मीराबाई का जीवन परिचय Meera Baai Ka Jivan Parichay Biography

मीराबाई का जीवन परिचय Meera Baai Ka Jivan Parichay Biography of Meera Baai Hindi

मीरा बाई जीवनीराज पाट के आराम, सम्मान और वैभव को छोड़ कर साधारण साधू संतों के साथ हरी कीर्तन को जीवन का ध्येय बना लेना सुनने में आसान लगता है लेकिन यह भक्ति की उच्चतमस्थिति है जहां पर मान मर्यादा, सामाजिक उंच नीच आदि के अतिरिक्त स्वंय के शरीर की सुध बुध कोई मायने नहीं रखती है।

आत्मा शारीरिक सुखों से ऊपर उठ कर परम आनंद की स्थिति में पहुँच जाती है, जैसा की हम मध्यकालिन हिन्दू आध्यात्मिक कवियित्री और कृष्ण भक्त मीरा बाई के बारे में जानते हैं। ऐसी अवस्था में जीवात्मा और परमात्मा की मध्य भेद कर पाना मुश्किल होता है। मीरा बाई बचपन में जहां अन्य बच्चे खिलौनों से खेलने में व्यस्त रहते थे वहीँ पर उनका ध्यान श्री कृष्ण की मूर्ति में लगा था। वे खेल खिलौनों को छोड़कर श्याम की मूर्ति के आगे नाचती रहती थी, और वह सामाजिक सन्दर्भ वर्तमान समय जैसा बिलकुल नहीं था। उस समय स्त्री का स्वंय के निर्णय पर चलना और साधू संतों के साथ भक्ति कीर्तन करना असंभव सा था।

यह कारण है की राजपूत वंश से सबंधित होने के कारण ना तो मीरा को राजस्थान में गाया गया और नाहीं इस विषय में अधिक जानने की कोशिश हुई। मीरा बाई की भक्ति को लोगों ने सिसोदिया वंश की साख को धक्का पहुंचाने वाला समझा जिसके कारण से मीरा बाई को साहित्य और सामाजिक रूप से वह स्थान नहीं मिला जिसकी वह हकदार हैं।

मीरा बाई की भक्ति से निश्चित ही तात्कालिक सामाजिक अवस्था में स्त्री के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह अवश्य ही लगा क्योंकि तात्कालिक व्यवस्था विशेषकर राजपूत समाज में ऐसी थी की स्त्री अपने माँ बाप, पति के आदेशों का पालन करे जिसमे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का स्थान नहीं था। इसके अतिरिक्त उससे उम्मीद की जाती थी की वह लड़के को जन्म दे जिससे वंश आगे बढ़ सके, भक्ति का इसमें कोई स्थान नहीं था। उस समय उघडा सर तो दूर की बात राजपूतों की महिलाओं को सूर्य की किरणे छू नहीं पाती थी।


मध्यकालीन हिंदू समाज में ऊंची जाति से सबंधित लोगों की भक्ति-आराधना करने के जो माध्यम थे, मीरा की भक्ति उन सभी को एक चुनौती देती हैं। यही कारण है की मीरा बाई को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया और उन्हें ऐसे रूप में पेश किया गया जैसे उन्हें सामजिक मर्यादायों की कोई परवाह नहीं है और वह कृष्ण प्रेम में पागल हो गई हैं। मीरा बाई के भजनों में स्त्री का स्वभाविक रोष, दलित, और आम लोगों की आवाज सुनाई देती हैं की क्योंकि मीरा बाई की वाणी को इन लोगों से स्वीकार किया और इनसे एक आत्मीय सबंध रखा।

मीरा बाई के गुरु के विषय में उल्लेखनीय है की उनके गुरु दलित थे, जो रंगाई बुनाई का काम करते थे। मीरा बाई के द्वारा रविदास (रैदास) जी को अपना गुरु बना लेने के बाद मीरा बाई के विचारों को दबाने की अधिक कोशिश की गई लेकिन अब भी आप देखें तो पायेंगे की मीरा बाई के भजन खासकर दलित समाज के लोगों के द्वारा ही जिन्दा रखे हुए हैं क्योंकि मीरा बाई उनको अपने करीब लगती हैं जो एक रोष के उद्घाटन के अतिरिक्त भक्ति को भी प्रदर्शित करती हैं ।

विवाह के कुछ समय के उपरान्त उनके पति का देहांत हो गया जिसके कारण से वे अधिकता से अपना समय भक्ति में लगाने लगी और सही मायनों में कृष्णमय हो गई। मीरा बाई दिव्य प्रेम/भक्ति में यकीन रखती थी, मीरा बाई के पति के देहांत के विषय में वर्णन प्राप्त होता है की "ऐसे वर का क्या करूँ जो जन्मे और मर जाए" ।

"ऐसे वर को क्या वरु, जो जन्मे और मर जाये।
वारिये गिरिधर लाल को, चूडलो अमर हो जाये ॥"


शारीरिक रूप से बंधने के स्थान पर मीरा बाई ने आत्मिक रूप से बंधना स्वीकार किया

"ऐसे वर को क्या वरु, जो जन्मे और मर जाये ।
वरीये गिरिधर लाल को, चूडलो अमर हो जाये ॥"


अपने पति को मीरा बाई ने कई बार सचेत किया की यह मानव देह हरी की भक्ति के लिए है लेकिन राणा को यह बात समझ में नहीं आई, इस विषय में उल्लेखनीय है की मीरा बाई कहती हैं की

