तुलसीदास कवितावली हिंदी में Tulsidas Kavitawali Hindi
राम प्रेम की प्रधानता
कनककुधरु केदारु, बीजु सुंदर सुरमनि बर।
सींचि कामधुक धेनु सुधामय पय बिसुध्दतर॥
तीरथपति अंकुरसरूप जच्छेस रच्छ तेहि।
मरकतमय साखा-सुपुत्र, मंजरय लच्छि जेहि॥
कैवल्य सकल फल, कलपतरु, सुभ सुभाव सब सुख बरिस।
कह तुलसिदास, रघुबंसमनि, तौ कि होइ तुअ कर सरिस॥
कनककुधरु केदारु, बीजु सुंदर सुरमनि बर।
सींचि कामधुक धेनु सुधामय पय बिसुध्दतर॥
तीरथपति अंकुरसरूप जच्छेस रच्छ तेहि।
मरकतमय साखा-सुपुत्र, मंजरय लच्छि जेहि॥
कैवल्य सकल फल, कलपतरु, सुभ सुभाव सब सुख बरिस।
कह तुलसिदास, रघुबंसमनि, तौ कि होइ तुअ कर सरिस॥
जाय सो सुभटु समर्थ पाइ रन रारि न मंडै।
जाय सो जती कहाय बिषय-बासना न छंडै॥
जाय धनिकु बिनु दान, जाय निर्धन बिनु धर्महि।
जाय सो पंडित पढ़ि पुरान जो रत न सुकर्महि॥
सुत जाय मातु-पितु-भक्ति बिनु, तिय सो जाय जेहि पति न हित।
सब जाय दासु तुलसी कहै, जौं न रामपद नेहु नित॥
१२२ को न क्रोध निरदह्यो, काम बस केहि नहि कीन्हो?
को न लोभ दृढ़ फंद बाँधि त्रासन करि दीन्हो?
कौन हृदयँ नहि लाग कठीन अति नारि-नयन-सर?
लोचनजुत नहि अंध भयो श्री पाइ कौन नर?
सुर-नाग-लोक महिमंडलहुँ को जु मोह कीन्हो जय न?
कह तुसिदासु सो ऊबरै, जेहि राख रामु राजिवनयन॥
भौंह-कमान सँधान सुठान जे नारि-बिलोकनि-बानतें बाँचे।
कोप-कृसानु गुमान-अवाँ घट-ज्यों जिनके मन आव न आँचे॥
लोभ सबै नटके बस ह्वै कपि-ज्यों जगमें बहु नाच न नाचे।
नीके हैं साधु सबै तुलसी, पै तेई रघुबीरके सेवक साँचे॥
१२३ बेष सुबनाइ सुचि बचन कहैं चुवाइ जाइ तौ न जरनि धरनि-धन-धामकी।
कोटिक उपाय करि लालि पालिअत देह, मुख कहिअत गति रामहीके नामकी॥
प्रगटैं उपासना, दुरावैं दुरबासनाहि, मानस निवासभूमि लोभ-मोह-कामकी।
राग-रोष-इरिषा-कपट-कुटिलाई भरे तुलसी-से भगत भगति चहैं रामकी॥
कालिहीं तरुन तन, कालिहीं धरनि-धर, कालिहीं जितौंगो रन, कहत कुचालि है।
कालिहीं साधौंगो काज, कालिहीं राजा-समाज, मसक ह्वै कहै, ' भार मेरे मेरु हालिहै'॥
तुलसी यही कुभाँति घने घर घालि आई, घने घर घालति है, घने घर घालिहै।
देखत- सुनत-समुझतहू न सूझै सोई, कबहूँ कह्यो न कालहू को कालु कालि है॥
राम भक्ति की याचना
भयो न तिकाल तिहूँ लोक तुलसी-सो मंद, निंदैं सब साधु, सुनि मानौं न सकोचु हौं।
जानत न जोगु हियँ हानि मानैं जानकीसु, काहेको परेखो, पापी प्रपंची पोचु हौं॥
पेट भरिबेके काज महाराजको कहायों महाराजहूँ कह्यो है प्रनत-बिमोचु हौं।
निज अघजाल, कलिकालकी करालता बिलोकि होत ब्याकुल, करत सोई सोचु हौं॥
धर्म कें सेतु जगमंगलके हेतु भूमि- भारु हरिबेको अवतारु लियो नरको।
नीति औ प्रतीति-प्रीतिपाल चालि प्रभु मानु लोक-बेद राखिबेको पनु रघुबरको॥
बानर-बिभीषनकी ओर के कनावड़े हैं, सो प्रसंगु सुनें अंगु जरे अनुचरको।
राखे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै, बलि, तुलसी तिहारो घर जायऊ है घरको॥
१२५ नाम महाराजके निबाह नीको कीजै उर सबही सोहात, मैं न लोगनि सोहात हौं।
कीजै राम! बार यहि मेरी ओर चष-कोर ताहि लगि रंक ज्यों सनेह को ललात हौं॥
तुलसी बिलोकि कलिकालकी करालता कृपालको सुभाउ समुझत सकुचात हौं।
लोक एक भाँतिको, त्रिलोकनाथ लोकबस आपनो न सोचु, स्वामी-सोचहीं सुखात हौं॥
प्रभु की महत्ता और दयालुता
१२६ तौलौं लोभ लोलुप ललात लालची लबार, बार-बार लालचु धरनि-धन-धामको।
तबलौं बियोग-रोग-सोग, भोग जातनाको जुग सम लागत जीवनु जाम-जामको।
तौलौं दुख-दारिद दहत अति नित तनु तुलसी है किंकरु बिमोह-कोह-कामको।
सब दुख आपने, निरापने सकल सुख, जौलौं जनु भयो न बजाइ राजा रामको॥
तौलौं मलीन , हीन दीन, सुख सपनें न, जहाँ-तहाँ दुखी जनु भाजनु कलेसको।
तौलौं उबेने पाय फिरत पेटौ खलाय बाय मुह सहत पराभौ देस-देसको।
तबलौं दयावनो दुसह दुख दारिदको, साथरीको सोइबो, ओढ़िबो झूने खेसको॥
जबलौं न भजै जीहँ जानकी-जीवन रामु, राजनको राजा सो तौ साहेबु महेसको॥
१२७ ईसनके ईस, महाराजनके महाराज, देवनके देव, देव! प्रानहुके प्रान हौ।
कालहूके काल, महाभूतनके महाभूत, कर्महूके करम, निदानके निदान हौ।
निगम को अगम, सुगम तुलसीहू-सेको एते मान सीलसिंधु, करुनानिधान हौ।
महिमा अपार, काहू बोलको न वारापार, बड़ी साहबीमें नाथ! बड़े सावधान हौ॥
आरतपाल कृपाल जो रामु जेहीं सुमिरे तेहिको तहँ ठाढें।
नाम-प्रताप-महामहिमा अँकरे किये खोटेउ छोटेउ बाढ़े॥
सेवक एकतें एक अनेक भए तुलसी तिहुँ ताप न डाढ़े।
प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन पाहनतें परमेस्वरु काढ़े॥
१२८ काढ़ि कृपान, कृपा न कहूँ, पितु काल कराल बिलोकि न भागे।
'राम कहाँ? सब ठाऊँहैं, ' खंभमें? 'हाँ'सुनि हाँक नृकेहरि जागे॥
बैरि बिदारि भए बिकराल, कहें प्रलादहिकें अनुरागे।
प्रीति-प्रतीति बड़ी तुलसी, तबतें सब पाहन पूजन लागे॥
