सरल अर्थों में कबीर साहेब के दोहे

सरल अर्थों में कबीर साहेब के दोहे

 
मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ । कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥

मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ ।
कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥
हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत ।
ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥
काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार ।
बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥
पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण ।
पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥
आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति ।
जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥
कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ ।
विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥
कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग ।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥
मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि ।
जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥
मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ ।
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥
एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ ।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ॥
कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ ।
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥
जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि ।
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥
मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ। कदली-सीप-भुजंग मुख, एक बूंद तिहँ भाइ॥

अर्थ: मूर्ख व्यक्ति की संगति नहीं करनी चाहिए, जैसे लोहे को जल में डालने से वह तैरता नहीं है। केले के पत्ते, सीप, और सांप के मुख में एक ही बूंद का अलग-अलग प्रभाव होता है; उसी प्रकार, संगति का प्रभाव व्यक्ति पर भिन्न-भिन्न होता है।

हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत। ते नर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत॥

अर्थ: जो व्यक्ति संतों से रुष्ट रहता है और संसारिक लोगों से प्रेम करता है, वे कभी सफल नहीं होते, जैसे बंजर भूमि में खेती नहीं होती।

काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार। बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार॥

अर्थ: यह संसार काजल (कोयले) की कोठरी के समान है; जो व्यक्ति इसमें रहकर भी अपने आप को साफ रखता है, वह वास्तव में प्रशंसा के योग्य है।

पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण। पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि मैंने पानी से भी पतला, धुएं से भी झीना, और हवा से भी तेज दोस्त (ईश्वर) को अपना साथी बनाया है।

आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति। जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति॥

अर्थ: मैं अपनी इच्छाओं को ईंधन बनाऊं, मन की कामनाओं को भस्म करूं, और योगी की तरह घूमता फिरूं, ताकि मैं उस सूत (जीवन के धागे) को बुन सकूं।

कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ। विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि अपने मन को मारकर टुकड़े-टुकड़े कर दो, और विवेक की क्यारी में बोओ; जब तुम इसे काटोगे, तो पछतावा नहीं होगा।

कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग। कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि कागज की नाव और पानी की गंगा के साथ, मैं कैसे पार कर सकता हूं, जब मेरे साथ पांच बुरे संगति वाले हैं।

मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि। जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि॥

अर्थ: मैं अपने मन को मारकर, उसे अपने हृदय में घेरता हूं; जब भी वह पीछे हटता है, तो उसे अंकुश देकर वापस लाता हूं।
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