मीरां हर की लाडली रे,राणों बन को ठूंठ ।
समझाया समझयो नही रे ले ज्याति बेकुंट रे


यदि राणा जी समझते तो वे उन्हें अपने साथ बैकुंठ (स्वर्ग) ले जाती।

मीरा बाई का जन्म : 1498 ईसवी, गांव कुडकी, जिला जोधपुर, राजस्थान
मीरा बाई का जन्म स्थान : चौकड़ी गाँव।
मीरा बाई के पिता का नाम : रतन सिंह।
मीरा बाई के माता का नाम : वीर कुमारी।
मीरा बाई के पति का नाम : भोज राज।
मीरा बाई के गुरु का नाम : रविदास। 
मीरा बाई की मृत्यु : 1557 द्वारका में।
 
मीरा बाई का जन्म - सौलह्वी शताब्दी में कृष्णभक्ति शाखा की महान भक्त एंव कवियत्री मीराबाई (मेडतड़ी-मेड़ता से सबंध रखने वाली) का जन्म संवत् १४९८ में जोधपुर में कुड़की नामक गाँव में राठौर राजपूत परिवार में हुआ था। । मीरा बाई के पिता के दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह थे। मीरा बाई की माता का निधन उनके बालयवस्था में ही हो गया था माता का निधन हो गया था, जब मीरा बाई दो वर्ष की थी। मीरा बाई ने अपने बचपन से ही संगीत, धर्म, प्रशासन और राजनीति जैसे विषयों की शिक्षा ग्रहण की। उसके पिता रत्नसिंह सदैव ही युद्ध में व्यस्त रहते थे इसलिए मीराबाई के दादा राव दूदा ने उसका पालन पोषण किया जो स्वंय भगवान् विष्णु के उपासक थे। मीरा बाई के दादा के पास साधू संतों का आना जाना लगा ही रहता था जिसके कारण मीरा बाई को भी बचपन से ही आध्यात्म की संगती का अवसर मिलने लगा और भक्ति की भावना उनमे अधिक दृढ होने लगी।

मीरा मगन भई हरि के गुण गाय।
सांप पिटारा राणा भेज्यो,मीरा हाथ दियो जाय।।
न्हाय धोय जब देखण लागी ,सालिगराम गई पाय।
जहर का प्याला राणा भेज्या ,अमृत दीन्ह बनाय।।
न्हाय धोय जब पीवण लागी हो अमर अंचाय।


मीरा के जन्म की जानकारी विस्तार से मीरा चरित से प्राप्त होती है। बाल्य काल से ही मीरा कृष्ण की भक्ति में रमी थी, अक्सर कृष्ण की मूर्ति के आगे नाचती थी और भजन भाव में अपना ध्यान लगाती थी। श्री कृष्ण को वे अपना पति मानती थी। पति के परलोक जाने के बाद मीरा अपना सारा समय कृष्ण भक्ति में लगाती थी। पति के देहांत हो जाने के बाद उन्हें सती करने का प्रयास किया किसी तरह मीरा बाई इस से बच पायी।

पुरुष प्रधान समाज में मीरा की भक्ति उनके परिवार वालों के रास नहीं आयी और कई बार उन्हें मारने की कोशिश भी की गयी लेकिन श्री कृष्ण जी ने उन्हें हर आफत से बाहर निकाला, श्री कृष्ण, श्री बांके बिहारी। आखिरकार मीरा बाई ने घर छोड़ दिया और वृन्दावन और द्वारका में कृष्ण भक्ति की। वे जहाँ जाती लोगों का आदर और सत्कार उन्हें प्राप्त होता। मीरा बाई के पदों में ज्यादातर भैरव राग की प्रमुखता है।

बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहनी मूरति, साँवरि, सुरति नैना बने विसाल।।
अधर सुधारस मुरली बाजति, उर बैजंती माल।
क्षुद्र घंटिका कटि- तट सोभित, नूपुर शब्द रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल।।


मीरा बाई के गुरु का नाम संत रैदास था जिन्हे रविदास के नाम से भी जाना जाता है। मीरा बाई ने अपने पदों के इस बात की स्वीकारोक्ति दी है की उनके गुरु रैदास थे। इस बात के कोई प्रमाण मौजूद नहीं हैं की रैदास और मीरा की मुलाक़ात कहा हुयी और उन्होंने कहाँ उन्हें गुरु माना।

खोज फिरूं खोज वा घर को, कोई न करत बखानी।
सतगुरु संत मिले रैदासा, दीन्ही सुरत सहदानी।।
वन पर्वत तीरथ देवालय, ढूंढा चहूं दिशि दौर।
मीरा श्री रैदास शरण बिन, भगवान और न ठौर।।
मीरा म्हाने संत है, मैं सन्ता री दास।
चेतन सता सेन ये, दासत गुरु रैदास।।
मीरा सतगुरु देव की, कर बंदना आस।
जिन चेतन आतम कह्या, धन भगवान रैदास।।
गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुर से कलम भिड़ी।
सतगुरु सैन दई जब आके, ज्याति से ज्योत मिलि।।
मेरे तो गिरीधर गोपाल दूसरा न कोय।
गुरु हमारे रैदास जी सरनन चित सोय।।
 
मीरा बाई का वैवाहिक जीवन Meera Baai Ka Vaivahik Jivan- मीरा बाई के वैवाहिक जीवन को लेकर कई प्रकार की किंवदंतियाँ प्रसिद्द हैं। मीराबाई का विवाह चित्तौड़ के महाराणा राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। मीरा बाई का मन तो कृष्ण भक्ति में लगा हुआ था विवाह के कुछ समय उपरान्त ही मीरा बाई के पति का देहांत हो गया। मीरा बाई के पति का देहांत 1518 में हिन्दू-मुस्लिम के बीच हुए युद्ध में हो गया था।मीरा बाई ने आरम्भ से ही वैवाहिक जीवन में कोई रूचि नहीं ली और कृष्ण भक्ति में ही लीन रहने लगी थी। तात्कालिक सामाजिक ताने बाने में मीरा बाई का भक्ति करना किसी को भी पसंद नहीं आया। 
 
पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन प्रति-दिन बढती गई. ये मंदिरों में जाकर वहा मोजूद कृष्ण भक्तो के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थी। मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना उनके लिए तो स्वभाविक था लेकिन राज परिवार को अच्छा नहीं लगा, उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मरने की कोशिश की घर वालो के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह घर बार छोड़कर द्वारिका और वृन्दावन के लिए निकल गई जो उनकी भक्ति के लिए त्याग की भावना को दर्शाती है। वृन्दावन और द्वारिका में लोगों ने मीरा बाई को खूब सम्मान दिया।

मीरा बाई का अकबर से मिलना Meera Baai Ka Akbar Se Milana

ऐसा कहा जाता है की मीरा बाई की भक्ति के किस्से अब दूर दूर तक फैलने लगे थे जिसके कारण अकबर के मंत्री तानसेन ने मीरा बाई की भक्ति के विषय में अकबर को बताया। अकबर धार्मिक रूप से उदार थे और उन्होंने एक नया धर्म भी बनाया था जिसका नाम दीनएइइल्लाही था जिसका उद्देश्य हिन्दू और मुस्लिम धर्म के लोगों को एक करना था। जब अकबर के मीरा बाई से मिलने की उत्सुकता उत्पन्न हुई, तो वे तानसेन के साथ भेष बदल कर मीरा बाई के भजन सुनने के लिए गए क्योंकि अकबर स्वंय संगीत के बड़े हिमायती थे। उन्हें अमूल्य रत्न उपहार में दिए जिनको मीरा बाई ने श्री कृष्ण जी की प्रतिमा को अर्पित कर दिए थे।

मीराबाई का घर से निकल जाना Meera Baai Ka Ghar Se Nikal Jaana

मीरा बाई के सबंध में एक किस्सा है की उनकी भक्ति के कारण घर परिवार वालों और उनके कुनबे के लोगों को बहुत आघात पहुंचा था और मीरा बाई का संतों की मण्डली में नाचना उन्हें बहुत ही अखरने लगा था जिसके परिणाम स्वरुप उन्हें विष दिया गया और सांप भी भेजा गया। मीरा बाई को मारने के लिए पहले मालाओं के साथ सांप को भेजा गया लेकिन भक्ति में लीन मीरा बाई ने सांप को भी माला समझा और श्री कृष्ण जी को अर्पित कर दिया। इसके उपरान्त मीरा बाई को मारने के लिए जहर का प्याला भिजवाया जो मीरा बाई का कुछ भी नहीं बिगाड़ सका। ऐसा माना जाता है की मीरा बाई को मारने के कई तरीके आजमाए गए लेकिन परम भक्त मीरा बाई का कुछ नहीं बिगड़ा। इसके उपरान्त मीरा बाई वृन्दावन के लिए निकल पड़ी और गलियों में घूम घूम कर भक्ति भाव और भजन करने लगी। राज परिवार के लोगों ने अनेको अनेक साधू और संतों को मीरा बाई को मनाने के लिए भेजा लेकिन मीरा कभी लौटी नहीं।

मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरौ न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।
छांड़ि दई कुल की कानि कहा करै कोई।
संतन ढिग बैठि बैठि लोक लाज खोई।
अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
दधि मथि घृत काढ़ि लियौ डारि दई छोई।
भगत देखि राजी भइ, जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरिधर तारो अब मोई।

मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरौ न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।
छांड़ि दई कुल की कानि कहा करै कोई।
संतन ढिग बैठि बैठि लोक लाज खोई।
अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
दधि मथि घृत काढ़ि लियौ डारि दई छोई।
भगत देखि राजी भइ, जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरिधर तारो अब मोई।

मध्यकालीन भक्ति काव्यधारा में मीराँबाई के पद महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। मीरा बाई के पद अपनी मार्मिकता एवं मधुरिमा के कारण इतने लोकप्रिय हुए हैं कि हिन्दी भाषा-भाषियों ने भी इन्हें अपना लिया है। हिंदी भाषी क्षेत्रों में मीरा बाई के पद बहुत ही लोकप्रिय हैं। मीरा बाई के पदों का संकलन मीराबाई पदावली में किया गया है।
मीरा बाई पदावली के कुछ अंश -

अच्छे मीठे फल चाख चाख, बेर लाई भीलणी।
ऎसी कहा अचारवती, रूप नहीं एक रती।
नीचे कुल ओछी जात, अति ही कुचीलणी।
जूठे फल लीन्हे राम, प्रेम की प्रतीत त्राण।
उँच नीच जाने नहीं, रस की रसीलणी।
ऎसी कहा वेद पढी, छिन में विमाण चढी।
हरि जू सू बाँध्यो हेत, बैकुण्ठ में झूलणी।
दास मीरां तरै सोई, ऎसी प्रीति करै जोइ।
पतित पावन प्रभु, गोकुल अहीरणी।