अंतरजामिहुतें बड़े बाहेरजामि हैं राम, जे नाम लियेतें।
धावत धेनु पेन्हाइ लवाई ज्यों बालक-बोलनि कान कियेतें॥
आपनि बूझि कहै तुलसी, कहिबेकी न बावरि बात बियेतें।
पैज परें प्रहलादहुको प्रगटे प्रभु पाहनतें, न हियेतें॥
बालकु बोलि दियो बलि कालको कायर कोटि कुचालि चलाई।
पापी है बाप, बड़े परतापतें आपनि ओरतें खोरि न लाई॥
भूरि दईं बिषमूरि, भई प्रहलाद-सुधाईं सुधाकी मलाई।
रामकृपाँ तुलसी जनको कग होत भलेको भलाई भलाई॥
१२९ कंस करी बृजबासिन पै करतूति कुभाँति, चली न चलाई।
पंडूके पूत सपूत, कपूत सुजोधन भो कलि छोटो छलाई॥
कान्ह कृपाल बड़े नतपाल, गए खल खेचर खीस खलाई।
ठीक प्रतीति कहै तुलसी, जग होई भले को भलाई भलाई॥
अवनीस अनेक भए अवनीं, जिनके डरतें सुर सोच सुखाहीं।
मानव-दानव-देव सतावन रावन घाटि रच्यो जग माहीं॥
ते मिलिये धरि धूरि सुजोधनु, जे चलते बहु छत्रकी छाँहीं।
बेद पुरान कहैं , जगु जान, गुमान, गोबिंदहि भावत नाहीं॥
गोपियों का अनन्य प्रेम
जब नैनन प्रीति ठई ठग स्याम सों, स्यानी सखी हठि हौं बरजी।
नहि जानो बियोगु-सो रोगु है आगें, झुकी तब हौं तेहि सों तरजी॥
अब देह भई पट नेहके घाले सों, ब्यौंत करै बिरहा-दरजी।
ब्रजराजकुमार बिना सुनु भृंग! अनंगु भयो जियको गरजी॥
१३० जोग-कथा पठई ब्रजको, सब सो सठ चेरीकी चाल चलाकी।
ऊधौ जू! क्यौं न कहै कुबरी, जो बरी नटनागर हेरि हलाकी॥
जाहि लगै परि जाने सोई, तुलसी सो सोहागिनि नंदललाकी।
जानी है जानपनी हरिकी, अब बाँधियैगी कछु मोटि कलाकी॥
पठयो है छपदु छबीलें कान्ह कैहूँ कहूँ खौजिकै खवासु खासो कुबरी-सी बालको।
ग्यानको गढ़ैया, बिनु गिराको पढ़ैया, बार- खालको कढ़ैया, सो बढ़ैया उर-सालको॥
प्रीतिको बधीक, रस रीतिको अधिक, नीति- निपुन, बिबेकु है, निदेसु देस-कालको।
तुलसी कहें न बनै, सहें ही बनैगी सब जोगु भयो जोगको बियोगु नंदलालको॥
विनय
१३१ हनुमान व्हे कृपाल, लाडिले लखनलाल! भावते भरत! कीजै सेवक-सहाय जू।
बिनती करत दीन दूबरो दयावनो सो बिगरेतें आपु ही सुधारि लीजे भाय जू॥
मेरी साहिबिनी सदा सीसपर बिलसति देबि क्यों न दासको देखाइयत पाय जू।
खीझहूमें रीझिबेकी बानि सदा रीझत हैं, रीझे ह्वैहैं, रामकी दोहाई, रघुराय जू॥
बेष बिरागको, राग भरो मनु माय! कहौं सतिभाव हौं तोसों।
तेरे ही नाथको नामु लै बेचि हौं पातकी पावँर प्राननि पोसों॥
एते बड़े अपराधी अघी कहुँ, तैं कहु, अंब! कि मेरो तूँ मोसों।
स्वारथको परमारथको परिपुरन भो, फिरि घाटि न होसों॥
सीतावट-वर्णन
१३२ जहाँ बालमीकि भए ब्याधतें मुनिंदु साधु 'मरा मरा' जपें सिख सुनि रिषि सातकी।
सीयको निवास, लव-कुसको जनमथल तुलसी छुवत छाँह ताप गरै गातकी॥
बिटपमहीप सुरसरित समीप सोहै, सीताबटु पेखत पुनीत होत पातकी।
बारिपुर दिगपुर बीच बिलसति भूमि, अंकित जो जानकी-चरन-जलजातकी॥
मरकतबरन परन , फल मानिक-से लसै जटाजूट जनु रूखबेष हरु है।
सुषमाको ढैरु कैधौं सुकृत-सुमेरु कैधौं, संपदा सकल मुद-मंगलको घरु है॥
देत अभिमत जो समेत प्रीति सेइये प्रतीति मानि तुलसी, बिचारि काको थरु है।
सुरसरि निकट सुहावनी अवनि सोहै रामरवनिको बटु कलि कामतरु है॥
१३३ देवधुनि पास, मुनिबासु, श्रीनिवासु जहाँ, प्राकृतहूँ बट-बूट बसत पुरारि हैं।
जोग-जप-जागको, बिरागको पुनीत पीठु रागिनि पै सीठि डीठि बाहरी निहारि हैं॥
'आयसु', 'आदेस', 'बाबू' भलो-भलो भावसिध्द तुलसी बिचारि जोगी कहत पुकारि हैं।
राम-भगतनको तौ कामतरुतें अधिक, सियबटु सेयें करतल फल चारि हैं॥
चित्रकूट-वर्णन
१३४ जहाँ बनु पावनो सुहावने बिहंग-मृग, देखि अति लागत अनंदु खेत-खूँट-सो।
सीता-राम-लखन-निवासु, बासु मुनिनको, सिध्द-साधु-साधक सबै बिबेक-बूट-सो॥
झरना झरत झारि सीतल पुनीत बारि, मंदाकिनि मंजुल महेसजटाजूट-सो।
तुलसी जौं रामसो सनेहु साँचो चाहिये तौ, सेइये सनेहसों बिचित्र चित्रकूट सो॥
मोह-बन-कलिमल-पल-पीन जानि जिय साधु-गाइ-बिप्रनके भयको नेवारिहै।
दीन्हीहै रजाइ राम, पाइ सो सहाइ लाल लखन समत्थ बीर हेरि-हेरि मारिहै॥
मादाकिनी मंजुल कमान असि, बान जहाँ बारि-धार धीर धरि सुकर सुधारिहै।
चित्रकूट अचल अहेरि बैठ्यो घात मानो पातकके ब्रात घोर सावज सँघारिहै॥
१३५ लागि दवारि पहार ठही, लहकी कपि लंक जथा खरखौकी।
चारु चुआ चहुँ ओर चलैं, लपटैं-झपटैं सो तमीचर तौंकी॥
क्यौं कहि जात महासुषमा, उपमा तकि ताकत है कबि कौं की।
मानो लसी तुलसी हनुमान हिएँ जगजीति जरायकी चौकी॥
तीर्थराज-सुषमा
देव कहैं अपनी-अपना, अवलोकन तीरथराजु चलो रे।
देखि मिटैं अपराध अगाध, निमज्जत साधु-समाजु भलो रे॥
सोहै सितासितको मिलिबो, तुलसी हुलसै हिय हेरि हलोरे।
मानो हरे तृन चारु चरैं बगरे सुरधेनुके धौल कलोरे॥
श्रीगङ्गा-महात्म्य
देवनदी कहँ जो जन जान किए मनसा, कुल कोटि उधारे।
देखि चले झगरैं सुरनारि, सुरेस बनाइ बिमान सँवारे॥
पूजाको साजु बिरंचि रचैं तुलसी, जे महातम जाननिहारे।
