नहीं करो अभिमान एक दिन पवन सा उड़
नहीं करो अभिमान एक दिन पवन सा उड़ जाना भजन
कहे कबीर सुनो भई साधो, तोहे मरण की आसा
चुन चुन माटी महल बनाया, मूरख कहें घर मेरा,
(चुण चुण माटी महल बनाया, मूरख कहें घर मेरा)
नहीं घर मेरा नहीं घर तेरा, है जगत में भेरा,
खाक में खप जाना रे बंदा, माटी से मिल जाना,
नहीं करो अभिमान, एक दिन पवन सा उड़ जाना,
(थोड़ा करो अभिमान इक दिन पवन से उड़ जाना)
(चुण चुण माटी महल बनाया, मूरख कहें घर मेरा)
नहीं घर मेरा नहीं घर तेरा, है जगत में भेरा,
ख़ाक़ में खप जाना रे बन्दा , माटी से मिल जाना,
नहीं करो अभिमान, एक दिन पवन सा उड़ जाना,
सोना पहरों रूपा पहरो, पहरो हीरला साँचा,
वार वार मोतीड़ा पहरो, तोए मरण केरी आसा,
खाक में खप जाना रे बंदा, माटी से मिल जाना,
नहीं करो अभिमान, एक दिन पवन सा उड़ जाना,
(थोड़ा करो अभिमान इक दिन पवन से उड़ जाना)
(चुण चुण माटी महल बनाया, मूरख कहें घर मेरा)
नहीं घर मेरा नहीं घर तेरा, है जगत में भेरा,
ख़ाक़ में खप जाना रे बन्दा , माटी से मिल जाना,
नहीं करो अभिमान, एक दिन पवन सा उड़ जाना,
जाड़ा पहरो झीणा पहरों, पहरो मलमल साँचा,
रुपिया पावल मशरू पहरो, तोए मरण केरी आसा,
खाक में खप जाना रे बंदा, माटी से मिल जाना,
नहीं करो अभिमान, एक दिन पवन सा उड़ जाना,
(थोड़ा करो अभिमान इक दिन पवन से उड़ जाना)
(चुण चुण माटी महल बनाया, मूरख कहें घर मेरा)
नहीं घर मेरा नहीं घर तेरा, है जगत में भेरा,
ख़ाक़ में खप जाना रे बन्दा , माटी से मिल जाना,
नहीं करो अभिमान, एक दिन पवन सा उड़ जाना,
माता रोए छे जनमों जनम ने, बहनी रोए बारह मासा
घर केरी नारी तेर (तेरह दिन ) दिन रोवे, करे बया केरी आसा
खाक में खप जाना रे बंदा, माटी से मिल जाना
नहीं करो अभिमान, एक दिन पवन सा उड़ जाना,
(थोड़ा करो अभिमान इक दिन पवन से उड़ जाना)
(चुण चुण माटी महल बनाया, मूरख कहें घर मेरा)
नहीं घर मेरा नहीं घर तेरा, है जगत में भेरा,
ख़ाक़ में खप जाना रे बन्दा , माटी से मिल जाना,
नहीं करो अभिमान, एक दिन पवन सा उड़ जाना,
एक दिन जिओ, दो दिन जिओ, जीवो बरस पचासां,
कहे कबीर सुनो भई साधो, तोहे मरण की आसा
नहीं करो अभिमान, एक दिन पवन सा उड़ जाना,
(थोड़ा करो अभिमान इक दिन पवन से उड़ जाना)
(चुण चुण माटी महल बनाया, मूरख कहें घर मेरा)
नहीं घर मेरा नहीं घर तेरा, है जगत में भेरा,
ख़ाक़ में खप जाना रे बन्दा , माटी से मिल जाना,
नहीं करो अभिमान, एक दिन पवन सा उड़ जाना,
जाड़ा पहरो झीणा पहरों, पहरो मलमल साचा,
रुपिया पावल मशरू पहरो, तोए मरण केरी आसा,
खाक में खप जाना रे बंदा, माटी से मिल जाना,
सोना पहरो रूपा पहरो, पहरो हीरला साचा,
वार वार मोतीड़ा पहरो, तोए मरण केरी आसा
खाक में खप जाना रे बंदा, माटी से मिल जाना
माता रोए छे जनमों जनम ने, बहनी रोए बारह मासा
घर केरी नारी तेर दिन रोवे, करे बया केरी आसा
खाक में खप जाना रे बंदा, माटी से मिल जाना
एक दिन जीयो, दो दिन जीयो, जीयो वरस पचासा
कहत कबीरा सुनो मेरे साधो, तोए मरण केरी आसा
खाक में खप जाना रे बंदा, माटी से मिल जाना
Chun chun maati mahal banaaya, moorakh kahe ghar mera
Nahin ghar mera nahin ghar tera, hai jagat mein bhera
Khaak mein khap jaana re banda, maati se mil jaana
Nahin karo abhimaan, ek din pavan sa ud jaana
मनुष्य चाहे महलों का निर्माता हो या गहनों का संग्रहकर्ता, अंततः सब कुछ मिट्टी में मिल जाना है। यह कोई भय उत्पन्न करने वाला विचार नहीं, बल्कि एक जागृति है—जिससे व्यक्ति अपने भीतर झांक सके। जो कुछ हम ‘मेरा’ कहकर संजोते हैं, वह प्रकृति का उधार मात्र है। जन्म और मृत्यु के बीच जो यह क्षणिक यात्रा है, उसका महत्व इसी में है कि हम उसे सजग होकर जिएँ, बिना अहंकार के, बिना माया में उलझे। जब व्यक्ति यह समझ लेता है कि सांस भी उधारी है, तब उसका हर कर्म सहज हो जाता है—उसका मन हल्का, और जीवन सरल।
संत कबीर का यह स्वर हमें चेतावनी देता है कि हम चाहे एक दिन जिएँ, पचास साल जिएँ या सौ साल, पर मृत्यु निश्चित है, और इस अटल सत्य को भुलाकर जीना सबसे बड़ी मूर्खता है। हम कितनी मेहनत से इस नश्वर मिट्टी को चुन-चुन कर आलीशान मकान बनाते हैं और अज्ञानतावश उसे "मेरा घर" कहने लगते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि यह जगत एक सराय जैसा है, जहाँ कोई किसी का स्थायी नहीं है। यह भाव हमें गहराई से समझाता है कि इस शरीर और इसके बनाए हुए हर भौतिक सुख का अंत मिट्टी में मिलना ही है। इसलिए, हमें चाहिए कि हम अभिमान को छोड़ दें, क्योंकि एक दिन यह शरीर हवा की तरह उड़ जाएगा और हमारा सारा संग्रह यहीं धरा रह जाएगा।