मीरा बाई पदावली की भाषा शैली Meera Baai Ki Bhasha Shaili  मीराबाई पद और रचनाएँ राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं। मीरा बाई के पदों में हमें हृदय की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता का पता चलता है। मीरा बाई के पदों में हमें भक्त की पीड़ा का बोध होता है। मीराबाई ने अपने पदों में श्रृंगार रस और शांत रस का प्रयोग विशेष रूप से किया है। मीरा बाई के पदों में हमें भावों की सुकुमारता और निराडंबरी सहज शैली की सरसता दिखाई देती है। मीरा बाई के पदों की भाषा मूल रूप से राजस्थानी मिश्रित भाषा है। इसके अलावा कुछ पद विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में भी रचित हैं। मीरा के विरह गीतों में समकालीन कवियों की अपेक्षा अधिक स्वाभाविकता पाई जाती है। इन्होंने अपने पदों में श्रृंगार और शांत रस का प्रयोग विशेष रुप से किया है। मीरा बाई पदावली कोमल, भावानुकूल व प्रवाहमयी है तथा मीरा बाई के पदों में भक्तिरस प्रधान रूप से है, इसके अतिरिक्त मीराबाई पदावली के पदों में अनुप्रास, दृष्टांत, पुनरुक्ति प्रकाश, रुपक आदि अलंकारो का उपयोग बहुत ही सहजता के साथ किया गया है। मीरा बाई के पदों की के विशेषता यह भी है की ये पद गेयात्मक हैं, लय युक्त एवं तुकांत हैं साथ की भक्ति रस से ओतप्रोत हैं।

मीरा बाई की रचनाएं - मीरा बाई ने नरसी का मायरा, गीत गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठा के पद ग्रन्थों की भी रचना की है।

मीरा बाई के गुरु :-मीरा बाई के गुरू रैदास (रविदास) जी थे जो 15 वीं से 16 वीं शताब्दी के दौरान भक्ति आंदोलन के उत्तर भारतीय रहस्यवादी कवि रहे हैं। रविदास जी का प्रभाव पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र के क्षेत्र विशेष रूप से हैं। संत रैदास को भक्ति के अतिरिक्त महान संत, दार्शनिक, कवि, समाज सुधारक के रूप में जाना जाता है। संत रैदास जाती से दलित थे। संत गुरु रविदास 15वीं सदी के एक महान समाज सुधारक थे, जिन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों को उजागर करके लोगों में जन जागरण की भावना को उत्पन्न किया। संत रविदास के सम्बन्ध में वर्णन प्राप्त होता है की उनके पिता राहू तथा माता का नाम करमा था। उनकी पत्नी का नाम लोना बताया जाता है। उनके पिता जूते बनाने का काम किया करते थे। रैदास का मन बचपन से ही भक्ति भाव में लगने लगा था और वे साधू संतों की संगती करने लगे थे। गुरू रविदास (रैदास) का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन विवार को संवत 1433 को हुआ था। उनके जन्म के बारे में एक दोहा प्रचलित है ।

चौदह से तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास ।
दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास।
रैदास जी ने अपने जन्म के विषय में लिखा -
रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच।
नकर कूं नीच करि डारी है, ओछे करम की कीच।।


आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए सार्थक हैं। संत रैदास जी ने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह सिद्ध कर दिया की मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है बल्कि विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को "मनुष्य" बनाते हैं । इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। संत रैदास जी ने अपने जीवन काल में विभिन्न वाणियों के माध्यम से समाज में फैली उंच नीच और छुआछूत के विरुद्ध आवाज उठाई और धार्मिक पाखंडों का खंडन किया। सभी धर्मों का मूल एक ही बताते हुए रैदास जी कहते हैं की-

कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
‘मन्दिर मस्जिद एक है, इन मंह अंतर नाहिं।
रैदास राम रहमान का, झगड़ऊ कोऊ नाहिं।।
रैदास हमारा राम जोई, सोई है रहमान।
काबा कासी जानि यहि, दोऊ एक समान।।


संत रविदास जी ने सामजिक एकता पर बहुत ही बल दिया और हिन्दू मुस्लिम धर्म में फैले पाखंड के प्रति भी लोगो को सचेत किया।

ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन,
पूजिए चरण चंडाल के जो होने गुण प्रवीण
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै
जा देखे घिन उपजै, नरक कुंड में बास
प्रेम भगति सों ऊधरे, प्रगटत जन रैदास
करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की ना तज्जियो आस
कर्म मानुष का धर्म है, सत् भाखै रविदास
मन ही पूजा मन ही धूप,
मन ही सेऊं सहज स्वरूप
हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास
रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच
नकर कूं नीच करि डारी है, ओछे करम की कीच


मीरा बाई ने तुलसीदास जी के कहने पर राम भजन लिखे : ऐसी मान्यता है की मीरा बाई ने तुलसी दास जी को सन्देश भेजा जिसमे मीरा बाई ने उल्लेख किया की उन्हें भक्ति करने से रोका जा रहा है, जिसके सबंध में उन्होंने तुलसीदास जी से राय मांगी। साथ ही यह भी मान्यता है की तुलसीदास जी ने मीरा बाई को राम भक्ति के लिए प्रेरित किया। मीरा बाई के द्वारा तुलसीदास जी को लिखे पत्र के सबंध में निम्न उल्लेख मिलता है -

स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।
प्रतिउत्तर में तुलसीदास जी ने मीरा बाई को जवाब दिया -
जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।


इसके उपरान्त मीरा बाई ने राम भजन भी लिखे जिनमे से एक बहुत प्रसिद्द भजन है -
पायो जी मैने राम रतन धन पायो
वस्तु अमोलिक दी मेरे सत्गुरु
किरपा कर अपनायो पायो जी मैने
जनम जनम की पुंजी पायी
जग मे साखोवायो पायो जी मैने
खर्चे ने खूटे चोर न लूटे
दिन दिन बढत सवायो -पायो जी मैने
सत कि नाव केवाटिया सत्गुरु
भवसागर तर्वायो - पायो जी मैने
मीरा के प्रभु गिरधर नागर
हर्ष हर्ष जस गायो - पायो जी मैने