ओककी नीव परी हरिलोक बिलोकत गंग! तरंग तिहारे॥
१३६ ब्रह्मु जो ब्यापकु बेद कहैं, गम नाहिं गिरा गुन-ग्यान-गुनीको।
जो करता, भरता, हरता, सुर-साहेबु, साहेबु दीन-दुनीको॥
सोइ भयो द्रवरूप सही, जो है नाथु बिरंचि महेस मुनीको।
मानि प्रतीति सदा तुलसी जलु काहे न सेवत देवधुनीको॥
बारि तिहारो निहारि मुरारि भएँ परसें पद पापु लहौगो॥
ईस ह्वै सीस धरौं पै डरौं , प्रभुकी समताँ बड़े दोष दहौंगो॥
बरु बारहिं बार सरीर धरौं, रघुबीरको ह्वै तव तीर रहौंगो।
भागीरथी! बिनवौं कर जोरि, बहोरि न खोरि लगै सो कहौंगो॥
अन्नपूर्णा-महात्म्य
१३७ लालची ललात, बिललात द्वार-द्वार दीन, बदन मलीन, मन मिटै ना बिसूरना।
ताकत सराध, कै बिबाह, कै उछाह कछू, डोलै लोल बूझत सबद ढोल-तूरना॥
प्यासेहूँ न पावै बारि, भूखें न चनक चारि, चाहत अहारन पहार, दारि घूर ना।
सोकको अगार, दुखभार भरो तौलौं जन जौलौं देबी द्रवै न भवानी अन्नपरना॥
शंकर-स्तवन
भस्म अंग, मर्दन अनंग, संतत असंग हर।
सीस गंग, गिरिजा अर्धंग, भूषन भुजंगबर॥
मुंडमाल, बिधु बाल भाल, डमरु कपालु कर।
बिबुधबृंद-नवकुमुद-चंद, सुखकंद सूलधर॥
त्रिपुरारि त्रिलोचन, दिग्बसन, बिषभोजन, भवभयहरन।
कह तुलसिदासु सेवत सुलभ सिव सिव सिव संकर सरन॥
१३८ गरल-असन दिगबसन ब्यसन भंजन जनरंजन।
कुंद-इंदु-कर्पर-गौर सच्चिदानंदघन॥
बिकटबेष, उर सेष, सीस सुरसरित सहज सुचि।
सिव अकाम अभिरामधाम नित रामनाम रुचि॥
कंदर्पदर्प दुर्गम दमन उमारमन गुनभवन हर।
त्रिपुरारि! त्रिलोचन! त्रिगुनपर! त्रिपुरमथन! जय त्रिदसबर॥
अरध अंग अंगना, नामु जोगीसु, जोगपति।
बिषम असन दिगबसन, नाम बिस्बेसु बीस्वगति॥
कर कपाल, सिर माल ब्याल, बिष-भूति-बिभूषन।
नाम सुध्द, अबिरुध्द, अमर अनवद्य, अदूषन॥
बिकराल-भूत-बेताल-प्रिय भीम नाम, भवभयदमन।
सब `बिधि समर्थ, महिमा अकथ, तुलसिदास-संसय-समन॥
१३९ भूतनाथ भयहरन भीम भयभवन भूमिधर।
भानुमंत भगवंत भूतिभूषन भुजंगबर॥
भव्य भावबल्लभ भवेस भव-भार-बिभंजन।
भूरिभोग भैरव कुजोगगंजन जनरंजन॥
भारती-बदन बिष-अदन सिव ससि-पतंग-पावक-नयन।
कह तुलसिदास किन भजसि मन भद्रसदन मर्दनमयन॥
नागो फिरै कहै मागनो देखि 'न खाँगो कछू', जनि मागिये थोरो।
राँकनि नाकप रीझि करै तुलसी जग जो जुरैं जाचक जोरो॥
नाक संवारत आयो हौं नाकहि, नाहिं पिनाकिहि नेकु निहोरो।
ब्रह्मा कहै, गिरिजा! सिखवो पति रावरो, दानि है बावरो भोरो॥
१४० बिषु पावकु ब्याल कराल गरें, सरनागत तौ तिहुँ ताप न डाढ़े॥
भूत बेताल सखा, भव नामु दलै पलमें भवके भय गाढ़े॥
तुलसीसु दरिद्रु-सिरोमनि, सो सुमिरें दुख-दारिद होहिं न ठाढ़े।
भौनमें भाँग, धतुरोई आँगन, नागेके आगें हैं मागने बाढ़े॥
सीस बसै बरदा, बरदानि, चढ्योबरदा, धरन्यो बरदा है।
धाम धतूरो, बिभूतिको कूरो, निवासु जहाँ सब लै मरे दाहैं॥
ब्याली कपाली है ख्याली, चहूँ दिसि भाँगकी टाटिन्हके परदा हैं।
राँकसिरोमनि काकिनिभाग बिलोकत लोकप को करदा है॥
दानि जो चारि पदारथको, त्रिपुरारि, तिहूँ पुरमें सिर टीको।
भोरो भलो, भले भायको भूखो, भलोई कियो सुमिरें तुलसीको॥
ता बिनु आसको दास भयो, कबहूँ न मिट्यो लघु लालचु जीको।
साधो कहा करि साधन तैं, जो पै राधो नहीं पति पारबतीको॥
१४१ जात जरे सब लोक बिलोकि तिलोचन सो बिषु लोकि लियो है।
पान कियो बिषु, भूषन भो, करुनाबरुनालय साइँ-हियो है।
मेरोइ फोरिबे जोगु कपारु, किधौं कछु काहूँ लखाइ दियो है
काहे न कान करौं बिनती तुलसी कलिकाल बेहाल कियो है॥
खायो कालकूटु भयो अजर अमर तनु, भवनु मसानु, गथ गाठरी गरदकी।
डमरु कपालु कर, भूषन कराल ब्याल, बावरे बड़ेकी रीझ बाहन बरदकी॥
तुलसी बिसाल गोरे गात बिलसति भूति, मानो हिमगिरि चारु चाँदनी सरदकी।
अर्थ-धर्म-काम-मोच्छ बसत बिलोकनिमें, कासी करामाति जोगी जागति मरदकी॥
१४२ पिंगल जटाकलापु माथेपै पुनीत आपु, पावक नैना प्रताप भ्रूपर बरत है।
लोयन बिसाल लाल, सोहै बालचंद्र भाल, खंठ कालकूटु, ब्याल-भूषन धरत है॥
सुंदर दिगंबर, बिभूति गात, भाँग खात, रूरे सृंगी पुरें काल-कंटक हरत हैं।
देत न अघात रीझि, जात पात आकहीकें भोरानाथ जोगी जब औढर ढरत हैं॥
देत संपदासमेत श्रीनिकेत जाचकनि, भवन बिभूति-भाँग, बृषभ बहनु है।
नाम बामदेव दाहिनो सदा असंग रंग अर्ध्द अंग अंगना, अनंगको महनु है॥
तुलसी महेसको प्रभाव भावहीं सुगम निगम-अगमहूको जानिबो गहनु है।
भेष तौ भिखारको भयंकररूप संकर दयाल दीनबंधु दानि दारिददहनु है॥
१४३ चाहै न अनंग- अरि एकौ अंग मागनेको देबोई पै जानिये, सुभावसिध्द बानि सो।
बारि बुंद चारि त्रिपुरारि पर डारिये तौ देत फल चारि, लेत सेवा साँची मानि सो॥
तुलसी भरोसो न भवेस भोरानाथको तौ कोटिक कलेस करौ, मरौ छार छानि सो।
दारिद दमन दूख-दोष दाह दावानल दुनी न दयाल दूजो दानि सूलपानि-सो॥
काहेको अनेक देव सेवत जागै मसान खोवत अपान, सठ होत हठि प्रेत रे।
काहेको उपाय कोटि करत, मरत धाय, जाचत नरेस देस- देसके, अचेत रे॥
