आदिनाथ चालीसा अर्थ महत्त्व फायदे

आदिनाथ चालीसा अर्थ महत्त्व फायदे

भगवान श्री आदिनाथ जी को ऋषभदेव भी कहा जाता है। भगवान श्री आदिनाथ जी जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर है। भगवान श्री आदिनाथ जी के पिता का नाम नाभिराज और उनकी माता का नाम मरु देवी था। भगवान श्री आदिनाथ जी का जन्म अयोध्या नगरी में हुआ था। 
 
आदिनाथ चालीसा अर्थ महत्त्व फायदे

 
 
जैन धर्म के अनुसार वह प्रभु श्री राम जी के पूर्वज थे। भगवान श्री आदिनाथ जी संसार ने अहिंसा का प्रचार प्रसार किया। भगवान श्री आदिनाथ जी ने कहा कि अहिंसा ही परम धर्म है। एक दिन भगवान श्री आदिनाथ जी नृत्य देख रहे थे, नृत्य  देखते-देखते ही उनके मन में वैराग्य की इच्छा जागृत हुई और उन्होंने वैराग्य धारण कर लिया। भगवान श्री आदिनाथ जी ने अपने पुत्र भरत का राज्याभिषेक किया और इस धरा को 'भारत' का नाम दिया। फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को भगवान श्री आदिनाथ जी को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। भगवान श्री आदिनाथ जी को माघ माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन कैलाश पर्वत पर निर्वाण प्राप्त हुआ। 
 
भगवान श्री आदिनाथ जी का प्रतीक चिन्ह वृषभ है। वृषभ मेहनत, परिश्रम, बल तथा साहस का प्रतीक है। भगवान श्री आदिनाथ जी का चालीसा पाठ करने से मन में बल और साहस का संचार होता है। भगवान श्री आदिनाथ जी ने अहिंसा के पथ पर चलकर लोगों का कल्याण करने का संदेश दिया है। भगवान श्री आदिनाथ जी ने ही खेती करना सिखाया। भगवान श्री आदिनाथ जी ने लोगों को सूर्य चंद्रमा का ज्ञान प्रदान किया। सभी के साथ न्याय और अपराध का उचित दंड देने की शुरुआत भी भगवान श्री आदिनाथ जी ने ही की थी। 
 
ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं। तीर्थंकर का अर्थ होता है जो तीर्थ की रचना करें। जो संसार सागर (जन्म मरण के चक्र) से मोक्ष तक के तीर्थ की रचना करें, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। ऋषभदेव जी को आदिनाथ भी कहा जाता है। भगवान ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम दिगम्बर जैन मुनि थे
 
जन्मभूमि - अयोध्या (उत्तर प्रदेश)
पिता - महाराज नाभिराय
माता - महारानी मरुदेवी
वर्ण - क्षत्रिय
वंश - इक्ष्वाकु
देहवर्ण - तप्त स्वर्ण सदृश
चिन्ह - बैल
आयु - चौरासी लाख पूर्व वर्ष
अवगाहना - दो हजार हाथ
गर्भ - आषाढ़ कृ.२
जन्म - चैत्र कृ.९
तप - चैत्र कृ.९
दीक्षा-केवलज्ञान वन एवं वृक्ष - प्रयाग-सिद्धार्थवन, वट वृक्ष (अक्षयवट)
प्रथम आहार - हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस द्वारा (इक्षुरस)
केवलज्ञान - फाल्गुन कृ.११
मोक्ष - माघ कृ.१४
मोक्षस्थल - कैलाश पर्वत
समवसरण में गणधर - श्री वृषभसेन आदि ८४
समवसरण में मुनि - चौरासी हजार
समवसरण में गणिनी - आर्यिका ब्राह्मी
समवसरण में आर्यिका - तीन लाख पचास हजार
समवसरण में श्रावक - तीन लाख
समवसरण में श्राविका - पांच लाख
जिनशासन यक्ष - गोमुख देव
जिनशासन यक्षी - चक्रेश्वरी देवी
!! ऊँ ह्रीं श्री ऋषभदेवाय नम:!!
भगवान ऋषभदेव जी की एक ८४ फुट की विशाल प्रतिमा भारत में मध्य प्रदेश राज्य के बड़वानी जिले में बावनगजा नामक स्थान पर उपस्थित है। मांगी तुन्गी ( महाराष्ट्र ) में भगवान ऋषभदेव की 108 फुट की विशाल प्रतिमा है।
आदिनाथ चालीसा हिंदी
 दोहा
शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन करुं प्रणाम |
उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम |
सर्व साधु और सरस्वती, जिन मन्दिर सुखकार |
आदिनाथ भगवान को, मन मन्दिर में धार ।।

