कबीर के दोहे सरल हिंदी में अर्थ जानिये

कबीर के दोहे सरल हिंदी में अर्थ जानिये

कबीर के दोहे हिंदी में दोहावली Kabir Ke Dohe Hindi Me Dohawali

जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥
कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥
ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय ।
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥
सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय ।
जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥
संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥
मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष ।
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥
जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश ।
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥
काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥
सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह ।
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥
बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥
फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ॥
तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास ।
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास ॥
कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव ॥
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥
तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय ।
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥
जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय ।
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥
कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥
 
जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम।
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम॥

जहाँ वासना है, वहाँ भक्ति नहीं हो सकती। जहाँ भक्ति है, वहाँ वासना नहीं टिकती। जैसे दिन और रात एक साथ नहीं हो सकते।

कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय।
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय॥

धैर्य रखने वाले को सब कुछ मिलता है। जैसे हाथी पेट भर खाता है। बिना धैर्य के, इंसान कुत्ते की तरह भटकता है।

ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय।
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय॥

पानी हमेशा नीचे की ओर बहता है। जमीन पर झुकने वाले को सब कुछ मिलता है। घमंडी व्यक्ति हमेशा प्यासा रह जाता है।

सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय।
जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय॥

सबसे अच्छी बात है विनम्रता। विनम्र व्यक्ति को सभी सम्मान देते हैं। जैसे दूज का चाँद सभी को प्यारा लगता है।

संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक।
कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक॥

संत लोग सच्चाई और प्रेम बाँटते हैं। जैसे रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े बाँटे जाते हैं। कबीर कहते हैं, ऐसे लोग कभी गलती नहीं करते।

मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष।
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष॥

चलते हुए गिरने वाले को दोष नहीं है। जो बैठा ही रहे, उसे जीवन में हार का दोष है।

जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश।
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास॥

जब हृदय में राम का नाम बसता है, पाप खत्म हो जाते हैं। जैसे आग की चिंगारी पुरानी घास को जला देती है।

काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय।
काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय॥

यह शरीर समय के साथ नष्ट हो जाता है। इसे संभालने के जितने उपाय करो, सब बेकार हैं। इसके राज को केवल ईश्वर जानते हैं।

सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह।
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह॥

सुख का सागर बहुत गहरा है, कोई इसे समझ नहीं पाता। जैसे साधु बिना शब्द और राजा बिना धन अधूरे हैं।

बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम॥

दिखावा छोड़, मन में राम का ध्यान कर। संसार के झंझट में मत पड़, परमात्मा पर भरोसा कर।

फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम।
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम॥

जो सेवा फल की इच्छा से करे, वह सच्चा सेवक नहीं। सेवा दिल से होनी चाहिए, बदले की भावना से नहीं।

तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास।
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास॥

तेरा ईश्वर तेरे भीतर है, जैसे फूल में खुशबू। जैसे हिरन अपनी कस्तूरी को घास में ढूंढता है।

कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव।
कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव॥

भजन और कीर्तन ही भवसागर पार करने का साधन है। कबीर कहते हैं, इस दुनिया में कोई और उपाय नहीं।

कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा॥

यह शरीर नश्वर है, इसे सही जगह लगाओ। साधु की सेवा करो या भगवान के गुण गाओ।

तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय।
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय॥

शरीर स्थिर है, लेकिन मन बहुत चंचल है। यह कभी धर्म को छूता है, कभी आसमान में भटकता है।

जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय।
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय॥

जहाँ ग्राहक नहीं, वहाँ दुकानदार नहीं। मूर्ख इस भ्रम में रहता है और सच्चाई नहीं पकड़ पाता।

कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय।
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय॥

बहुत लोग बोलते हैं, पर समझते नहीं। सच वही जानता है, जो गहराई से उसे अपनाता है।

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