मीरा बाई के काव्य में विरोध के स्वर : भक्ति कालीन काव्य में मीरा बाई का स्थान कवित्री के रूप में सर्वोच्च रहा है। जहाँ एक और श्री कृष्ण के प्रति उनका प्रेम अथाह और पूर्ण समर्पण को दर्शाता है वहीँ दूसरी और नारी की वेदना भी परिलक्षित होती है। मीरा बाई के व्यक्तित्व को जब हम जानने का प्रयत्न करते हैं तो पाते हैं की मीरा बाई कृष्ण भक्त ही नहीं उनका दृष्टिकोण पूर्णतया मानवतावाद पर भी आधारित है। मीरा श्री कृष्ण के की भक्ति में इतना डूब गयीं की उन्हें इस संसार से भी कोई विशेष लगाव नहीं रहा। वे मंदिर में बैठ कर पांवों में घुंघरू बाँध कर नाचने लग जाती। तात्कालिक समाज में नारी को विशेष अधिकार प्राप्त नहीं थे विशेषकर भक्ति में। एक नारी होकर भजन गाना, नाचना ये उच्च कुल की स्त्रियों के लिए तो मानों पूर्णतया वर्जित था। यही नहीं मीरा बाई ने सभी बंधनों को तोड़ते हुए साधुओं की संगत में रहना भी शुरू कर दिया था। उस समय की सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था इसके पक्ष में नहीं थी।

सामन्तवात व्यवस्था के प्रति मीरा का विरोध : जब उन्होंने सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के विपरीत जाकर, या कहें की उन्हें तोड़ते हुए जिस प्रकार से भक्ति की, उससे स्वाभाविक रूप से मीरा को संघर्ष भी करना पड़ा जो उनके साहित्य में भी दर्शित होता है। उन्होंने जो भी महसूस किया और अनुभव किया उसका स्वाभाविक रूप से परिचय हमें उनके पदों से प्राप्त होता है। मीरा बाई का यह अदम्य साहस श्री कृष्ण जी के आशीर्वाद के फलस्वरूप ही था की तमाम यातनाओं और पीड़ा को सहन करने के बावजूद भी उन्होंने हार नहीं मानी। धार्मिक, साहित्यिक या फिर नारी के प्रति जो भी रूढ़ियाँ थीं उनका मीरा बाई ने चित्रण किया। इस व्यवस्था के प्रति विद्रोह और विरोध का भाव तो दिखाई देता है लेकिन विशेष बात है की उनकी रचनाओं में कहीं भी हिंशा या प्रतिकार का भाव दिखाई नहीं देता है। ये कल्पना से भी परे की बात है की आज से ५०० वर्ष पहले के मध्ययुगीन समाज में स्त्रियों की क्या हालत रही होगी। उस समय एक और तो सामंतवाद का बोलबाला था वहीं दूसरी और धर्म भी रूढ़ियों, कर्मकांड और ऊंचनीच से भरा पड़ा था। नारी का कोई अस्तित्व, पहचान और अस्मिता उस समय अकल्पनीय रहा होगा। सामान्य स्त्री के स्थान पर मीरा बाई राजघराने से सबंध रखती थी तो आप स्वंय कल्पना कीजिये की उन्हें किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा होगा। तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए मीरा बाई ने अपने पदों में विरोध का स्वर अपनाया और अपनी रचनाओं में इसे दर्शाया है। सामंती व्यवस्था में आम आदमी बहुत ही वंचित और दबा हुआ था। स्त्रियों का तो और भी बुरा हाल था। मीरा बाई ने अपने काव्य में इसे प्रखर रूप से लक्षित किया है। उस समय पुरुष प्रधान समाज था जिसमे स्त्रियों का कोई दर्जा नहीं था। ना तो शाशन में और नाही ही समाज और धर्म के कार्यों में ही। नारी की असहाय व्यवस्था पर मीरा बाई लिखती हैं की सिसोदिया अगर रूठ जाता है तो मेरा क्या कर लेगा में तो हरी के गुण ही गायुंगी। इस पद के माध्यम से उन्होंने अपने ससुराल (सिसोदिया) के प्रति विरोध का भाव दर्शाया है और लोक लाज को भी नहीं मानती हूँ और में निर्भय होकर भक्ति के मार्ग का अनुसरण करुँगी।

"सीसोद्यो रूठ्यो म्हारो काई करलेसी
म्हें तो गुण गोविन्द का गास्यां, हो माई
राणा जी रूठ्यां बारो देस रखासी
हरी रूठ्या कुम्लाह्स्याँ, हो माई
लोक लाज की काण न मानूँनरभे नीसाण धुरास्याँ हो माई।" 
 
नारी के शोषण को उन्होंने अपनी रचनाओं में लिखा है। तात्कालिक राजपूत समाज में नारी का कोई विशेष स्थान नहीं था। शासन व्यवस्था में अराजकता थी और राजपूत समाज के पुरुष अक्सर ही युद्धों में व्यस्त रहते थे, आप गौर कीजिये के चित्तोड़ के युद्ध के कारण लगभग तरह हजार स्त्रियों को सामूहिक जोहर करना पड़ा था। यदि युद्ध में स्त्री का पति वीरगति को प्राप्त हो जाती तो स्त्रियों को जबरन सती करवाया जाता था। इन्ही व्यवस्थाओं के बीच मीरा बाई ने कृष्णा जी को अपना पती मान लिया। मीरा भजन करती है और भक्ति में नृत्य करती हैं। मेरा बाई ने कभी इन यातनाओं से स्वंय को भक्ति मार्ग से विलख नहीं किया। समस्त मर्यादा को तोड़ते हुए कृष्ण की भक्ति में अपना जीवन पूर्ण कर दिया। सामंतीय व्यवस्था का विरोध इस प्रकार से मीरा बाई ने किया। मीरा बाई कहती हैं की उनको सभी ने कृष्ण की भक्ति करने से मन कर दिया है फिर भी वे अपने मार्ग का ही अनुसरण करेंगी

