मैं तो तेरे भजन भरोसे अबिनासी
मैं तो तेरे भजन भरोसे अबिनासी॥
तीरथ बरतते कछु नहीं कीनो। बन फिरे हैं उदासी॥
जंतर मंतर कछु नहीं जानूं। बेद पठो नहीं कासी॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। भई चरणकी दासी॥
तीरथ बरतते कछु नहीं कीनो। बन फिरे हैं उदासी॥
जंतर मंतर कछु नहीं जानूं। बेद पठो नहीं कासी॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। भई चरणकी दासी॥
यह पद मीरा बाई की भक्ति रचनाओं में से एक है, जिसमें उन्होंने भगवान श्री कृष्ण (गिरिधर नागर) के प्रति अपनी गहरी श्रद्धा और समर्पण व्यक्त किया है।
पद का अर्थ:
मैं तो तेरे भजन भरोसे अबिनासी॥
हे भगवान, मैं तो तेरे भजन (स्मरण) के भरोसे ही अविनाशी (अमर) हूँ।
तीरथ बरतते कछु नहीं कीनो। बन फिरे हैं उदासी॥
तीर्थों में स्नान और व्रतों का पालन मैंने कुछ नहीं किया। मैं तो वन में भटक रही हूँ, उदास।
जंतर मंतर कछु नहीं जानूं। बेद पठो नहीं कासी॥
मैं तंत्र-मंत्र कुछ नहीं जानती। वेदों का पाठ भी नहीं किया है।
पद का अर्थ:
मैं तो तेरे भजन भरोसे अबिनासी॥
हे भगवान, मैं तो तेरे भजन (स्मरण) के भरोसे ही अविनाशी (अमर) हूँ।
तीरथ बरतते कछु नहीं कीनो। बन फिरे हैं उदासी॥
तीर्थों में स्नान और व्रतों का पालन मैंने कुछ नहीं किया। मैं तो वन में भटक रही हूँ, उदास।
जंतर मंतर कछु नहीं जानूं। बेद पठो नहीं कासी॥
मैं तंत्र-मंत्र कुछ नहीं जानती। वेदों का पाठ भी नहीं किया है।
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। भई चरणकी दासी॥
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर (भगवान श्री कृष्ण) हैं। मैं उनके चरणों की दासी बन गई हूँ।
इस पद में मीरा बाई भगवान श्री कृष्ण के प्रति अपनी गहरी भक्ति और समर्पण व्यक्त करती हैं, यह दर्शाते हुए कि उन्होंने बाहरी आडंबरों और धार्मिक कर्मकांडों की बजाय भगवान के भजन और उनके चरणों की शरण को ही सर्वोत्तम माना है।
आपको ये पोस्ट पसंद आ सकती हैं