चोपाई
जय जय आदिनाथ जिन के स्वामी, तीनकाल तिहूं जग में नामी ।
वेष दिगम्बर धार रहे हो, कर्मो को तुम मार रहे हो ।।
हो सर्वज्ञ बात सब जानो, सारी दुनिया को पहचानो ।
नगर अयोध्या जो कहलाये, राजा नभिराज बतलाये ।।
मरूदेवी माता के उदर से, चैतबदी नवमी को जन्मे ।
तुमने जग को ज्ञान सिखाया, कर्मभूमी का बीज उपाया ।।
कल्पवृक्ष जब लगे बिछरने, जनता आई दुखडा कहने ।
सब का संशय तभी भगाया, सूर्य चन्द्र का ज्ञान कराया ।।
खेती करना भी सिखलाया, न्याय दण्ड आदिक समझाया ।
तुमने राज किया नीती का सबक आपसे जग ने सीखा ।।
पुत्र आपका भरत बतलाया, चक्रवर्ती जग में कहलाया ।
बाहुबली जो पुत्र तुम्हारे, भरत से पहले मोक्ष सिधारे ।।
सुता आपकी दो बतलाई, ब्राह्मी और सुन्दरी कहलाई ।।
उनको भी विध्या सिखलाई, अक्षर और गिनती बतलाई ।
इक दिन राज सभा के अंदर, एक अप्सरा नाच रही थी ।।


आयु बहुत बहुत अल्प थी, इस लिय आगे नही नाच सकी थी ।
विलय हो गया उसका सत्वर, झट आया वैराग्य उमङ कर ।।
बेटो को झट पास बुलाया, राज पाट सब में बटवाया ।
छोड सभी झंझट संसारी, वन जाने की करी तैयारी ।।
राजा हजारो साथ सिधाए, राजपाट तज वन को धाये ।
लेकिन जब तुमने तप कीना, सबने अपना रस्ता लीना ।।
वेष दिगम्बर तज कर सबने, छाल आदि के कपडे पहने ।
भूख प्यास से जब घबराये, फल आदिक खा भूख मिटाये ।।
तीन सौ त्रेसठ धर्म फैलाये, जो जब दुनिया में दिखलाये ।
छः महिने तक ध्यान लगाये, फिर भोजन करने को धाये ।।
भोजन विधि जाने न कोय, कैसे प्रभु का भोजन होय ।
इसी तरह चलते चलते, छः महिने भोजन को बीते ।।
नगर हस्तिनापुर में आये, राजा सोम श्रेयांस बताए ।
याद तभी पिछला भव आया, तुमको फौरन ही पडगाया ।।
रस गन्ने का तुमने पाया, दुनिया को उपदेश सुनाया ।
तप कर केवल ज्ञान पाया, मोक्ष गए सब जग हर्षाया ।।
अतिशय युक्त तुम्हारा मन्दिर, चांदखेडी भंवरे के अंदर ।
उसको यह अतिशय बतलाया, कष्ट क्लेश का होय सफाया ।
मानतुंग पर दया दिखाई, जंजिरे सब काट गिराई ।
राजसभा में मान बढाया, जैन धर्म जग में फैलाया ।।
मुझ पर भी महिमा दिखलाओ, कष्ट भक्त का दूर भगाओ ।।

