रहीम की कविताएं
रहीम की कविताएं
अति अनियारे मानों सान दै सुधारे,
महा विष के विषारे ये करत पर-घात हैं ।
ऐसे अपराधी देख अगम अगाधी यहै,
साधना जो साधी हरि हयि में अन्हात हैं ।।
बार बार बोरे याते लाल लाल डोरे भये,
तोहू तो 'रहीम' थोरे बिधि ना सकात हैं ।
घाइक घनेरे दुखदाइक हैं मेरे नित,
नैन बान तेरे उर बेधि बेधि जात हैं ।।
महा विष के विषारे ये करत पर-घात हैं ।
ऐसे अपराधी देख अगम अगाधी यहै,
साधना जो साधी हरि हयि में अन्हात हैं ।।
बार बार बोरे याते लाल लाल डोरे भये,
तोहू तो 'रहीम' थोरे बिधि ना सकात हैं ।
घाइक घनेरे दुखदाइक हैं मेरे नित,
नैन बान तेरे उर बेधि बेधि जात हैं ।।
बड़ेन सों जान पहिचान कै रहीम कहा,
जो पै करतार ही न सुख देनहार है ।
सीत-हर सूरज सों नेह कियो याही हेत,
ताऊ पै कमल जारि डारत तुषार है ।।
नीरनिधि माँहि धस्यो शंकर के सीस बस्यो,
तऊ ना कलंक नस्यो ससि में सदा रहै ।
बड़ो रीझिवार है, चकोर दरबार है,
कलानिधि सो यार तऊ चाखत अंगार है ।।
जो पै करतार ही न सुख देनहार है ।
सीत-हर सूरज सों नेह कियो याही हेत,
ताऊ पै कमल जारि डारत तुषार है ।।
नीरनिधि माँहि धस्यो शंकर के सीस बस्यो,
तऊ ना कलंक नस्यो ससि में सदा रहै ।
बड़ो रीझिवार है, चकोर दरबार है,
कलानिधि सो यार तऊ चाखत अंगार है ।।
रहीम के इन दोहों में प्रेम, विरह, भक्ति, और जीवन के दार्शनिक पहलुओं का सुंदर चित्रण है। प्रत्येक दोहे का हिंदी अर्थ एक संक्षिप्त पैराग्राफ में निम्नलिखित है:
दोहा 1: रहीम कहते हैं कि कुछ लोग दिखने में बहुत सुंदर और आकर्षक लगते हैं, जैसे सांप जो सुधारी हुई मणि धारण करता है, परंतु वे विषैले और घातक होते हैं। ऐसे अपराधी लोग अगम्य और अगाध होते हैं, लेकिन जो साधक हरि (ईश्वर) के हृदय में अनघट (अनहोनी) साधना को सिद्ध कर लेता है, वह इनसे बच जाता है। यह दोहा बाहरी सुंदरता के धोखे और भक्ति की शक्ति को दर्शाता है।
दोहा 2: रहीम बताते हैं कि प्रियतम की प्रेम भरी नजरों से बार-बार घायल होने के कारण उनके लाल डोरे (नयन) और भी लाल हो गए हैं। रहीम स्वयं को थका हुआ महसूस करते हैं, क्योंकि विधाता (ईश्वर) भी उनके इस प्रेम के दुख को कम नहीं कर पा रहा। प्रिय के नैन-बाण उनके हृदय को बार-बार बेध रहे हैं, जो प्रेम की तीव्र पीड़ा और नायिका की नजरों के प्रभाव को दर्शाता है।
दोहा 3: रहीम प्रश्न उठाते हैं कि बड़े लोगों से पहचान बनाकर क्या लाभ, जब स्वयं कर्तार (ईश्वर) ही सुख देने वाला नहीं है। वे उदाहरण देते हैं कि सूरज ने चंद्रमा से प्रेम किया, परंतु उसी कारण कमल को जलाने वाला ठंडा (तुषार) प्रभाव पड़ता है। यह दोहा सांसारिक रिश्तों की सीमाओं और ईश्वर पर निर्भरता को दर्शाता है।