तुलसी प्रतीति बिनु त्यागै तैं प्रयाग तनु, धनहीके हेत दान देत कुरुखेत रे।
पात द्वै धतूरेके दै, भोरें कै, भवेससों, सुरेसहूकी संपदा सुभायसों न लेत रे॥
१४४ स्यंदन, गयंद, बाजिराजि, भले भले भट, धन-धाम-निकर करनिहूँ न पूजै क्वै।
बनिता बिनीत, पूत फावन सोहावन, औ बिनय बिबेक, बिद्या सुभग सरीर ज्वै॥
इहाँ ऐसो सुख, परलोक सिवलोक ओक, जाको फल तुलसी सो सुनौ सावधान ह्वै।
जानें, बिनु जानें, कै रिसानें, केलि कबहुँक सिवहि चढ़ाए ह्वैहैं बेलके पतौवा द्वै॥
रति-सी रवनि, सिंधुमेखला अवनि पति औनिप अनेक ठाढ़े हाथ जोरि हारि कै।
संपदा-समाज देखि लाज सुरराजहूकें सुख सब बिधि बिधि दीन्हैं, सवाँरि कै॥
इहाँ ऐसो सुख, सुरलोक सुरनाथपद, जाको फल तुलसी सो कहैगो बिचारि कै।
आकके पतौआ चारि फूल कै धतूरेके द्वै दीन्हें ह्वैहैं बारक पुरारिपर डारिकै॥
१४५ देवसरि सेवौं बामदेव गाउँ रावरेहीं नाम रामहीके मागि उदर भरत हौं।
दीबे जोग तुलसी न लेत काहूको कछुक, लिखी न भलाई भाल, पोच न करत हौं॥
एते पर हूँ जो कोऊ रावरो ह्वै जोर करै, ताको जोर, देव! दीन द्वारें गुदरत हौं।
पाइ कै उराहनो उराहनो न दीजो मोहि , कालकला कासीनाथ कहें निबरत हौं॥
१४६ चेरो रामराइको, सुजस सुनि तेरो, हर! पाइ तर आइ रह्यौं सुरसरितीर हौं।
बामदेव! रामको सुभाव-सील जानियत नातो नेह जानियत रघुबीर भीर हौं॥
अधिभूत बेदन बिषम होत, भूतनाथ तुलसी बिकल, पाहि!पचत कुपीर हौं।
मारिये तौ अनायास कासीबास खास फल, ज्याइये तौ कृपा करि निरुजसरीर हौं॥
जीबेकी न लालसा, दयाल महादेव! मोहि, मालुम है तोहि, मरिबेईको रहतु हौं।
कामरिपु! रामके गुलामनिको कामतरु! अवलंब जगदंब सहित चहतु हौं॥
रोग भयो भूत-सो, कुसूत भयो तुलसीको, भूतनाथ, पाहि! पदपंकज गहतु हौं।
ज्याइये तौ जानकीरमन-जन जानि जियँ मारिये तौ मागी मीचू सूधियै कहतु हौं॥
१४७ भूतभव! भवत पिसाच -भूत- प्रेत -प्रिय, आपनो समाज सिव आपु नीकें जानिये।
नाना बेष, बाहन, बिभूषन, बसन, बास, खान -पान, बलि-पूजा बिधिको बखानिये॥
रामके गुलामनिकी रीति, प्रीति सूधी सब, सबसों सनेह, सबहीको सनमानिये।
तुलसीकी सुधरै सुधारे भूतनाथहीके मेरे माय बाप गुरु संकर-भवानिये॥
काशी में महामारी
गौरीनाथ, भोरानाथ, भवत भवानीनाथ। बिस्वनाथपुर फिरी आन कलिकालकी।
संकर-से नर, गिरिजा-सी नारीं कासीबासी, बेद कही, सही ससिसेखर कृपालकी॥
छमुख-गनेस तें महेसके पियारे लोग बिकल बिलोकियत, नगरी बिहालकी।
पुरी-सुरबेलि केलि काटत किरात कलि निठुर निहारिये उघारि डीठि भालकी॥
१४८ ठाकुर महेस ठकुराइनि उमा-सी जहाँ, लोक-बेदहूँ बिदित महिमा ठहरकी।
भट रुद्रगन, पूत गनपति-सेनापति, कलिकालकी कुचाल काहू तौ न हरकी॥
बीसीं बिस्वनाथकी बिषाद बड़ो बारानसीं, बूझिए न ऐसी गति संकर-सहरकी।
कैसे कहै तुलसी बृषासुरके बरदानि बानि जानि सुधा तजि पीवनि जहरकी॥
लोक-बेदहूँ बिदित बारानसीकी बड़ाई बासी नर नारि ईस-अंबिका-सरूप हैं।
कालनाथ कोतवाल दंडकारि दंडपानि, सभासद गनप-से अमित अनूप हैं॥
तहाऊँ कुचालि कलिकालकी कुरीति, कैधौं जानत न मूढ़ इहाँ भूतनाथ भूप हैं।
फलें फूलैं फैलैं खलल, सीदै साधु पल-पल खाती दीपमालिका, ठठाइयत सूप हैं॥
१४९ पंचकोस पुन्यकोस स्वारथ-परमारथको जानि आपु आपने सुपास बास दियो है।
नीच नर-नारि न सँभारि सके आदर, लहत फल कादर बिचारि जो न कियो है॥
बारी बारानसी बिनु कहे चक्रपानि चक्र, मानि हितहानि सो मुरारि मन भियो है।
रोसमें भरोसो एक आसुतोस कहि जात बिकल बिलोकि लोक कालकूट पियो है॥
रचत बिरंचि, हरि पालत, हरत हर तेरे हीं प्रसाद अग- जग-पालिके।
तोहिमें बिकास बिस्व , तोहिमें बिलास सब, तोहिमें समात, मातु भूमिधरबालिके॥
दीजे अवलंब जगदंब! न बिलंब कीजै, करुनातरंगगिनी कृपा-तरंग-मालिके।
रोष महामारी, परितोष महतारी दुनी देखिये दुखारी, मुनि-मानस-मरालिके॥
१५० निपट बसेरे अघ औगुन घनेरे, नर- नारिऊ अनेरे जगदंब! चेरी-चेरे हैं।
दारिद-दुखारी देबि भूसुर भिखारी-भीरु लोब मोह काम कोह कलिमल घेरे हैं॥
लोकरीति राखी राम, साखि बामदेव जानि जनकी बिनति मानि मातु! कहि मेरे हैं।
महामारी महेसानि! महिमाकी खानि, मोद- मंगलकी रासि, दास कासीबासी तेरे हैं॥
लोगनिकें पाप कैधौं, सिध्द-सुर-साप कैधौं, कालकें प्रताप कासी तिहूँ ताप तई है।
ऊँचे, नीचे, बीचके, धनिक, रंक, राजा, राय हठनि बजाइ करि डीठि पीठि दई है॥
देवता निहोरे, महामारिन्ह सों कर जोरे, भोरानाथ जानि भोरे आपनी-सी ठई है।
करुनानिधान हनुमान बीर बलवान! जसरासि जहाँ-तहाँ तैंहीं लूटि लई है॥
जाय सो जती कहाय बिषय-बासना न छंडै॥
जाय धनिकु बिनु दान, जाय निर्धन बिनु धर्महि।
जाय सो पंडित पढ़ि पुरान जो रत न सुकर्महि॥
सुत जाय मातु-पितु-भक्ति बिनु, तिय सो जाय जेहि पति न हित।
सब जाय दासु तुलसी कहै, जौं न रामपद नेहु नित॥
१२२ को न क्रोध निरदह्यो, काम बस केहि नहि कीन्हो?
