कबीर के दोहों को सरल अर्थ के साथ पढ़िए
नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥
आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥
दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥
बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥
फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥
दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥
दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय ॥
छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय। कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय।
चन्द्रमा की शीतलता केवल भ्रम है; असल में वह ठंडा नहीं होता। सच्चे संतों की शीतलता उनके नाम-स्मरण और प्रेम में निहित होती है।
आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद। नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद।
मनुष्य अपनी इच्छाओं के अनुसार आहार करता है, जिससे इन्द्रियों को स्वाद मिलता है। जब पेट भर जाता है, तो प्रसाद की आवश्यकता नहीं रहती।
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय। नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय।
जब तक व्यक्ति संसार से जुड़ा रहता है, तब तक भक्ति संभव नहीं होती। संसारिक बंधनों को तोड़कर ही सच्ची भक्ति की प्राप्ति होती है।
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम। माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम।
जल की प्यारीता उसकी स्वच्छता में है, लोभी को धन प्रिय होता है, माता को उसका बच्चा प्रिय होता है, और भक्तों को भगवान का नाम प्रिय होता है।
दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी। कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी।
दिल की पीड़ा का कोई इलाज नहीं मिलता; जो मिलता है, वह अस्थायी होता है। कबीर कहते हैं, आसमान फट जाए, तो भी दर्जी उसे सिल नहीं सकता।
बानी से पहचाने, साम चोर की घात। अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात।
व्यक्ति की असली पहचान उसकी वाणी और आंतरिक क्रियाओं से होती है; बाहरी आचार-व्यवहार से नहीं।
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव। कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव।
जब तक भक्ति में स्वार्थ होता है, तब तक सेवा निष्फल होती है। कबीर कहते हैं, निष्काम भक्ति ही सच्ची है।
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