
भोले तेरी भक्ति का अपना ही
काल फिरै सिर उपरे, हाथों धरी कमान।
कहै कबीर अहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान।
Kaal Phirai Sir Upare, Haathon Dharee Kamaan.
Kahai Kabeer Ahu Gyaan Ko, Chhod Sakal Abhimaan.
Kaal Phire Sir Upare Hatho Dhari Kaman,
Kahe Kabir Ahu Gyan Ko, Chod Sakal Abhiman.
काल फिरै सिर उपरे दोहे की व्याख्या : जीव के सिर के ऊपर काल खड़ा है और उसने हाथ में कमान ले रखी हैं। काल तैयार खड़ा है व्यक्ति को निगलने के लिए। अहम और अभिमान को छोड़ करके जीवन के मूल ज्ञान को प्राप्त करो। मूल ज्ञान है हर पल हरी के नाम का सुमिरण। धन दौलत, कुटुंब कबीला काल से किसी को बचा नहीं सकते हैं। हर सांस से हरी नाम का सुमिरन ही जीवन का आधार है।
काल जीव को ग्रासै, बहुत कहयो समुझाये
कहै कबीर मैं क्या करु कोयी नहीं पतियाये।
लोग एक दुसरे से कुशल क्षेम पूछते हैं, लेकिन वे भी सदा इस जीवन में कहाँ रहने वाले हैं। ना तो बुढ़ापा मरा है और ना ही भय का नाश हुआ है तो फिर कुशल कैसे हो सकता है। कुशल तो हरी नाम के सुमिरन से ही होगा क्यों की नियति के अनुसार एक रोज काल हमें अपना ग्रास बना लेगा और फिर बंधिया जमपुर जाय।
चहु दिस ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हथियार
सब ही येह तन देखता, काल ले गया मार।
काल से मात्र भजन करके ही बचा जा सकता है। कोई यह समझे की वह हथियारों के बल पर काल से मुकाबला कर लेगा, संभव नहीं है। काल सभी को अपना शिकार बना लेता है। हरी के नाम का सुमिरन ही काल से हमारी रक्षा करवा सकता सभी सूरमाओं के देखते ही देखते काल हाथ शरीर पर प्रहार करके मार के अपने साथ ले जाता है।
आपको ये पोस्ट पसंद आ सकती हैं