को न लोभ दृढ़ फंद बाँधि त्रासन करि दीन्हो?
कौन हृदयँ नहि लाग कठीन अति नारि-नयन-सर?
लोचनजुत नहि अंध भयो श्री पाइ कौन नर?
सुर-नाग-लोक महिमंडलहुँ को जु मोह कीन्हो जय न?
कह तुसिदासु सो ऊबरै, जेहि राख रामु राजिवनयन॥
भौंह-कमान सँधान सुठान जे नारि-बिलोकनि-बानतें बाँचे।
कोप-कृसानु गुमान-अवाँ घट-ज्यों जिनके मन आव न आँचे॥
लोभ सबै नटके बस ह्वै कपि-ज्यों जगमें बहु नाच न नाचे।
नीके हैं साधु सबै तुलसी, पै तेई रघुबीरके सेवक साँचे॥
१२३ बेष सुबनाइ सुचि बचन कहैं चुवाइ जाइ तौ न जरनि धरनि-धन-धामकी।
कोटिक उपाय करि लालि पालिअत देह, मुख कहिअत गति रामहीके नामकी॥
प्रगटैं उपासना, दुरावैं दुरबासनाहि, मानस निवासभूमि लोभ-मोह-कामकी।
राग-रोष-इरिषा-कपट-कुटिलाई भरे तुलसी-से भगत भगति चहैं रामकी॥
कालिहीं तरुन तन, कालिहीं धरनि-धर, कालिहीं जितौंगो रन, कहत कुचालि है।
कालिहीं साधौंगो काज, कालिहीं राजा-समाज, मसक ह्वै कहै, ' भार मेरे मेरु हालिहै'॥
तुलसी यही कुभाँति घने घर घालि आई, घने घर घालति है, घने घर घालिहै।
देखत- सुनत-समुझतहू न सूझै सोई, कबहूँ कह्यो न कालहू को कालु कालि है॥
राम भक्ति की याचना
भयो न तिकाल तिहूँ लोक तुलसी-सो मंद, निंदैं सब साधु, सुनि मानौं न सकोचु हौं।
जानत न जोगु हियँ हानि मानैं जानकीसु, काहेको परेखो, पापी प्रपंची पोचु हौं॥
पेट भरिबेके काज महाराजको कहायों महाराजहूँ कह्यो है प्रनत-बिमोचु हौं।
निज अघजाल, कलिकालकी करालता बिलोकि होत ब्याकुल, करत सोई सोचु हौं॥
धर्म कें सेतु जगमंगलके हेतु भूमि- भारु हरिबेको अवतारु लियो नरको।
नीति औ प्रतीति-प्रीतिपाल चालि प्रभु मानु लोक-बेद राखिबेको पनु रघुबरको॥
बानर-बिभीषनकी ओर के कनावड़े हैं, सो प्रसंगु सुनें अंगु जरे अनुचरको।
राखे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै, बलि, तुलसी तिहारो घर जायऊ है घरको॥
१२५ नाम महाराजके निबाह नीको कीजै उर सबही सोहात, मैं न लोगनि सोहात हौं।
कीजै राम! बार यहि मेरी ओर चष-कोर ताहि लगि रंक ज्यों सनेह को ललात हौं॥
तुलसी बिलोकि कलिकालकी करालता कृपालको सुभाउ समुझत सकुचात हौं।
लोक एक भाँतिको, त्रिलोकनाथ लोकबस आपनो न सोचु, स्वामी-सोचहीं सुखात हौं॥
प्रभु की महत्ता और दयालुता
१२६ तौलौं लोभ लोलुप ललात लालची लबार, बार-बार लालचु धरनि-धन-धामको।
तबलौं बियोग-रोग-सोग, भोग जातनाको जुग सम लागत जीवनु जाम-जामको।
तौलौं दुख-दारिद दहत अति नित तनु तुलसी है किंकरु बिमोह-कोह-कामको।
सब दुख आपने, निरापने सकल सुख, जौलौं जनु भयो न बजाइ राजा रामको॥
तौलौं मलीन , हीन दीन, सुख सपनें न, जहाँ-तहाँ दुखी जनु भाजनु कलेसको।
तौलौं उबेने पाय फिरत पेटौ खलाय बाय मुह सहत पराभौ देस-देसको।
तबलौं दयावनो दुसह दुख दारिदको, साथरीको सोइबो, ओढ़िबो झूने खेसको॥
जबलौं न भजै जीहँ जानकी-जीवन रामु, राजनको राजा सो तौ साहेबु महेसको॥
१२७ ईसनके ईस, महाराजनके महाराज, देवनके देव, देव! प्रानहुके प्रान हौ।
कालहूके काल, महाभूतनके महाभूत, कर्महूके करम, निदानके निदान हौ।
निगम को अगम, सुगम तुलसीहू-सेको एते मान सीलसिंधु, करुनानिधान हौ।
महिमा अपार, काहू बोलको न वारापार, बड़ी साहबीमें नाथ! बड़े सावधान हौ॥
आरतपाल कृपाल जो रामु जेहीं सुमिरे तेहिको तहँ ठाढें।
नाम-प्रताप-महामहिमा अँकरे किये खोटेउ छोटेउ बाढ़े॥
सेवक एकतें एक अनेक भए तुलसी तिहुँ ताप न डाढ़े।
प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन पाहनतें परमेस्वरु काढ़े॥
१२८ काढ़ि कृपान, कृपा न कहूँ, पितु काल कराल बिलोकि न भागे।
'राम कहाँ? सब ठाऊँहैं, ' खंभमें? 'हाँ'सुनि हाँक नृकेहरि जागे॥
बैरि बिदारि भए बिकराल, कहें प्रलादहिकें अनुरागे।
प्रीति-प्रतीति बड़ी तुलसी, तबतें सब पाहन पूजन लागे॥
अंतरजामिहुतें बड़े बाहेरजामि हैं राम, जे नाम लियेतें।
धावत धेनु पेन्हाइ लवाई ज्यों बालक-बोलनि कान कियेतें॥
आपनि बूझि कहै तुलसी, कहिबेकी न बावरि बात बियेतें।
पैज परें प्रहलादहुको प्रगटे प्रभु पाहनतें, न हियेतें॥
बालकु बोलि दियो बलि कालको कायर कोटि कुचालि चलाई।
पापी है बाप, बड़े परतापतें आपनि ओरतें खोरि न लाई॥
भूरि दईं बिषमूरि, भई प्रहलाद-सुधाईं सुधाकी मलाई।
रामकृपाँ तुलसी जनको कग होत भलेको भलाई भलाई॥
१२९ कंस करी बृजबासिन पै करतूति कुभाँति, चली न चलाई।
पंडूके पूत सपूत, कपूत सुजोधन भो कलि छोटो छलाई॥
कान्ह कृपाल बड़े नतपाल, गए खल खेचर खीस खलाई।
ठीक प्रतीति कहै तुलसी, जग होई भले को भलाई भलाई॥