सोरठा
पाठ करे चालीस दिन, नित चालीस ही बार,
चांदखोडी में आयके, खेवे धूप अपार ।
जन्म दरिद्री होय जो, होय कुबेर समान,
नाम वंश जग में चले, जिसके नही संतान ।।


Aadinath Chalisa | Jain Chalisa | Shri Aadinath Chalisa | श्री आदिनाथ चालीसा | Jain Bhajan

‘जिन- चालीसा’ :- देव- दर्शन और स्तवन का अनूठा कार्यक्रम‘जिन- चालीसा’, जिनवाणी चैनल के माध्यम से जैनधर्म के चौबीस आराध्य देवों की कल्याणकारी जीवन गाथा को सुर,लय, ताल से सुसज्जित कर पदों को प्रतिदिन प्रसारित किया जाता है।

आदिनाथ की महिमा अनंत है, जो सृष्टि को धर्म और ज्ञान का प्रथम मार्ग दिखाती है। अयोध्या में नभिराज और मरुदेवी के पुत्र के रूप में अवतरित होकर उन्होंने कर्मभूमि की नींव रखी। जैसे उन्होंने खेती, न्याय और शासन की कला सिखाकर जग को समृद्ध किया, वैसे ही वैराग्य की प्रेरणा से राजपाट त्यागकर मोक्ष का पथ प्रशस्त किया। अप्सरा के नृत्य में क्षणभंगुरता का दर्शन पाकर उन्होंने संसार की नश्वरता को उजागर किया। दिगंबर वेश में तपस्या कर, केवल ज्ञान प्राप्त कर, उन्होंने प्राणियों को कर्मों से मुक्ति का रास्ता बताया। हस्तिनापुर में गन्ने के रस से उपवास तोड़कर उन्होंने भोजन की शुद्ध विधि सिखाई। उनकी कृपा से चांदखेड़ी का मंदिर आज भी कष्टों को हरता है। यह भक्ति मन को सिखाती है कि सच्चा सुख त्याग, तप और शुद्ध आचरण में है, जो आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाता है।

अजितनाथ भगवान का जीवन दिव्य ज्ञान और आत्म-शुद्धि की अद्भुत यात्रा को दर्शाता है। उनका जन्म अयोध्या की पुण्य भूमि में हुआ, जहाँ महाराज जितराज और महारानी विजयसेना ने सोलह शुभ स्वप्नों के संकेत से उनके आगमन का अनुभव किया। इस दिव्य संयोग ने स्पष्ट किया कि उनका जीवन केवल सांसारिक ऐश्वर्य के लिए नहीं, बल्कि आत्मा की उच्चतम अवस्था को प्राप्त करने के लिए था।

शिशु अवस्था से ही उनका तेज अपूर्व था—इन्द्र ने स्वयं सुमेरु पर्वत पर उनके अभिषेक में भाग लिया, जहाँ दिव्य वस्त्र और आभूषणों से उनका अलंकरण हुआ। उनके रूप का गौरव स्वर्ण समान था, और उनका जीवन प्रारंभ से ही धर्म और निष्ठा से ओत-प्रोत रहा। विवाह के उपरांत भी, उन्होंने सांसारिक भोगों में अपनी आत्मा को लिप्त नहीं होने दिया—उनका अंतर्दृष्टि सदा योग और आत्मचिंतन में स्थिर रही।

जब उन्होंने आकाश में चंचल मेघों को देखा, जो पल भर में विलीन हो गए, तब वैराग्य की भावना उनके हृदय में जागी। यह वैराग्य केवल अस्थायी अनुभव नहीं था, बल्कि जीवन की असारता को पूर्ण रूप से समझने की प्रक्रिया थी। उसी क्षण उन्होंने राजपाट का त्याग कर दीक्षा ग्रहण की—इस सत्य को अपनाने के लिए कि मुक्ति का मार्ग संयम और ज्ञान से ही संभव है।

