चुनिन्दा शेर मीर तकी मीर Selected Sher Meer Taki Meer Poet Lyrics Hindi

चुनिन्दा शेर मीर तकी मीर Selected Sher Meer Taki Meer Poet Lyrics Hindi


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मीर तक़ी मीर
चुनिन्दा शेर मीर तकी मीर
आदम-ए-ख़ाकी से आलम को जिला है वर्ना
आईना था तो मगर क़ाबिल-ए-दीदार न था

आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम
अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये

आशिक़ों की ख़स्तगी बद-हाली की पर्वा नहीं
ऐ सरापा नाज़ तू ने बे-नियाज़ी ख़ूब की

आवरगान-ए-इश्क़ का पूछा जो मैं निशाँ
मुश्त-ए-ग़ुबार ले के सबा ने उड़ा दिया

अब देख ले कि सीना भी ताज़ा हुआ है चाक
फिर हम से अपना हाल दिखाया न जाएगा

अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है

अब कर के फ़रामोश तो नाशाद करोगे
पर हम जो न होंगे तो बहुत याद करोगे

अब के जुनूँ में फ़ासला शायद न कुछ रहे
दामन के चाक और गिरेबाँ के चाक में

अब मुझ ज़ईफ़-ओ-ज़ार को मत कुछ कहा करो
जाती नहीं है मुझ से किसू की उठाई बात

अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर'
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया

अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया

अमीर-ज़ादों से दिल्ली के मत मिला कर 'मीर'
कि हम ग़रीब हुए हैं इन्हीं की दौलत से

इज्ज़-ओ-नियाज़ अपना अपनी तरफ़ है सारा
इस मुश्त-ए-ख़ाक को हम मसजूद जानते हैं

इक़रार में कहाँ है इंकार की सी सूरत
होता है शौक़ ग़ालिब उस की नहीं नहीं पर

इश्क़ है इश्क़ करने वालों को
कैसा कैसा बहम क्या है इश्क़

इश्क़ है तर्ज़ ओ तौर इश्क़ के तईं
कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़

इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो
सारे आलम में भर रहा है इश्क़

इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है

इश्क़ का घर है 'मीर' से आबाद
ऐसे फिर ख़ानमाँ-ख़राब कहाँ

इश्क़ करते हैं उस परी-रू से
'मीर' साहब भी क्या दिवाने हैं

इश्क़ माशूक़ इश्क़ आशिक़ है
यानी अपना ही मुब्तला है इश्क़

इश्क़ में जी को सब्र ओ ताब कहाँ
उस से आँखें लड़ीं तो ख़्वाब कहाँ

इश्क़ से जा नहीं कोई ख़ाली
दिल से ले अर्श तक भरा है इश्क़

उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

उम्र गुज़री दवाएँ करते 'मीर'
दर्द-ए-दिल का हुआ न चारा हनूज़

काबे में जाँ-ब-लब थे हम दूरी-ए-बुताँ से
आए हैं फिर के यारो अब के ख़ुदा के हाँ से

काम थे इश्क़ में बहुत पर 'मीर'
हम ही फ़ारिग़ हुए शिताबी से

कासा-ए-चश्म ले के जूँ नर्गिस
हम ने दीदार की गदाई की

कहा मैं ने गुल का है कितना सबात
कली ने ये सुन कर तबस्सुम किया

कहते तो हो यूँ कहते यूँ कहते जो वो आता
ये कहने की बातें हैं कुछ भी न कहा जाता

कौन कहता है न ग़ैरों पे तुम इमदाद करो
हम फ़रामोशियों को भी कभू याद करो

कौन लेता था नाम मजनूँ का
जब कि अहद-ए-जुनूँ हमारा था

ख़राब रहते थे मस्जिद के आगे मय-ख़ाने
निगाह-ए-मस्त ने साक़ी की इंतिक़ाम लिया

खिलना कम कम कली ने सीखा है
उस की आँखों की नीम-ख़्वाबी से

ख़ुदा को काम तो सौंपे हैं मैं ने सब लेकिन
रहे है ख़ौफ़ मुझे वाँ की बे-नियाज़ी का

किन नींदों अब तू सोती है ऐ चश्म-ए-गिर्या-नाक
मिज़्गाँ तो खोल शहर को सैलाब ले गया

किसू से दिल नहीं मिलता है या रब
हुआ था किस घड़ी उन से जुदा मैं

कितनी बातें बना के लाऊँ लेक
याद रहतीं तिरे हुज़ूर नहीं

कोई तुम सा भी काश तुम को मिले
मुद्दआ हम को इंतिक़ाम से है

कोहकन क्या पहाड़ तोड़ेगा
इश्क़ ने ज़ोर-आज़माई की

कुछ हो रहेगा इश्क़-ओ-हवस में भी इम्तियाज़
आया है अब मिज़ाज तिरा इम्तिहान पर

कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की
धूम है फिर बहार आने की

कुछ नहीं सूझता हमें उस बिन
शौक़ ने हम को बे-हवास किया

क्या आज-कल से उस की ये बे-तवज्जोही है
मुँह उन ने इस तरफ़ से फेरा है 'मीर' कब का

क्या जानूँ चश्म-ए-तर से उधर दिल को क्या हुआ
किस को ख़बर है 'मीर' समुंदर के पार की

क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता
अब तो चुप भी रहा नहीं जाता

क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़
जान का रोग है बला है इश्क़

क़बा-ए-लाला-ओ-गुल में झलक रही थी ख़िज़ाँ
भरी बहार में रोया किए बहार को हम

उस के फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर
शम-ए-हरम हो या हो दिया सोमनात का

उस के ईफ़ा-ए-अहद तक न जिए
उम्र ने हम से बेवफ़ाई की

चमन में गुल ने जो कल दावा-ए-जमाल किया
जमाल-ए-यार ने मुँह उस का ख़ूब लाल किया

चश्म हो तो आईना-ख़ाना है दहर
मुँह नज़र आता है दीवारों के बीच

दावा किया था गुल ने तिरे रुख़ से बाग़ में
सैली लगी सबा की तो मुँह लाल हो गया

दे के दिल हम जो हो गए मजबूर
इस में क्या इख़्तियार है अपना

देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है

दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले

दिल कि यक क़तरा ख़ूँ नहीं है बेश
एक आलम के सर बला लाया

दूर बैठा ग़ुबार-ए-'मीर' उस से
इश्क़ बिन ये अदब नहीं आता

ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत ग़म रहा

गुफ़्तुगू रेख़्ते में हम से न कर
ये हमारी ज़बान है प्यारे

जाए है जी नजात के ग़म में
ऐसी जन्नत गई जहन्नम में

जब कि पहलू से यार उठता है
दर्द बे-इख़्तियार उठता है

जम गया ख़ूँ कफ़-ए-क़ातिल पे तिरा 'मीर' ज़ि-बस
उन ने रो रो दिया कल हाथ को धोते धोते

जौर क्या क्या जफ़ाएँ क्या क्या हैं
आशिक़ी में बलाएँ क्या क्या हैं

जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए
अक्सर हमारे साथ के बीमार मर गए

जिस सर को ग़ुरूर आज है याँ ताज-वरी का
कल उस पे यहीं शोर है फिर नौहागरी का

जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा
तो हम-साया काहे को सोता रहेगा

जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले

तदबीर मेरे इश्क़ की क्या फ़ाएदा तबीब
अब जान ही के साथ ये आज़ार जाएगा

तन के मामूरे में यही दिल-ओ-चशम
घर थे दो सो ख़राब हैं दोनों

था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था
ख़ुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा ज़ुहूर था

तुझ को मस्जिद है मुझ को मय-ख़ाना
वाइज़ा अपनी अपनी क़िस्मत है

तुझी पर कुछ ऐ बुत नहीं मुनहसिर
जिसे हम ने पूजा ख़ुदा कर दिया

ज़ख़्म झेले दाग़ भी खाए बहुत
दिल लगा कर हम तो पछताए बहुत

ज़िंदाँ में भी शोरिश न गई अपने जुनूँ की
अब संग मुदावा है इस आशुफ़्ता-सरी का

बाल-ओ-पर भी गए बहार के साथ
अब तवक़्क़ो नहीं रिहाई की

बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो

बहुत कुछ कहा है करो 'मीर' बस
कि अल्लाह बस और बाक़ी हवस

बज़्म-ए-इशरत में मलामत हम निगूँ बख़्तों के तईं
जूँ हुबाब-ए-बादा साग़र सर-निगूँ हो जाएगा