अवनीस अनेक भए अवनीं, जिनके डरतें सुर सोच सुखाहीं।
मानव-दानव-देव सतावन रावन घाटि रच्यो जग माहीं॥
ते मिलिये धरि धूरि सुजोधनु, जे चलते बहु छत्रकी छाँहीं।
बेद पुरान कहैं , जगु जान, गुमान, गोबिंदहि भावत नाहीं॥
गोपियों का अनन्य प्रेम
जब नैनन प्रीति ठई ठग स्याम सों, स्यानी सखी हठि हौं बरजी।
नहि जानो बियोगु-सो रोगु है आगें, झुकी तब हौं तेहि सों तरजी॥
अब देह भई पट नेहके घाले सों, ब्यौंत करै बिरहा-दरजी।
ब्रजराजकुमार बिना सुनु भृंग! अनंगु भयो जियको गरजी॥
१३० जोग-कथा पठई ब्रजको, सब सो सठ चेरीकी चाल चलाकी।
ऊधौ जू! क्यौं न कहै कुबरी, जो बरी नटनागर हेरि हलाकी॥
जाहि लगै परि जाने सोई, तुलसी सो सोहागिनि नंदललाकी।
जानी है जानपनी हरिकी, अब बाँधियैगी कछु मोटि कलाकी॥
पठयो है छपदु छबीलें कान्ह कैहूँ कहूँ खौजिकै खवासु खासो कुबरी-सी बालको।
ग्यानको गढ़ैया, बिनु गिराको पढ़ैया, बार- खालको कढ़ैया, सो बढ़ैया उर-सालको॥
प्रीतिको बधीक, रस रीतिको अधिक, नीति- निपुन, बिबेकु है, निदेसु देस-कालको।
तुलसी कहें न बनै, सहें ही बनैगी सब जोगु भयो जोगको बियोगु नंदलालको॥
विनय
१३१ हनुमान व्हे कृपाल, लाडिले लखनलाल! भावते भरत! कीजै सेवक-सहाय जू।
बिनती करत दीन दूबरो दयावनो सो बिगरेतें आपु ही सुधारि लीजे भाय जू॥
मेरी साहिबिनी सदा सीसपर बिलसति देबि क्यों न दासको देखाइयत पाय जू।
खीझहूमें रीझिबेकी बानि सदा रीझत हैं, रीझे ह्वैहैं, रामकी दोहाई, रघुराय जू॥
बेष बिरागको, राग भरो मनु माय! कहौं सतिभाव हौं तोसों।
तेरे ही नाथको नामु लै बेचि हौं पातकी पावँर प्राननि पोसों॥
एते बड़े अपराधी अघी कहुँ, तैं कहु, अंब! कि मेरो तूँ मोसों।
स्वारथको परमारथको परिपुरन भो, फिरि घाटि न होसों॥
सीतावट-वर्णन
१३२ जहाँ बालमीकि भए ब्याधतें मुनिंदु साधु 'मरा मरा' जपें सिख सुनि रिषि सातकी।
सीयको निवास, लव-कुसको जनमथल तुलसी छुवत छाँह ताप गरै गातकी॥
बिटपमहीप सुरसरित समीप सोहै, सीताबटु पेखत पुनीत होत पातकी।
बारिपुर दिगपुर बीच बिलसति भूमि, अंकित जो जानकी-चरन-जलजातकी॥
मरकतबरन परन , फल मानिक-से लसै जटाजूट जनु रूखबेष हरु है।
सुषमाको ढैरु कैधौं सुकृत-सुमेरु कैधौं, संपदा सकल मुद-मंगलको घरु है॥
देत अभिमत जो समेत प्रीति सेइये प्रतीति मानि तुलसी, बिचारि काको थरु है।
सुरसरि निकट सुहावनी अवनि सोहै रामरवनिको बटु कलि कामतरु है॥
१३३ देवधुनि पास, मुनिबासु, श्रीनिवासु जहाँ, प्राकृतहूँ बट-बूट बसत पुरारि हैं।
जोग-जप-जागको, बिरागको पुनीत पीठु रागिनि पै सीठि डीठि बाहरी निहारि हैं॥
'आयसु', 'आदेस', 'बाबू' भलो-भलो भावसिध्द तुलसी बिचारि जोगी कहत पुकारि हैं।
राम-भगतनको तौ कामतरुतें अधिक, सियबटु सेयें करतल फल चारि हैं॥
चित्रकूट-वर्णन
१३४ जहाँ बनु पावनो सुहावने बिहंग-मृग, देखि अति लागत अनंदु खेत-खूँट-सो।
सीता-राम-लखन-निवासु, बासु मुनिनको, सिध्द-साधु-साधक सबै बिबेक-बूट-सो॥
झरना झरत झारि सीतल पुनीत बारि, मंदाकिनि मंजुल महेसजटाजूट-सो।
तुलसी जौं रामसो सनेहु साँचो चाहिये तौ, सेइये सनेहसों बिचित्र चित्रकूट सो॥
मोह-बन-कलिमल-पल-पीन जानि जिय साधु-गाइ-बिप्रनके भयको नेवारिहै।
दीन्हीहै रजाइ राम, पाइ सो सहाइ लाल लखन समत्थ बीर हेरि-हेरि मारिहै॥
मादाकिनी मंजुल कमान असि, बान जहाँ बारि-धार धीर धरि सुकर सुधारिहै।
चित्रकूट अचल अहेरि बैठ्यो घात मानो पातकके ब्रात घोर सावज सँघारिहै॥
१३५ लागि दवारि पहार ठही, लहकी कपि लंक जथा खरखौकी।
चारु चुआ चहुँ ओर चलैं, लपटैं-झपटैं सो तमीचर तौंकी॥
क्यौं कहि जात महासुषमा, उपमा तकि ताकत है कबि कौं की।
मानो लसी तुलसी हनुमान हिएँ जगजीति जरायकी चौकी॥
तीर्थराज-सुषमा
देव कहैं अपनी-अपना, अवलोकन तीरथराजु चलो रे।
देखि मिटैं अपराध अगाध, निमज्जत साधु-समाजु भलो रे॥
सोहै सितासितको मिलिबो, तुलसी हुलसै हिय हेरि हलोरे।
मानो हरे तृन चारु चरैं बगरे सुरधेनुके धौल कलोरे॥
श्रीगङ्गा-महात्म्य
देवनदी कहँ जो जन जान किए मनसा, कुल कोटि उधारे।
देखि चले झगरैं सुरनारि, सुरेस बनाइ बिमान सँवारे॥
पूजाको साजु बिरंचि रचैं तुलसी, जे महातम जाननिहारे।
ओककी नीव परी हरिलोक बिलोकत गंग! तरंग तिहारे॥
१३६ ब्रह्मु जो ब्यापकु बेद कहैं, गम नाहिं गिरा गुन-ग्यान-गुनीको।
जो करता, भरता, हरता, सुर-साहेबु, साहेबु दीन-दुनीको॥
सोइ भयो द्रवरूप सही, जो है नाथु बिरंचि महेस मुनीको।
मानि प्रतीति सदा तुलसी जलु काहे न सेवत देवधुनीको॥
बारि तिहारो निहारि मुरारि भएँ परसें पद पापु लहौगो॥
