कबीर दोहावली हिंदी अर्थ सहित जानिये
कबीर दोहावली हिंदी अर्थ सहित जानिये
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥
जब व्यक्ति के मन से सभी प्रकार की इच्छाएँ या 'चाह' खत्म हो जाती है, तो उसके सारे डर और चिंताएँ भी समाप्त हो जाती हैं, और उसका मन एकदम लापरवाह और शांत हो जाता है। कबीर दास जी कहते हैं कि संसार में वही मनुष्य सच्चा बादशाह या 'शहनशाह' है, जिसे जीवन में किसी भी वस्तु की कामना नहीं है, क्योंकि इच्छाओं से मुक्ति ही सबसे बड़ा सुख और समृद्धि है।
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥
इस दोहे में मिट्टी, कुम्हार से बात करते हुए कहती है कि तू आज मुझे पैरों से क्यों रौंद रहा है और मुझे दबा रहा है। मिट्टी आगे कहती है कि एक दिन ऐसा समय भी अवश्य आएगा, जब तू स्वयं मिट्टी में मिल जाएगा और फिर मैं तुझे रौंदूँगी, अर्थात तब तेरा शरीर मिट्टी में मिलकर मेरे ही अधीन हो जाएगा। इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी मनुष्य को उसके अहंकार के बारे में सचेत करते हैं और यह बताते हैं कि मृत्यु के बाद सभी को मिट्टी में ही मिल जाना है, इसलिए किसी को अपनी शक्ति या वर्तमान पर घमंड नहीं करना चाहिए।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥
इस दोहे में कबीर दास जी आडंबरपूर्ण भक्ति पर चोट करते हुए कहते हैं कि व्यक्ति हाथ में माला लेकर लंबे समय से भगवान का नाम जप रहा है और युग बीत गए हैं, लेकिन उसके मन का स्वभाव नहीं बदला है, उसके मन के बुरे विचार या कपट दूर नहीं हुए हैं। इसलिए वह सलाह देते हैं कि हाथ की माला या 'कर का मनका' को छोड़ दो और अपने मन रूपी माला के मोतियों को फेरो, अर्थात अपने मन को शुद्ध करो और अपने विचारों में बदलाव लाओ, क्योंकि सच्ची भक्ति बाहरी दिखावे में नहीं, बल्कि मन की पवित्रता में है।
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
कबीर दास जी इस दोहे में बताते हैं कि हमें कभी भी उस छोटे से 'तिनके' यानी घास के टुकड़े की भी निंदा नहीं करनी चाहिए या उसे तुच्छ नहीं समझना चाहिए, जो हमारे पैरों के नीचे पड़ा होता है। क्योंकि यदि वही तिनका हवा से उड़कर कभी आँख में पड़ जाता है, तो वह बहुत अधिक 'पीर' यानी दर्द और कष्ट देता है। इस दोहे का मुख्य भाव यह है कि हमें कभी भी किसी भी व्यक्ति को छोटा या कमजोर समझकर उसका अपमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि एक छोटा व्यक्ति भी समय आने पर बहुत बड़ी परेशानी या क्षति पहुँचा सकता है।
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥
इस दोहे में शिष्य के सामने गुरु और भगवान दोनों एक साथ खड़े हैं और वह दुविधा में है कि पहले किसके चरण स्पर्श करे या 'किसके पाँव लगे'। इस पर वह तुरंत निर्णय लेता है और कहता है कि मैं अपने गुरु पर न्योछावर जाता हूँ या 'बलिहारी' जाता हूँ, क्योंकि यह मेरे गुरु ही हैं जिन्होंने मुझे गोविंद यानी भगवान से मिलने का मार्ग दिखाया और उन्हें मुझसे मिलवाया है। यह दोहा जीवन में गुरु के महत्व को बताता है और कहता है कि गुरु का स्थान भगवान से भी ऊपर है, क्योंकि गुरु ही ज्ञान का दीपक जलाकर हमें ईश्वर तक ले जाते हैं।
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥
कबीर दास जी इस दोहे में मनुष्य के स्वार्थी स्वभाव पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि जब जीवन में सुख होता है, तब तो वह भगवान का 'सुमिरन' यानी उन्हें याद नहीं करता है और उनका भजन नहीं करता है, लेकिन जब जीवन में 'दुःख' आता है, तब वह उन्हें याद करता है और मदद के लिए गुहार लगाता है। कबीर दास जी कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति या 'दास' की विनती या 'फरियाद' भगवान क्यों सुनेंगे। इस दोहे का सार यह है कि व्यक्ति को हर परिस्थिति में, चाहे सुख हो या दुःख, भगवान को हमेशा याद करते रहना चाहिए, तभी उसकी प्रार्थना स्वीकार होती है।
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
इस दोहे में कबीर दास जी ईश्वर से बहुत ही सीमित और संतुलित मांग करते हैं, वे कहते हैं कि हे 'साईं' यानी ईश्वर, मुझे केवल उतना ही धन या अनाज दीजिए, जिसमें मेरे पूरे परिवार का पालन-पोषण या 'कुटुम समाय' हो सके। इसके साथ ही, मेरी यह इच्छा है कि मेरे घर से कोई 'साधु' या अतिथि भूखा न जाए और मैं स्वयं भी भूखा न रहूँ। यह दोहा संतोष और संयम का महत्व बताता है, और यह सीख देता है कि हमें केवल अपनी और अपने परिवार की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और साथ ही दूसरों की सेवा भी करनी चाहिए।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥
कबीर दास जी इस दोहे में मन को धैर्य रखने की सलाह देते हुए कहते हैं कि हे मन! हर काम धीरे-धीरे और समय के साथ ही होता है, इसलिए बेचैन मत हो। वे उदाहरण देते हुए समझाते हैं कि भले ही कोई माली किसी पेड़ को 'सौ घड़ा' पानी से सींच दे, लेकिन फिर भी उस पेड़ पर फल तभी लगेंगे जब फलों के लगने की 'ॠतु' यानी मौसम आएगा। इस दोहे का अर्थ यह है कि जीवन में सफलता या फल पाने के लिए व्यक्ति को लगातार प्रयास करते रहना चाहिए, लेकिन परिणाम के लिए उचित समय और धैर्य का इंतजार करना भी आवश्यक है। आपको ये पोस्ट पसंद आ सकती हैं
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Author - Saroj Jangir
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