बारह वर्षों तक कठोर तपस्या द्वारा उन्होंने आत्मा की दिव्यता को और अधिक शुद्ध किया। जब केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, तब उनका ज्ञान सात तत्वों के स्पष्ट विवेचन के रूप में प्रकट हुआ। उनकी दिव्यध्वनि ने स्पष्ट किया कि आत्मा शुद्ध हो सकती है, जब ध्यान की अग्नि उसे तपाकर कर्मों के बंधनों को समाप्त कर देती है।

मोक्ष का मार्ग सरल अवश्य है, लेकिन उसे अपनाने वाले विरले ही होते हैं। जब यह सत्य प्रकट हुआ, तब समोशरण में उनके वचनों ने अनेक जीवों को जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होने का मार्ग दिखाया। उनकी वाणी से हिंसक प्राणियों में भी समता का भाव जागृत हुआ, और धर्म की शिक्षा ने समस्त संसार को प्रभावित किया।

अंततः जब उनके निर्वाण का समय आया, तब उन्होंने शिखर सम्मेद को अपनी साधना का अंतिम स्थल बनाया। अखंड मौन में, शुक्ल ध्यान में स्थिर होकर उन्होंने समस्त कर्मों का क्षय किया और आत्मा को परम शुद्धता में स्थापित किया। यही वह दिव्यता है, जहाँ आत्मा अपने सत्य स्वरूप में स्थित हो जाती है और संसार के समस्त बंधनों से परे पहुँचती है। यही जीवन की वास्तविक सार्थकता है, और यही मुक्ति का सर्वोच्च मार्ग है। 

भगवान श्री आदिनाथ, जिन्हें ऋषभदेव के नाम से भी जाना जाता है, जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं। उनका जन्म अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकु वंश के राजा नाभिराज और रानी मरुदेवी के यहाँ चैत्र कृष्ण नवमी को हुआ था। भगवान आदिनाथ ने मानव समाज को कृषि, शिल्प, लेखन, और गणित जैसी विधाओं का ज्ञान प्रदान किया, जिससे उन्हें 'आदिब्राह्मण' और 'आदिपुरुष' के रूप में भी सम्मानित किया जाता है। 

जगमग जगमग आरती कीजै, आदिश्वर भगवान की ।
प्रथम देव अवतारी प्यारे, तीर्थंकर गुणवान की । जगमग०

अवधपुरी में जन्मे स्वामी, राजकुंवर वो प्यारे थे,
मरु माता बलिहार हुई, जगती के तुम उजियारे थे,
द्वार द्वार बजी बधाई, जय हो दयानिधान की ।। जगमग०

बड़े हुए तुम राजा बन गये, अवधपुरी हरषाई थी, (२)
भरत बाहुबली सुत मतवारे मंगल बेला आई ; थी, (२)
करें सभी मिल जय जयकारे, भारत पूत महान की । जगमग०

नश्वरता को देख प्रभुजी, तुमने दीक्षा धारी थी, (२)
देख तपस्या नाथ तुम्हारी, यह धरती बलिहारी थी ।
प्रथम देव तीर्थंकर की जय, महाबली बलवान की ।। जगमग०

बारापाटी में तुम प्रकटे, चादंखेड़ी मन भाई है,
जगह जगह के आवे यात्री, चरणन शीश झुकाई है ।
फैल रही जगती में नमजी महिमा उसके ध्यान की ।। जगमग०

जय जय आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवी को नन्दाः ॥
पहेली आरती पूजा कीजे, नरभव पामीने लाहो लीजे,
जय जय आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवी को नन्दाः ॥१॥

दूसरी आरती दीनदयाळा, धूलेवा मंडपमां जग अजवाळ्‌या,
जय जय आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवी को नन्दाः ॥२॥

तीसरी आरती त्रिभुवन देवा, सुर नर इंद्र करे तोरी सेवा,
जय जय आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवी को नन्दाः ॥३॥

चौथी आरती चउ गति चूरे, मनवांछित फल शिवसुख पूरे,
जय जय आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवी को नन्दाः ॥४॥

पंचमी आरती पुण्य उपाया, मूळचंदे ऋषभ गुण गाया,
जय जय आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवी को नन्दाः ॥५॥ 

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