ईस ह्वै सीस धरौं पै डरौं , प्रभुकी समताँ बड़े दोष दहौंगो॥
बरु बारहिं बार सरीर धरौं, रघुबीरको ह्वै तव तीर रहौंगो।
भागीरथी! बिनवौं कर जोरि, बहोरि न खोरि लगै सो कहौंगो॥
अन्नपूर्णा-महात्म्य
१३७ लालची ललात, बिललात द्वार-द्वार दीन, बदन मलीन, मन मिटै ना बिसूरना।
ताकत सराध, कै बिबाह, कै उछाह कछू, डोलै लोल बूझत सबद ढोल-तूरना॥
प्यासेहूँ न पावै बारि, भूखें न चनक चारि, चाहत अहारन पहार, दारि घूर ना।
सोकको अगार, दुखभार भरो तौलौं जन जौलौं देबी द्रवै न भवानी अन्नपरना॥
शंकर-स्तवन
भस्म अंग, मर्दन अनंग, संतत असंग हर।
सीस गंग, गिरिजा अर्धंग, भूषन भुजंगबर॥
मुंडमाल, बिधु बाल भाल, डमरु कपालु कर।
बिबुधबृंद-नवकुमुद-चंद, सुखकंद सूलधर॥
त्रिपुरारि त्रिलोचन, दिग्बसन, बिषभोजन, भवभयहरन।
कह तुलसिदासु सेवत सुलभ सिव सिव सिव संकर सरन॥
१३८ गरल-असन दिगबसन ब्यसन भंजन जनरंजन।
कुंद-इंदु-कर्पर-गौर सच्चिदानंदघन॥
बिकटबेष, उर सेष, सीस सुरसरित सहज सुचि।
सिव अकाम अभिरामधाम नित रामनाम रुचि॥
कंदर्पदर्प दुर्गम दमन उमारमन गुनभवन हर।
त्रिपुरारि! त्रिलोचन! त्रिगुनपर! त्रिपुरमथन! जय त्रिदसबर॥
अरध अंग अंगना, नामु जोगीसु, जोगपति।
बिषम असन दिगबसन, नाम बिस्बेसु बीस्वगति॥
कर कपाल, सिर माल ब्याल, बिष-भूति-बिभूषन।
नाम सुध्द, अबिरुध्द, अमर अनवद्य, अदूषन॥
बिकराल-भूत-बेताल-प्रिय भीम नाम, भवभयदमन।
सब `बिधि समर्थ, महिमा अकथ, तुलसिदास-संसय-समन॥
१३९ भूतनाथ भयहरन भीम भयभवन भूमिधर।
भानुमंत भगवंत भूतिभूषन भुजंगबर॥
भव्य भावबल्लभ भवेस भव-भार-बिभंजन।
भूरिभोग भैरव कुजोगगंजन जनरंजन॥
भारती-बदन बिष-अदन सिव ससि-पतंग-पावक-नयन।
कह तुलसिदास किन भजसि मन भद्रसदन मर्दनमयन॥
नागो फिरै कहै मागनो देखि 'न खाँगो कछू', जनि मागिये थोरो।
राँकनि नाकप रीझि करै तुलसी जग जो जुरैं जाचक जोरो॥
नाक संवारत आयो हौं नाकहि, नाहिं पिनाकिहि नेकु निहोरो।
ब्रह्मा कहै, गिरिजा! सिखवो पति रावरो, दानि है बावरो भोरो॥
१४० बिषु पावकु ब्याल कराल गरें, सरनागत तौ तिहुँ ताप न डाढ़े॥
भूत बेताल सखा, भव नामु दलै पलमें भवके भय गाढ़े॥
तुलसीसु दरिद्रु-सिरोमनि, सो सुमिरें दुख-दारिद होहिं न ठाढ़े।
भौनमें भाँग, धतुरोई आँगन, नागेके आगें हैं मागने बाढ़े॥
सीस बसै बरदा, बरदानि, चढ्योबरदा, धरन्यो बरदा है।
धाम धतूरो, बिभूतिको कूरो, निवासु जहाँ सब लै मरे दाहैं॥
ब्याली कपाली है ख्याली, चहूँ दिसि भाँगकी टाटिन्हके परदा हैं।
राँकसिरोमनि काकिनिभाग बिलोकत लोकप को करदा है॥
दानि जो चारि पदारथको, त्रिपुरारि, तिहूँ पुरमें सिर टीको।
भोरो भलो, भले भायको भूखो, भलोई कियो सुमिरें तुलसीको॥
ता बिनु आसको दास भयो, कबहूँ न मिट्यो लघु लालचु जीको।
साधो कहा करि साधन तैं, जो पै राधो नहीं पति पारबतीको॥
१४१ जात जरे सब लोक बिलोकि तिलोचन सो बिषु लोकि लियो है।
पान कियो बिषु, भूषन भो, करुनाबरुनालय साइँ-हियो है।
मेरोइ फोरिबे जोगु कपारु, किधौं कछु काहूँ लखाइ दियो है
काहे न कान करौं बिनती तुलसी कलिकाल बेहाल कियो है॥
खायो कालकूटु भयो अजर अमर तनु, भवनु मसानु, गथ गाठरी गरदकी।
डमरु कपालु कर, भूषन कराल ब्याल, बावरे बड़ेकी रीझ बाहन बरदकी॥
तुलसी बिसाल गोरे गात बिलसति भूति, मानो हिमगिरि चारु चाँदनी सरदकी।
अर्थ-धर्म-काम-मोच्छ बसत बिलोकनिमें, कासी करामाति जोगी जागति मरदकी॥
१४२ पिंगल जटाकलापु माथेपै पुनीत आपु, पावक नैना प्रताप भ्रूपर बरत है।
लोयन बिसाल लाल, सोहै बालचंद्र भाल, खंठ कालकूटु, ब्याल-भूषन धरत है॥
सुंदर दिगंबर, बिभूति गात, भाँग खात, रूरे सृंगी पुरें काल-कंटक हरत हैं।
देत न अघात रीझि, जात पात आकहीकें भोरानाथ जोगी जब औढर ढरत हैं॥
देत संपदासमेत श्रीनिकेत जाचकनि, भवन बिभूति-भाँग, बृषभ बहनु है।
नाम बामदेव दाहिनो सदा असंग रंग अर्ध्द अंग अंगना, अनंगको महनु है॥
तुलसी महेसको प्रभाव भावहीं सुगम निगम-अगमहूको जानिबो गहनु है।
भेष तौ भिखारको भयंकररूप संकर दयाल दीनबंधु दानि दारिददहनु है॥
१४३ चाहै न अनंग- अरि एकौ अंग मागनेको देबोई पै जानिये, सुभावसिध्द बानि सो।
बारि बुंद चारि त्रिपुरारि पर डारिये तौ देत फल चारि, लेत सेवा साँची मानि सो॥
तुलसी भरोसो न भवेस भोरानाथको तौ कोटिक कलेस करौ, मरौ छार छानि सो।
दारिद दमन दूख-दोष दाह दावानल दुनी न दयाल दूजो दानि सूलपानि-सो॥
काहेको अनेक देव सेवत जागै मसान खोवत अपान, सठ होत हठि प्रेत रे।
काहेको उपाय कोटि करत, मरत धाय, जाचत नरेस देस- देसके, अचेत रे॥