दोहा 4: रहीम कहते हैं कि समुद्र में डूबने और शिव के सिर पर बसने के बावजूद चंद्रमा का कलंक (दाग) कभी नहीं मिटता। चकोर चंद्रमा के दरबार में रीझता है और उसका प्रेमी है, फिर भी वह चंद्रमा के लिए अंगार (जलन) सहता है। यह दोहा प्रेम की अपूर्णता, उसकी तड़प, और चंद्रमा के प्रतीक के माध्यम से जीवन की विसंगतियों को दर्शाता है।
दोहा 1: रहीम कहते हैं कि कुछ लोग दिखने में बहुत सुंदर और आकर्षक लगते हैं, जैसे सांप जो सुधारी हुई मणि धारण करता है, परंतु वे विषैले और घातक होते हैं। ऐसे अपराधी लोग अगम्य और अगाध होते हैं, लेकिन जो साधक हरि (ईश्वर) के हृदय में अनघट (अनहोनी) साधना को सिद्ध कर लेता है, वह इनसे बच जाता है। यह दोहा बाहरी सुंदरता के धोखे और भक्ति की शक्ति को दर्शाता है।
दोहा 2: रहीम बताते हैं कि प्रियतम की प्रेम भरी नजरों से बार-बार घायल होने के कारण उनके लाल डोरे (नयन) और भी लाल हो गए हैं। रहीम स्वयं को थका हुआ महसूस करते हैं, क्योंकि विधाता (ईश्वर) भी उनके इस प्रेम के दुख को कम नहीं कर पा रहा। प्रिय के नैन-बाण उनके हृदय को बार-बार बेध रहे हैं, जो प्रेम की तीव्र पीड़ा और नायिका की नजरों के प्रभाव को दर्शाता है।
दोहा 3: रहीम प्रश्न उठाते हैं कि बड़े लोगों से पहचान बनाकर क्या लाभ, जब स्वयं कर्तार (ईश्वर) ही सुख देने वाला नहीं है। वे उदाहरण देते हैं कि सूरज ने चंद्रमा से प्रेम किया, परंतु उसी कारण कमल को जलाने वाला ठंडा (तुषार) प्रभाव पड़ता है। यह दोहा सांसारिक रिश्तों की सीमाओं और ईश्वर पर निर्भरता को दर्शाता है।
दोहा 4: रहीम कहते हैं कि समुद्र में डूबने और शिव के सिर पर बसने के बावजूद चंद्रमा का कलंक (दाग) कभी नहीं मिटता। चकोर चंद्रमा के दरबार में रीझता है और उसका प्रेमी है, फिर भी वह चंद्रमा के लिए अंगार (जलन) सहता है। यह दोहा प्रेम की अपूर्णता, उसकी तड़प, और चंद्रमा के प्रतीक के माध्यम से जीवन की विसंगतियों को दर्शाता है।
छबि आवन मोहनलाल की ।
काछनि काछे कलित मुरलि कर पीत पिछौरी साल की ।।
बंक तिलक केसर को कीने दुति मानो बिधु बाल की ।
बिसरत नाहिं सखि मो मन ते चितवनि नयन बिसाल की ।।
नीकी हँसनि अधर सधरनि की छबि छीनी सुमन गुलाल की ।
जल सों डारि दियो पुरइन पर डोलनि मुकता माल की ।।
आप मोल बिन मोलनि डोलनि बोलनि मदनगोपाल की ।
यह सरूप निरखै सोइ जानै इस 'रहीम' के हाल की ।।
दीन चहैं करतार जिन्हें सुख सो तो 'रहीम' टरै नहिं टारे ।
उद्यम पौरुष कीने बिना धन आवत आपुहिं हाथ पसारे ।।
दैव हँसे अपनी अपनी बिधि के परपंच न जात बिचारे ।
बेटा भयो वसुदेव के धाम औ दुंदुभि बाजत नंद के द्वारे ।।
जाति हुती सखि गोहन में मन मोहन कों लखिकै ललचानो ।
नागरि नारि नई ब्रज की उनहूँ नूंदलाल को रीझिबो जानो ।।
जाति भई फिरि कै चितई तब भाव 'रहीम' यहै उर आनो ।
ज्यों कमनैत दमानक में फिरि तीर सों मारि लै जात निसानो ।।
जिहि कारन बार न लाये कछू गहि संभु-सरासन दोय किया ।
गये गेहहिं त्यागि के ताही समै सु निकारि पिता बनवास दिया ।।
