कबीर साहेब के दोहे अर्थ और भावार्थ

कबीर साहेब के दोहे अर्थ और भावार्थ

 
काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम । मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ॥

काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम ।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ॥
दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि ।
सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥
कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि ।
यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥
कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ ।
अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ ॥
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग ।
भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग ॥
रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ ।
दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥
कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ ॥
मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई ।
कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि ॥
मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह ।
ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह ॥
संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ ।
साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ ॥
काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम। मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जब काबा (मक्का) काशी बन गया, राम रहीम हो गए, और मोटा आटा मैदा बन गया, तब कबीर ने बैठकर भोजन किया। यह दोहा धार्मिक भेदभाव को मिटाकर एकता की बात करता है।

दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि। सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि॥
अर्थ: दुखी व्यक्ति दुख के लिए और सुखी व्यक्ति सुख के लिए परेशान रहता है। लेकिन जो राम के सच्चे भक्त हैं, वे सुख-दुख दोनों से परे रहते हैं।

कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि। यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि द्वंद्व (दुविधा) को दूर करके एक (ईश्वर) से लगाव रखो। यह शीतलता और तपन दोनों ही आग के समान हैं, इसलिए दोनों से बचो।

कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ। अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ॥
अर्थ: कबीर पूछते हैं, तुम किसकी चिंता करते हो, और तुम्हारी चिंता से क्या होगा? जो तुम्हारी चिंता नहीं करता, उसकी चिंता भगवान स्वयं करते हैं।

भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग। भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग॥
अर्थ: भूखा व्यक्ति क्या कर सकता है, और लोगों से क्या कह सकता है? जो बिना मुख वाला बर्तन बनाता है, वही पूर्ण योग (संपूर्णता) को प्राप्त करता है।

रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ। दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ॥
अर्थ: रचनाकार (सृष्टिकर्ता) को पहचानो, खाने के लिए क्यों रोते हो? दिल की मस्जिद में प्रवेश करके, पीछे की ओर ध्यान दो।

कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ। हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि पूरा संसार हांडी (मिट्टी का बर्तन) है, जिसे कंधे पर ढोया जा रहा है। भगवान के बिना अपना कोई नहीं है, यह अनुभव से समझ में आता है।

मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई। कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि॥
अर्थ: मांगना मृत्यु के समान है, कोई भी इसे व्यर्थ नहीं समझता। कबीर रघुनाथ (राम) से कहते हैं, मुझे ऐसा मत बनाओ कि मैं किसी से मांगूं।

मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह। ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह॥
अर्थ: सम्मान, महत्ता, प्रेम-रस, गर्व, गुण, और स्नेह - ये सभी समाप्त हो जाते हैं, जब किसी से कुछ देने के लिए कहा जाता है।

संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ। साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ॥
अर्थ: संत लोग गठरी (संपत्ति) नहीं बांधते, जो पेट में समा जाए, उतना ही रखते हैं। वे साईं (भगवान) के सामने रहते हैं, जहाँ भी मांगते हैं, वहीं से उन्हें मिलता है।

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