कबीर के दोहे व्याख्या सहित

कबीर के दोहे हिंदी मीनिंग हिंदी अर्थ सहित Kabir Ke Dohe Hindi Me

कबीर के दोहे व्याख्या सहित Kabir Ke Dohe Hindi Arth Sahit

जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का , पड़ा रहन दो म्यान।।

उपयोगी वस्तु को ग्रहण करो। व्यर्थ की बातों पर अपना समय ख़राब मत करो। उपयोगी तो तलवार है, उसका मोल करो म्यान के बारे में बहस मत करो वो तलवार से तो कम कीमती होती है। साधू के ज्ञान का महत्त्व है जाती कुछ भी हो, ज्ञान कीमती है। कबीर के समय जातिवादी प्रभुत्व चरम पर था। व्यक्ति जन्म और जाती विशेष से श्रेष्ठ समझा जाता था। कबीर ने इसका विरोध किया और लोगों को चेताया की कोई भी व्यक्ति श्रेष्ठ हो सकता है, उसके कार्य उत्तम होने चाहिए। "साधो पांडे निपुण कसाई "ब्राह्मण सिर्फ इसलिए महान नहीं हो सकता क्यों की उसने ब्राह्मण जात में जन्म लिया है, गुण महत्त्व रखते है, चाहे वो किसी भी जाती के व्यक्ति में क्यों ना हो। कबीर का तात्पर्य है की साधु कौन से जात का है, किस धर्म का है, किस प्रदेश का है इनपर ध्यान ना देकर उसके ज्ञान की कद्र की जानी चाहिए, व्यर्थ की बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए।

ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे , आपहु शीतल होय।।
 
दोहे की व्याख्या :-
कबीर ने व्यक्ति के चरित्र निर्माण पर सदा ही बल दिया है। इसी क्रम में कबीर साहेब की वाणी है की व्यक्ति को मधुर और मृदु भाषा का प्रयोग करना चाहिए जिससे अहम् का नाश होता है और स्वंय के साथ साथ दूसरों को भी शीतलता मिलती है। कहते हैं की तलवार का घाव भर जाता है लेकिन शब्दों का घाव नहीं भरता है, जीवन भर वह हरा ही रहता है। हमारे आस पास भी झगड़ों का कारन कोई बहुत बड़ी बात नहीं होती है, छोटी सी बात ही टूल पकड़ लेती है। इनको ताला जा सकता है वाणी की मधुरता से। वाणी अगर मधुर है तो व्यक्ति के सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं। अहम् और मृदुता दोनों विरोधाभाषी हैं। अहम् होने पर मृदुता नहीं आती और मृदुता तभी आती है जब अहम् शांत हो जाय। दोनों आपस में जुड़े हुए हैं।

निंदक नियरे राखिए , आंगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना , निर्मल करे सुभाय।।

हाँ में हां मिलाने वाला दोस्त नहीं अपितु शत्रु होता है। जब व्यक्ति चापलूसों से घिरा रहता है तो उसे सही और बुरे का ज्ञान नहीं होता है। चापलूस मित्र उसे गलत होने का आभाष होने ही नहीं देते हैं। हम भी उसी को पसंद करते हैं जो हमारी हाँ में हाँ मिलाये, भला बात को काटने वाला और अवगुणों को बताने वाला किसे पसंद हो सकता है। इसके विपरीत कबीर साहेब कहते हैं की निंदक को दोस्त बना कर सदा अपने पास रखना चाहिए। निंदक हमारे कार्यों की निंदा करेगा और उसमे अवगुण ढूंढ कर बताएगा। निंदक से ही हमे ज्ञात होता है की हमारे अवगुण क्या हैं। निंदक को हमेशा पास में ही रखना चाहिए इसी से व्यक्तित्व में निखार आता है। निंदक चुन चुन कर अवगुणो के बताता है जिससे उनकी पहचान हो पाती है। निंदक बिना साबुन और पानी बिना स्वभाव को निर्मल कर देता है। निंदक की भांति ही घर आँगन के आगे वृक्ष जरूर होना चाहिए जिससे उसकी छायां का लाभ मिल सके। जैसे पेड़ से छांया मिलती है वैसे ही निंदक भी लाभकारी होता है।

सतगुरु की महिमा अनंत , अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघारिया अनंत दिखावण हार।।