तुलसी प्रतीति बिनु त्यागै तैं प्रयाग तनु, धनहीके हेत दान देत कुरुखेत रे।
पात द्वै धतूरेके दै, भोरें कै, भवेससों, सुरेसहूकी संपदा सुभायसों न लेत रे॥
१४४ स्यंदन, गयंद, बाजिराजि, भले भले भट, धन-धाम-निकर करनिहूँ न पूजै क्वै।
बनिता बिनीत, पूत फावन सोहावन, औ बिनय बिबेक, बिद्या सुभग सरीर ज्वै॥
इहाँ ऐसो सुख, परलोक सिवलोक ओक, जाको फल तुलसी सो सुनौ सावधान ह्वै।
जानें, बिनु जानें, कै रिसानें, केलि कबहुँक सिवहि चढ़ाए ह्वैहैं बेलके पतौवा द्वै॥
रति-सी रवनि, सिंधुमेखला अवनि पति औनिप अनेक ठाढ़े हाथ जोरि हारि कै।
संपदा-समाज देखि लाज सुरराजहूकें सुख सब बिधि बिधि दीन्हैं, सवाँरि कै॥
इहाँ ऐसो सुख, सुरलोक सुरनाथपद, जाको फल तुलसी सो कहैगो बिचारि कै।
आकके पतौआ चारि फूल कै धतूरेके द्वै दीन्हें ह्वैहैं बारक पुरारिपर डारिकै॥
१४५ देवसरि सेवौं बामदेव गाउँ रावरेहीं नाम रामहीके मागि उदर भरत हौं।
दीबे जोग तुलसी न लेत काहूको कछुक, लिखी न भलाई भाल, पोच न करत हौं॥
एते पर हूँ जो कोऊ रावरो ह्वै जोर करै, ताको जोर, देव! दीन द्वारें गुदरत हौं।
पाइ कै उराहनो उराहनो न दीजो मोहि , कालकला कासीनाथ कहें निबरत हौं॥
१४६ चेरो रामराइको, सुजस सुनि तेरो, हर! पाइ तर आइ रह्यौं सुरसरितीर हौं।
बामदेव! रामको सुभाव-सील जानियत नातो नेह जानियत रघुबीर भीर हौं॥
अधिभूत बेदन बिषम होत, भूतनाथ तुलसी बिकल, पाहि!पचत कुपीर हौं।
मारिये तौ अनायास कासीबास खास फल, ज्याइये तौ कृपा करि निरुजसरीर हौं॥
जीबेकी न लालसा, दयाल महादेव! मोहि, मालुम है तोहि, मरिबेईको रहतु हौं।
कामरिपु! रामके गुलामनिको कामतरु! अवलंब जगदंब सहित चहतु हौं॥
रोग भयो भूत-सो, कुसूत भयो तुलसीको, भूतनाथ, पाहि! पदपंकज गहतु हौं।
ज्याइये तौ जानकीरमन-जन जानि जियँ मारिये तौ मागी मीचू सूधियै कहतु हौं॥
१४७ भूतभव! भवत पिसाच -भूत- प्रेत -प्रिय, आपनो समाज सिव आपु नीकें जानिये।
नाना बेष, बाहन, बिभूषन, बसन, बास, खान -पान, बलि-पूजा बिधिको बखानिये॥
रामके गुलामनिकी रीति, प्रीति सूधी सब, सबसों सनेह, सबहीको सनमानिये।
तुलसीकी सुधरै सुधारे भूतनाथहीके मेरे माय बाप गुरु संकर-भवानिये॥
काशी में महामारी
गौरीनाथ, भोरानाथ, भवत भवानीनाथ। बिस्वनाथपुर फिरी आन कलिकालकी।
संकर-से नर, गिरिजा-सी नारीं कासीबासी, बेद कही, सही ससिसेखर कृपालकी॥
छमुख-गनेस तें महेसके पियारे लोग बिकल बिलोकियत, नगरी बिहालकी।
पुरी-सुरबेलि केलि काटत किरात कलि निठुर निहारिये उघारि डीठि भालकी॥
१४८ ठाकुर महेस ठकुराइनि उमा-सी जहाँ, लोक-बेदहूँ बिदित महिमा ठहरकी।
भट रुद्रगन, पूत गनपति-सेनापति, कलिकालकी कुचाल काहू तौ न हरकी॥
बीसीं बिस्वनाथकी बिषाद बड़ो बारानसीं, बूझिए न ऐसी गति संकर-सहरकी।
कैसे कहै तुलसी बृषासुरके बरदानि बानि जानि सुधा तजि पीवनि जहरकी॥
लोक-बेदहूँ बिदित बारानसीकी बड़ाई बासी नर नारि ईस-अंबिका-सरूप हैं।
कालनाथ कोतवाल दंडकारि दंडपानि, सभासद गनप-से अमित अनूप हैं॥
तहाऊँ कुचालि कलिकालकी कुरीति, कैधौं जानत न मूढ़ इहाँ भूतनाथ भूप हैं।
फलें फूलैं फैलैं खलल, सीदै साधु पल-पल खाती दीपमालिका, ठठाइयत सूप हैं॥
१४९ पंचकोस पुन्यकोस स्वारथ-परमारथको जानि आपु आपने सुपास बास दियो है।
नीच नर-नारि न सँभारि सके आदर, लहत फल कादर बिचारि जो न कियो है॥
बारी बारानसी बिनु कहे चक्रपानि चक्र, मानि हितहानि सो मुरारि मन भियो है।
रोसमें भरोसो एक आसुतोस कहि जात बिकल बिलोकि लोक कालकूट पियो है॥
रचत बिरंचि, हरि पालत, हरत हर तेरे हीं प्रसाद अग- जग-पालिके।
तोहिमें बिकास बिस्व , तोहिमें बिलास सब, तोहिमें समात, मातु भूमिधरबालिके॥
दीजे अवलंब जगदंब! न बिलंब कीजै, करुनातरंगगिनी कृपा-तरंग-मालिके।
रोष महामारी, परितोष महतारी दुनी देखिये दुखारी, मुनि-मानस-मरालिके॥
१५० निपट बसेरे अघ औगुन घनेरे, नर- नारिऊ अनेरे जगदंब! चेरी-चेरे हैं।
दारिद-दुखारी देबि भूसुर भिखारी-भीरु लोब मोह काम कोह कलिमल घेरे हैं॥
लोकरीति राखी राम, साखि बामदेव जानि जनकी बिनति मानि मातु! कहि मेरे हैं।
महामारी महेसानि! महिमाकी खानि, मोद- मंगलकी रासि, दास कासीबासी तेरे हैं॥
लोगनिकें पाप कैधौं, सिध्द-सुर-साप कैधौं, कालकें प्रताप कासी तिहूँ ताप तई है।
ऊँचे, नीचे, बीचके, धनिक, रंक, राजा, राय हठनि बजाइ करि डीठि पीठि दई है॥
देवता निहोरे, महामारिन्ह सों कर जोरे, भोरानाथ जानि भोरे आपनी-सी ठई है।
करुनानिधान हनुमान बीर बलवान! जसरासि जहाँ-तहाँ तैंहीं लूटि लई है॥