सासरियो दुख घणा रे सासू नणद सतावै।
देवर जेठ कुटुम कबीलो, नित उठ राड़ चलावै।
राजा बरजै, राणी बरजै, बरजै सब परिवारी।
कुंवर पाटवी सो भी बरजै और सहैल्यां सारी।
पुरुष सत्ता के प्रति मीरा बाई का विरोध : मध्यकालीन समाज में पूर्णतया पुरुष प्रधान व्यवस्था थी। पुरुष ही सभी महत्वपूर्ण निर्णय लेते थे, उसमे स्त्री का कोई स्थान नहीं था। स्त्रियों का कार्य सिर्फ घर में ही था। यह भी नहीं था की ऐसा सामाजिक स्तर तक ही सिमित था। धार्मिक क्षेत्र में भी स्त्रियों का कोई स्थान नहीं था। धार्मिक आयोजनों और मंदिरों में स्त्रियों को कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे। भक्तिकालीन कवियों की बात की जाय तो उनमे भी अधिकांश पुरुष कवी ही रहे हैं। स्त्री कवी का धार्मिक क्षेत्र में कोई योगदान नहीं रहा है, क्योंकि उनको इसकी अनुमति नहीं थी। तुलसी दास और कबीर का भी अध्ययन करें तो आप पाएंगे की उन्होंने नारी का विरोध किया है। उन्होंने नारी को भक्ति में बाधक, कई फनों वाली, ठगिनी और प्रभु की प्राप्ति में बाधक माना है। मीरा बाई ने अपने काव्य में इन मान्यताओं का विरोध किया। स्त्री के प्रति भक्ति में जो तिरस्कार था उसका उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से उत्तर दिया।मीरा बाई ने सभी मान्यताओं को तोड़ते हुए भक्ति मार्ग को अपनाया।
समाज के नकारात्मक रूप का विरोध : मीरा बाई ने समाज के नकारात्मक पक्ष का भी विरोध किया। मीरा बाई को अपने परिवार और समाज से भी विरोध का सामना करना पड़ा। समस्त संसार भी यदि मीरा को रोकना चाहा फिर भी उन्होंने मीरा को प्रभावित नहीं किया। लोगों ने मीरा को बावरी और ना जाने क्या क्या कहा फिर भी मीरा बाई ने भक्ति मार्ग पर चलना जारी रखा। आप गौर कीजिये की जहाँ मीरा को शासन से तिरस्कार मिला वही समाज में भी उनके स्त्री होने के कारन विरोध हुआ।
राणा जी तें जहर दियो मैं जाणी

जैसे कंचन दहत अगिन में, निकसत बाराबाणी।
लोकलाज कुलकाण जगत की, दी बहाय ज्यूँ पाणी।
अपने घर का परदा कर लौं, मैं अबला बौराणी।।
तरकस तीर लग्यो मेरे हियरे, गरक गयो सरकाणी। यहाँ मीरा बाई कहती है की उन्हें भक्ति मार्ग से विचलित करने के लिए एक और राणा जी के द्वारा उन्हें जहर दिया गया वही दूसरी और समाज में भी उन्हें लोक लाज का हवाला दिया गया, लेकिन मीरा बाई ने इसे पानी की तरह बहा दिया अर्थात उनकी कोई परवाह नहीं की। उन्होंने अपने पति की निशानियों त्याग कर दिया और लिखा

हार सिंगार सभी ल्यौ अपना, चूड़ी कर दी पटकी।
मेरा सुहाग अब मोकूं दरसा, और न जानें घट की।
महल किला राणा मोहि न चाहिए, सारी रेशम पट की।
हुई दीवानी मीरा डोलें, केस लटा सब छिटकी। मीरा बाई कहती हैं की उन्होंने हार सिंगार को छोड़ दिया है। सभी विरोध के बावजूद मीरा बायीं लिखती हैं की वे किसी राणा के रूठने का विचार नहीं करेंगी और हरी का ही गुणगान करेंगी गोविंद का गुण गास्यां।
राणोंजी रूसैला तो गांम राखैला, हरि रूठ्यां कुम्लास्याँ।
राम नाम की जहाज चलास्यां, भव सागर तिर जास्यां। लोगो को उत्तर देती हुयी कहती है की लोगों के जो भी विचार मेरे बारे में रहे हों मैंने तो कृष्ण को मोल ले लिया है, लोग क्या कहते हैं मुझे इसका फर्क नहीं पड़ता है।

माई मैं तो लियो है सांवरिया मोल।
कोई कहै सोंधो कोई कहै महंगो, मैं तो लियौ है हीरा सूं तौल।
कोई कहै हलको कोई कहै भारी, मैं तो लियो री ताखड़िया तौल।
कोई कहै छाने कोई कहे बोडे, मैं तो लियो री बाजता ढोल।
कोई कहै घटतौ कोई कहै बढतो, मैं तो लियो है बराबर तौल।
कोई कहे कालो कोई कहे गोरो, मैं तो देख्यो है घूँघट पट खोल। मीरा कहती हैं की में किसी के रोकने से रुकने वाली नहीं हूँ। मैंने तो कुल की कानि / मर्यादा को मैंने त्याग कर दिया है और मैंने सबकुछ हरी को ही मान लिया है।