बे-ख़ुदी ले गई कहाँ हम को
देर से इंतिज़ार है अपना

बेवफ़ाई पे तेरी जी है फ़िदा
क़हर होता जो बा-वफ़ा होता

बुलबुल ग़ज़ल-सराई आगे हमारे मत कर
सब हम से सीखते हैं अंदाज़ गुफ़्तुगू का

दीदनी है शिकस्तगी दिल की
क्या इमारत ग़मों ने ढाई है

दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है
ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया

दिल मुझे उस गली में ले जा कर
और भी ख़ाक में मिला लाया

दिल से रुख़्सत हुई कोई ख़्वाहिश
गिर्या कुछ बे-सबब नहीं आता

दिल से शौक़-ए-रुख़-ए-नकू न गया
झाँकना ताकना कभू न गया

दिल वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके
पछताओगे सुनो हो ये बस्ती उजाड़ कर

दिल्ली के न थे कूचे औराक़-ए-मुसव्वर थे
जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई

दिल्ली में आज भीक भी मिलती नहीं उन्हें
था कल तलक दिमाग़ जिन्हें ताज-ओ-तख़्त का

फ़ुर्सत में इक नफ़स के क्या दर्द-ए-दिल सुनोगे
आए तो तुम व-लेकिन वक़्त-ए-अख़ीर आए

नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं हम को अबस बदनाम किया

नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

नाज़ुक-मिज़ाज आप क़यामत हैं 'मीर' जी
जूँ शीशा मेरे मुँह न लगो मैं नशे में हूँ

पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारीयाँ

पैदा कहाँ हैं ऐसे परागंदा-तब्अ लोग
अफ़सोस तुम को 'मीर' से सोहबत नहीं रही

पैमाना कहे है कोई मय-ख़ाना कहे है
दुनिया तिरी आँखों को भी क्या क्या न कहे है

परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

फिरते हैं 'मीर' ख़्वार कोई पूछता नहीं
इस आशिक़ी में इज़्ज़त-ए-सादात भी गई

मअरका गर्म तो हो लेने दो ख़ूँ-रेज़ी का
पहले शमशीर के नीचे हमीं जा बैठेंगे

मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़
उसी ख़ाना-ख़राब की सी है

मर्ग इक माँदगी का वक़्फ़ा है
यानी आगे चलेंगे दम ले कर

मसाइब और थे पर दिल का जाना
अजब इक सानेहा सा हो गया है

मत रंजा कर किसी को कि अपने तू ए'तिक़ाद
दिल ढाए कर जो काबा बनाया तो क्या हुआ

मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं

मेरे रोने की हक़ीक़त जिस में थी
एक मुद्दत तक वो काग़ज़ नम रहा

'मीर' अमदन भी कोई मरता है
जान है तो जहान है प्यारे

'मीर' बंदों से काम कब निकला
माँगना है जो कुछ ख़ुदा से माँग

'मीर' हम मिल के बहुत ख़ुश हुए तुम से प्यारे
इस ख़राबे में मिरी जान तुम आबाद रहो

'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया

'मीर' को क्यूँ न मुग़्तनिम जाने
अगले लोगों में इक रहा है ये

'मीर' साहब तुम फ़रिश्ता हो तो हो
आदमी होना तो मुश्किल है मियाँ

'मीर' उन नीम-बाज़ आँखों में
सारी मस्ती शराब की सी है

'मीर'-जी ज़र्द होते जाते हो
क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़

'मीर'-साहिब ज़माना नाज़ुक है
दोनों हाथों से थामिए दस्तार

मिरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया

मुँह तका ही करे है जिस तिस का
हैरती है ये आईना किस का

मुझ को शायर न कहो 'मीर' कि साहब मैं ने
दर्द ओ ग़म कितने किए जम्अ तो दीवान किया

मुझे काम रोने से अक्सर है नासेह
तू कब तक मिरे मुँह को धोता रहेगा

यही जाना कि कुछ न जाना हाए
सो भी इक उम्र में हुआ मालूम

ये जो मोहलत जिसे कहे हैं उम्र
देखो तो इंतिज़ार सा है कुछ

ये तवहहुम का कार-ख़ाना है
याँ वही है जो ए'तिबार क्या

यूँ नाकाम रहेंगे कब तक जी में है इक काम करें
रुस्वा हो कर मर जावें उस को भी बदनाम करें

यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है

लाया है मिरा शौक़ मुझे पर्दे से बाहर
मैं वर्ना वही ख़ल्वती-ए-राज़-ए-निहाँ हूँ

लगा न दिल को कहीं क्या सुना नहीं तू ने
जो कुछ कि 'मीर' का इस आशिक़ी ने हाल किया

ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम
आफ़ाक़ की इस कारगह-ए-शीशागरी का

लेते ही नाम उस का सोते से चौंक उठ्ठे
है ख़ैर 'मीर'-साहिब कुछ तुम ने ख़्वाब देखा

लिखते रुक़आ लिखे गए दफ़्तर
शौक़ ने बात क्या बढ़ाई है

राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या

रात तो सारी गई सुनते परेशाँ-गोई
'मीर'-जी कोई घड़ी तुम भी तो आराम करो

रफ़्तगाँ में जहाँ के हम भी हैं
साथ उस कारवाँ के हम भी हैं

रोते फिरते हैं सारी सारी रात
अब यही रोज़गार है अपना

रोज़ आने पे नहीं निस्बत-ए-इश्क़ी मौक़ूफ़
उम्र भर एक मुलाक़ात चली जाती है

रू-ए-सुख़न है कीधर अहल-ए-जहाँ का या रब
सब मुत्तफ़िक़ हैं इस पर हर एक का ख़ुदा है

सब पे जिस बार ने गिरानी की
उस को ये ना-तवाँ उठा लाया

सदा हम तो खोए गए से रहे
कभू आप में तुम ने पाया हमें

सख़्त काफ़िर था जिन ने पहले 'मीर'
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया

सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया हम को
वगर्ना हम ख़ुदा थे गर दिल-ए-बे-मुद्दआ होते

शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ
दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का

शफ़क़ से हैं दर-ओ-दीवार ज़र्द शाम-ओ-सहर
हुआ है लखनऊ इस रहगुज़र में पीलीभीत

शर्त सलीक़ा है हर इक अम्र में
ऐब भी करने को हुनर चाहिए

शेर मेरे हैं गो ख़वास-पसंद
पर मुझे गुफ़्तुगू अवाम से है

शिकवा-ए-आबला अभी से 'मीर'
है पियारे हनूज़ दिल्ली दूर

वस्ल में रंग उड़ गया मेरा
क्या जुदाई को मुँह दिखाऊँगा

वस्ल उस का ख़ुदा नसीब करे
'मीर' दिल चाहता है क्या क्या कुछ

वे दिन गए कि आँखें दरिया सी बहतियाँ थीं
सूखा पड़ा है अब तो मुद्दत से ये दो-आबा

याद उस की इतनी ख़ूब नहीं 'मीर' बाज़ आ
नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा

हम आप ही को अपना मक़्सूद जानते हैं
अपने सिवाए किस को मौजूद जानते हैं

हम फ़क़ीरों से बे-अदाई क्या
आन बैठे जो तुम ने प्यार किया

हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए
उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए

हम जानते तो इश्क़ न करते किसू के साथ
ले जाते दिल को ख़ाक में इस आरज़ू के साथ

हम ने अपनी सी की बहुत लेकिन
मरज़-ए-इश्क़ का इलाज नहीं

हम ने जाना था लिखेगा तू कोई हर्फ़ ऐ 'मीर'
पर तिरा नामा तो इक शौक़ का दफ़्तर निकला

हम तौर-ए-इश्क़ से तो वाक़िफ़ नहीं हैं लेकिन
सीने में जैसे कोई दिल को मला करे है

हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया

हर क़दम पर थी उस की मंज़िल लेक
सर से सौदा-ए-जुस्तजू न गया

हस्ती अपनी हबाब की सी है
ये नुमाइश सराब की सी है

होगा किसी दीवार के साए में पड़ा 'मीर'
क्या काम मोहब्बत से उस आराम-तलब को

होश जाता नहीं रहा लेकिन
जब वो आता है तब नहीं आता

सारे आलम पर हूँ मैं छाया हुआ
मुस्तनद है मेरा फ़रमाया हुआ

सिरहाने 'मीर' के आहिस्ता बोलो
अभी टुक रोते रोते सो गया है


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