर लाय, आगि लेन आई जो तिय ।
लागी नाहिं बुझाय, भभकि भभकि बरि-बरि उठै ।।1।।
तुरुक गुरुक भरिपूर, डूबि डूबि सुरगुरु उठै ।
चातक चातक दूरि, देह दहे बिन देह को ।।2।।
गई आगि उर लाय, आगि लेन आई जो तिय ।
लागी नाहिं बुझाय, भभकि भभकि बरि-बरि उठै ।।1।।
तुरुक गुरुक भरिपूर, डूबि डूबि सुरगुरु उठै ।
चातक चातक दूरि, देह दहे बिन देह को ।।2।।
दीपक हिए छिपाय, नबल वधू घर ले चली ।
कर विहीन पछिताय, कुच लखि जिन सीसै धुनै ।।3।।
पलटि चली मुसुकाय दुति रहीम उपजात अति ।
बाती सी उसकाय मानों दीनी दीन की ।।4।।
यक नाही यक पी हिय रहीम होती रहै ।
काहु न भई सरीर, रीति न बेदन एक सी ।।5।।
रहिमन पुतरी स्याम, मनहुँ जलज मधुकर लसै ।
कैधों शालिग्राम, रूपे के अरघा धरे ।।6।।
कर विहीन पछिताय, कुच लखि जिन सीसै धुनै ।।3।।
पलटि चली मुसुकाय दुति रहीम उपजात अति ।
बाती सी उसकाय मानों दीनी दीन की ।।4।।
यक नाही यक पी हिय रहीम होती रहै ।
काहु न भई सरीर, रीति न बेदन एक सी ।।5।।
रहिमन पुतरी स्याम, मनहुँ जलज मधुकर लसै ।
कैधों शालिग्राम, रूपे के अरघा धरे ।।6।।
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