बरजी मैं काहूकी नाहिं रहूं।
सुणो री सखी तुम चेतन होयकै मनकी बात कहूं।।
साध संगति कर हरि सुख लें जगसूं दूर रहूं।
तन धन मेरो सबही जावो भल मेरो सीस लहूं
मन मेरो लागो सुमरण सेती सबका मैं बोल सहूं।
मीरा के प्रभु हरि अविनासी सतगुर सरण गहूं।
आगे मीरा बाई कहती हैं की मैं किसी के रोकने से रुकने वाली नहीं हूँ।
रूढ़ियों का विरोध : मीरा बाई के पदों में सती प्रथा का विरोध भी रूढ़ियों का ही विरोध है जो दर्शाता है की उनका मानवतावादी दृष्टिकोण रहा है। मीरा बाई के पति के देहांत हो जाने पर कहा की हम भजन करेंग सती नहीं होउंगी। परिवार के लोगों को मीरा बायीं का यह कदम अच्छा नहीं लगा और उन्होंने मीरा बाई को समझाया की वे मंदिरों में नाचना छोड़ दे। उन्हें जहर का प्याला देकर मारने की कोशिश भी की गयी। मीरा बाई ने इन यातनाओं के कारन से ही हर छोड़ दिया और वृन्दावन में जाकर कृष्ण की भक्ति करने में अपना समय व्यतीत किया। मीरा बाई ने पर्दा भी छोड़ दिया और घोषित किया की वे ईश्वर के प्रति जवाबदेह हैं समाज के प्रति नहीं। उन्होंने पर्दा और काले वस्त्रों का त्याग करके साधु संतों के साथ रहकर भक्ति को चरम पर ले गयीं।
नारी के शोषण का विरोध : मीरा बाई ने स्त्रियों के शोषण का भी विरोध किया और कहा की वे किसी परदे प्रथा को नहीं मानती हैं और उनका सुहाग अमर है। मध्यकाल में एक और जहाँ नारी का शोषण किया जा रहा था वाही मीरा बाई ने स्त्री की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अपने काव्य और भक्ति को आधार मानकर प्रचलित समस्त नारी विरोधी मान्यताओं का एक तरह से विरोध किया उन्होंने लिखा की राणा जी मुझे बदनामी का कोई डर नहीं हैं में तो कृष्ण को अपना सबकुछ मानती हूँ। उन्होंने लिखा की उन्हें अब कोई लाज का डर नहीं है।

तेरो को नहिं रोकणहार मगन हो मीरां चली।।
लाज सरम कुलकी मरजादा सिरसें दूर करी।
मान अपमान दो धर पटके निकसी ग्यान गली।।
ऊंची अटरिया लाल किंवडिया निरगुण सेज बिछी।
पंचरंगी झालर सुभ सोहै फूलन बूल कली।।
बाजूबंद कडूला सोहे सिंदूर मांग भरी।
सुमिरण थाल हाथ में लीन्हों सोभा अधिक खरी।।
सेज सुखमणा मीरा सेहै सुभ है आज घरी।
तुम जा राणा घर आपणे मेरी थांरी नाहिं सरी।
मीरा बाई ने लिखा की यदि उनकी भक्ति में कोई बाधक बनता है वे समस्त मान्यताओं का विरोध करती हुयी कृष्ण भक्ति ही करेंग।

मीरा के काव्य की विशेषताएं Meera Bai Ke Kavy Ki Vishestaayen Hindi Me:-

मीरा का काव्य लयात्मक और गेय है अर्थात इसे गाया जा सकता है।
कृष्ण के प्रति उनकी भक्ति अनन्य और पूर्ण समर्पण को दर्शाती है।
मीरा बाई भगवान् कृष्ण की उपासक हैं और उनके पदों में सगुन इश्वर का परिचय प्राप्त होता है।
मीरा के काव्य में राजस्थानी, ब्रज, पंजाबी और गुजराती भाषा के शब्दों का उपयोग किया गया है।
मीरा के काव्य में कहीं भी पांडित्य प्रदर्शन नहीं दिखाई देता है।
अनावश्यक छंद, अलंकारों का उपयोग नहीं किया गया है।
मीरा के काव्य में प्रधान रूप से माधुर्य भाव दिखाई देता है।
मीरा बाई की भक्ति में पूर्ण समर्पण, सगुन इश्वर, नवधा भक्ति के गुन दिखाई देती है।
मीरा बाई के काव्य में श्रींगार रस के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का चित्रण प्राप्त होता है।
मीरा का काव्य गीति काव्य का उत्कर्ष उदाहरण है।
मीरा के काव्य में उच्च आध्यात्मिक अनुभूति प्रदर्शित होती है।
भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति, प्रेम की ओजस्वी धारा का चित्रण प्राप्त होता है।
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।
छांड़ि दई कुल की कानि कहा करै कोई।
संतन ढिग बैठि बैठि लोक लाज खोई।
अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
दधि मथि घृत काढ़ि लियौ डारि दई छोई।
भगत देखि राजी भई, जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरिधर तारो अब मोई।