कहे बीच 'रहीम' रर्यो न कछू जिन कीनो हुतो बिनुहार हिया ।
बिधि यों न सिया रसबार सिया करबार सिया पिय सार सिया ।।
कमल-दल नैननि की उनमानि
कमल-दल नैननि की उनमानि ।
बिसरत नाहिं सखी मो मन ते मंद मंद मुसकानि ।।
यह दसननि दुति चपला हूते महा चपल चमकानि ।
बसुधा की बसकरी मधुरता सुधा-पगी बतरानि ।।
चढ़ी रहे चित उर बिसाल को मुकुतमाल थहरानि ।
नृत्य-समय पीतांबर हू की फहरि फहरि फहरानि ।
अनुदिन श्री वृन्दाबन ब्रज ते आवन आवन जाति ।
अब 'रहीम 'चित ते न टरति है सकल स्याम की बानि ।।
कौन धौं सीख 'रहीम' इहाँ
कौन धौं सीख 'रहीम' इहाँ इन नैन अनोखि यै नेह की नाँधनि ।
प्यारे सों पुन्यन भेंट भई यह लोक की लाज बड़ी अपराधिनि ।।
स्याम सुधानिधि आनन को मरिये सखि सूँधे चितैवे की साधनि ।
ओट किए रहतै न बनै कहतै न बनै बिरहानल बाधनि ।।
मोहिबो निछोहिबो सनेह में तो नयो नाहिं
मोहिबो निछोहिबो सनेह में तो नयो नाहिं,
भले ही निठुर भये काहे को लजाइये ।।
तन मन रावरे सो मतों के मगन हेतु,
उचरि गये ते कहा तुम्हें खोरि लाइये ।।
चित लाग्यो जित जैये तितही 'रहीम' नित,
धाधवे के हित इत एक बार आइये ।।
जान हुरसी उर बसी है तिहारे उर,
मोसों प्रीति बसी तऊ हँसी न कराइये ।।
पट चाहे तन पेट चाहत छदन मन
पट चाहे तन पेट चाहत छदन मन
चाहत है धन, जेती संपदा सराहिबी ।
तेरोई कहाय कै 'रहीम' कहै दीनबंधु
आपनी बिपत्ति जाय काके द्वारे काहिबी ।।
पेट भर खायो चाहे, उद्यम बनायो चाहे,
कुटुंब जियायो चाहे काढि गुन लाहिबी ।
जीविका हमारी जो पै औरन के कर डारो,
ब्रज के बिहारी तो तिहारी कहाँ साहिबी ।।
पुतरी अतुरीन कहूँ मिलि कै
पुतरी अतुरीन कहूँ मिलि कै लगि लागि गयो कहुँ काहु करैटो ।
हिरदै दहिबै सहिबै ही को है कहिबै को कहा कछु है गहि फेटो ।।
सूधे चितै तन हा हा करें हू 'रहीम' इतो दुख जात क्यों मेटो ।
ऐसे कठोर सों औ चितचोर सों कौन सी हाय घरी भई भेंटो ।।
उत्तम जाति है बाह्मनी, देखत चित्त लुभाय
उत्तम जाति है बाह्मनी, देखत चित्त लुभाय।
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय
रूपरंग रतिराज में, छतरानी इतरान।
मानौ रची बिरंचि पचि, कुसुम कनक में सान
बनियाइनि बनि आइकै, बैठि रूप की हाट।
पेम पेक तन हेरिकै, गरुवै टारति बाट
गरब तराजू करति चख, भौंह मोरि मुसकाति।
डाँड़ी मारति बिरह की, चित चिंता घटि जाति
काछनि काछे कलित मुरलि कर पीत पिछौरी साल की ।।
बंक तिलक केसर को कीने दुति मानो बिधु बाल की ।
बिसरत नाहिं सखि मो मन ते चितवनि नयन बिसाल की ।।
नीकी हँसनि अधर सधरनि की छबि छीनी सुमन गुलाल की ।
जल सों डारि दियो पुरइन पर डोलनि मुकता माल की ।।
आप मोल बिन मोलनि डोलनि बोलनि मदनगोपाल की ।
यह सरूप निरखै सोइ जानै इस 'रहीम' के हाल की ।।
दीन चहैं करतार जिन्हें सुख सो तो 'रहीम' टरै नहिं टारे ।
उद्यम पौरुष कीने बिना धन आवत आपुहिं हाथ पसारे ।।