दोहे की व्याख्या :-
सतगुरु की महिमा का वर्णन करते हुए संत कबीर साहेब की वाणी है की सतगुरु ने मेरे ज्ञान के चक्षु खोल दिए हैं और मुझे ईश्वर के दर्शन करवा दिए हैं। वस्तुतः यह गुरु की ही महिमा होती है की वो आम लोगों में प्रकाश फैलाएं और उन्हें सत्य की राह दिखाएं। सत्य का मार्ग सद्गुरु ही प्रशस्त कर सकते हैं। गुरु ज्ञान के अभाव में व्यक्ति विषय विकार और लोभ में फंसकर रह जाता है। सांसारिक कामों को ही अपना उद्देश्य समझने लग जाता है। जब समय व्यतीत हो जाता है तो उसे मालिक की याद आती है। लेकिन तब उसका शरीर उसका साथ नहीं देता है। समय रहते गुरु ही व्यक्ति की आँखें खोलता है। गुरु ही बताता है की जीवन का उद्देश्य मात्र संतान पैदा करना, माया को जोड़ना, रिश्तेदारों में स्वंय को ढूँढना नहीं है। मानव जीवन काफी जतन के बाद मिला है, इसका उद्देश्य हरी का सुमिरन करना है।

कबीर लहरि समंद की , मोती बिखरे आई।
बगुला भेद न जाने , हंसा चुनी – चुनी खाई।।

दोहे की व्याख्या :-
कबीर की यह वाणी तो मानो गागर में सागर के सामान है। जीवन का सत्य है जी मनुष्य जीवन के महत्त्व को समझ नहीं पाता है। वह नहीं जानता है की ये जीवन कितने जतन के बाद मिला है, इसका उद्देश्य क्या है, इसे कैसे सहेज कर रखना है। विडम्बना है की मनुष्य इसकी उपयोगिता को पहचान नहीं सकता है। अगर विषय विकार, लोभ लालच इस जगत में हैं तो इसी जगत में ही कण कण में हरी निवास करते हैं। जैसे समुद्र की लहरों के साथ मोती किनारे पर ऊपर आ जाते हैं और हंस को उन मोतियों की पहचान होने के करना वह मोती खाता है और बगुला उनके बारे में ज्ञान नहीं होने के कारन उन्हें नहीं खा सकता है। भाव है की ज्ञान के प्राप्ति के बाद मनुष्य को अपने बारे में और ईश्वर के बारे में एहसास होना शुरू हो जाता है। वह विषय विकार छोड़ कर मोती रूपी भक्ति को ग्रहण करने लग जाता है।

संत न छोड़े संतई जो कोटिक मिले असंत।
चंदन भुवंगा बैठिया , तऊ सीतलता न तंजत।।

दोहे की व्याख्या :-
संत और असंत के स्वाभाव में परिवर्तन संभव नहीं होता है। संत स्वभाव का व्यक्ति हर परिस्थिति में सम भाव रखता है। अहंकार और विकार का उस पर कोई असर नहीं होता है। संत का स्वभाव ही ऐसा होता है की बुराई उसे अपनी और आकर्षित नहीं कर पाती है। जैसे चन्दन का वृक्ष अपनी गुणवत्ता के लिए पहचाना जाता है, उसके पास जाते ही शीतलता महसूस होती है उस पर साँपों का डेरा लगा रहता है लेकिन फिर भी चन्दन अपना स्वाभाव नहीं त्यागता है। उसकी शीतलता और खुशबू पर सांप के स्वभाव का कोई असर नहीं पड़ता है। भाव है की असंत जन के मध्य रहकर भी संत जन अपने स्वभाव को त्यागते नहीं है।

यह घर है प्रेम का , खाला का घर नाही।
शीश उतार भुई धरों , फिर पैठो घर माहि।।
 
दोहे की व्याख्या :-
भक्ति का मार्ग भी आसान नहीं है। भक्ति के लिए कई त्याग करने पड़ते हैं। मन को वश में करना पड़ता है। विषय और लोभ ललचाते हैं, उनसे स्वंय को बचाते हुए सयंमित जीवन जीना पड़ता है। ये ही त्याग है, बिना त्याग और अनुशाशन के भक्ति संभव नहीं है। कबीर साहेब की वाणी है की यह घर प्रेम का है, खाला का नहीं, इसके अंदर प्रवेश करने के लिए शीश उतारकर जमीं पर रखना पड़ता है, उसके बाद ही घर में प्रवेश कर सकता है। यहाँ शीश से आशय है की अहंकार को समाप्त करके ही भक्ति मार्ग में प्रवेश लिया जा सकता है। एक अन्य स्थान पर कबीर साहेब की वाणी है की प्रेम की गली संकरी है इसमें अहम् और ईश्वर दोनों एक साथ नहीं समां सकते हैं। समर्पण और दास्य भाव के बिना मालिक की भक्ति संभव नहीं है। अहंकार समाप्त हो जाने पर मालिक के प्रति समर्पण में कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं होता है। अहम् के नाश के बाद ही सत्य का आभाष होता है। निरंतर अभ्यास से मन को वश में किया जा सकता है। समय के साथ यहाँ स्वभाव में समाहित हो जाता है और व्यक्ति में निर्मलता और शांति आ जाती है। 

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