दैव हँसे अपनी अपनी बिधि के परपंच न जात बिचारे ।
बेटा भयो वसुदेव के धाम औ दुंदुभि बाजत नंद के द्वारे ।।
जाति हुती सखि गोहन में मन मोहन कों लखिकै ललचानो ।
नागरि नारि नई ब्रज की उनहूँ नूंदलाल को रीझिबो जानो ।।
जाति भई फिरि कै चितई तब भाव 'रहीम' यहै उर आनो ।
ज्यों कमनैत दमानक में फिरि तीर सों मारि लै जात निसानो ।।
जिहि कारन बार न लाये कछू गहि संभु-सरासन दोय किया ।
गये गेहहिं त्यागि के ताही समै सु निकारि पिता बनवास दिया ।।
कहे बीच 'रहीम' रर्यो न कछू जिन कीनो हुतो बिनुहार हिया ।
बिधि यों न सिया रसबार सिया करबार सिया पिय सार सिया ।।
कमल-दल नैननि की उनमानि
कमल-दल नैननि की उनमानि ।
बिसरत नाहिं सखी मो मन ते मंद मंद मुसकानि ।।
यह दसननि दुति चपला हूते महा चपल चमकानि ।
बसुधा की बसकरी मधुरता सुधा-पगी बतरानि ।।
चढ़ी रहे चित उर बिसाल को मुकुतमाल थहरानि ।
नृत्य-समय पीतांबर हू की फहरि फहरि फहरानि ।
अनुदिन श्री वृन्दाबन ब्रज ते आवन आवन जाति ।
अब 'रहीम 'चित ते न टरति है सकल स्याम की बानि ।।
कौन धौं सीख 'रहीम' इहाँ
कौन धौं सीख 'रहीम' इहाँ इन नैन अनोखि यै नेह की नाँधनि ।
प्यारे सों पुन्यन भेंट भई यह लोक की लाज बड़ी अपराधिनि ।।
स्याम सुधानिधि आनन को मरिये सखि सूँधे चितैवे की साधनि ।
ओट किए रहतै न बनै कहतै न बनै बिरहानल बाधनि ।।
मोहिबो निछोहिबो सनेह में तो नयो नाहिं
मोहिबो निछोहिबो सनेह में तो नयो नाहिं,
भले ही निठुर भये काहे को लजाइये ।।
तन मन रावरे सो मतों के मगन हेतु,
उचरि गये ते कहा तुम्हें खोरि लाइये ।।
चित लाग्यो जित जैये तितही 'रहीम' नित,
धाधवे के हित इत एक बार आइये ।।
जान हुरसी उर बसी है तिहारे उर,
मोसों प्रीति बसी तऊ हँसी न कराइये ।।
पट चाहे तन पेट चाहत छदन मन
पट चाहे तन पेट चाहत छदन मन
चाहत है धन, जेती संपदा सराहिबी ।
तेरोई कहाय कै 'रहीम' कहै दीनबंधु
आपनी बिपत्ति जाय काके द्वारे काहिबी ।।
पेट भर खायो चाहे, उद्यम बनायो चाहे,
कुटुंब जियायो चाहे काढि गुन लाहिबी ।
जीविका हमारी जो पै औरन के कर डारो,
ब्रज के बिहारी तो तिहारी कहाँ साहिबी ।।
पुतरी अतुरीन कहूँ मिलि कै
पुतरी अतुरीन कहूँ मिलि कै लगि लागि गयो कहुँ काहु करैटो ।
हिरदै दहिबै सहिबै ही को है कहिबै को कहा कछु है गहि फेटो ।।
सूधे चितै तन हा हा करें हू 'रहीम' इतो दुख जात क्यों मेटो ।
ऐसे कठोर सों औ चितचोर सों कौन सी हाय घरी भई भेंटो ।।
उत्तम जाति है बाह्मनी, देखत चित्त लुभाय
उत्तम जाति है बाह्मनी, देखत चित्त लुभाय।
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय
रूपरंग रतिराज में, छतरानी इतरान।
मानौ रची बिरंचि पचि, कुसुम कनक में सान
बनियाइनि बनि आइकै, बैठि रूप की हाट।
पेम पेक तन हेरिकै, गरुवै टारति बाट
गरब तराजू करति चख, भौंह मोरि मुसकाति।
डाँड़ी मारति बिरह की, चित चिंता घटि जाति