मीरा की भक्ति : विरह वेदना और अनंत प्रेम की प्रतिक हैं कृष्णा। कृष्णा की प्रेम दीवानी है मीरा की भक्ति जो दैहिक नहीं आध्यात्मिक भक्ति है। मीरा ने अपने भजनों में कृष्ण को अपना पति तक मान लिया है। यह भक्ति और समर्पण की पराकाष्ठा है। मीरा की यह भक्ति उनके बालयकाल से ही थी। मीरा की भक्ति कृष्ण की रंग में रंगी है। मीरा की भक्ति में नारी की पराधीनता की एक कसक है जो भक्ति के रंग में और गहरी हो गयी है। मीरा ने कृष्ण को अपना पति मान लिया और अपना मन और तन कृष्ण को समर्पित कर दिया। मीरा की एक एक भावनाएं भी कृष्ण के रंग में रंगी थी। मीरा पद और रचनाएँ राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं और मीरा के पद हृदय की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीराबाई के पद अनमोल संपत्ति हैं। मीरा के पदों में अहम् को समाप्त करके स्वयं को ईश्वर के प्रति पूर्णतया मिलाप है। कृष्ण के प्रति उनका इतना समर्पण है की संसार की समस्त शक्तियां उसे विचलित नहीं कर सकती है। मीरा की कृष्ण भक्ति एक मिशाल है जो स्त्री प्रधान भक्ति भावना का उद्वेलित रूप है।

इस संसार से सभी वैभव छोड़कर मीरा ने श्री कृष्ण को ही अपना सब कुछ माना। राजसी ठाठ बाठ छोड़कर मीरा कृष्ण भक्ति और वैराग्य में अपना वक़्त बिताती हैं। भक्ति की ये अनूठी मिशाल है। मीरा के पदों में आध्यात्मिक अनुभूति है और इनमे दिए गए सन्देश अमूल्य हैं। मीरा के साहित्य में राजस्थानी भाषा का पुट है और इन्हे ज्यादातर ब्रिज भाषा में रचा गया है।

मीरा जी ने विभिन्न पदों व गीतों की रचना की| मीरा के पदों मे ऊँचे अध्यात्मिक अनुभव हैं| उनमे समाहित संदेश और अन्य संतो की शिक्षा मे समानता नजर आती हैं| उनके प्रप्त पद उनकी अध्यात्मिक उन्नति के अनुभवों का दर्पण हैं| मीरा ने अन्य संतो की तरह कई भाषाओं का प्रयोग किया है जैसे हिन्दी, गुजरती, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, अरबी, फारसी, मारवाड़ी, संस्कृत, मैथली और पंजाबी।
भावावेग, भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति, प्रेम की ओजस्वी प्रवाहधारा, प्रीतम वियोग की पीड़ा की मर्मभेदी प्रखता से अपने पदों को अलंकृत करने वाली प्रेम की साक्षात् मूर्ति मीरा के समान शायद ही कोई कवि हो।

मीरा के भजन और पद आज भी लोगों की जुबान पर हैं जो ज्यादा क्लिष्ट ना होकर भाव प्रधान हैं। मीरा के पदों में वे स्वंय को श्री कृष्ण की उपासिका, दासी और भक्त मानती हैं। मीरा बाई की प्रमुख रचनाये हैं
नरसी का मायरा
गीत गोविंद टीका
राग गोविंद
राग सोरठ के पद मीरा बाई कैसे बन गयी कृष्ण की अनन्य भक्त : मीरा बाई ने किसोरावस्था से अपनी मृत्यु तक कृष्ण को ही अपना सब कुछ माना। ऐसी मान्यता है की बचपन में जब पड़ोस में किसी के यहाँ बरात आई तो मीरा बाई भी बरात देखने के लिए अन्य लोगों के साथ छत पर गयी और अपनी माता से पूछा की दूल्हा कौन है उन्हें बताएं। तब उनकी माँ ने श्री कृष्ण की मूर्ति की और इशारा करके बताया की वही दूल्हा है। तब से मीरा के बाल मन में श्री कृष्ण के प्रति दुल्हे का भाव पैदा हो गया जो आ जीवन उनके साथ रहा। महज आठ वर्ष की आयु में ही उन्होंने कृष्ण से मन में विवाह कर लिया था। वे अक्सर रात को मंदिर में बैठी रहती और कृष्ण के भजन गाती रहती। लोगों से नजर बचा कर मीरा बाई शहर में चल रहे कीर्तन में भी पहुँच जाती थी।

क्या मीरा बाई राम भक्त थी : मीरा बाई के लगभग सभी पद श्री कृष्ण की भक्ति को ही समर्पित हैं और उन्होंने बचपन से लेकर मृत्यु तक श्री कृष्ण को ही सब कुछ माना था। जहाँ तक राम भक्ति का प्रश्न है तो ऐसी मान्यता है की जब मीरा बाई तुलसीदास जी के सम्पर्क में आयीं तो उनके कहने पर ही उन्होंने "पायो जी मैंने राम रतन धन पायो " की रचना की थी। इस प्रकार से उनका इश श्री कृष्ण जी ही रहे हैं। वे अपने पद में बताती हैं की

मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।
छांड़ि दई कुल की कानि कहा करै कोई।
संतन ढिग बैठि बैठि लोक लाज खोई।
अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
दधि मथि घृत काढ़ि लियौ डारि दई छोई।
भगत देखि राजी भई, जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरिधर तारो अब मोई।
पायो जी मैंने नाम रतन धन पायो।
बस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरु, किरपा कर अपनायो।
जनम जनम की पूंजी पाई, जग में सभी खोवायो।
खरचै नहिं कोई चोर न लेवै, दिन-दिन बढ़त सवायो।
सत की नाव खेवहिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख-हरख जस पायो।।

क्या मीरा भाई भोजराज से विवाह करना चाहती थी : मीरा बाई ने बचपन से ही श्री कृष्ण को अपना सब कुछ मान लिया था और अपने मन में उनसे विवाह भी कर लिया था। वे श्री कृष्ण को अपना पति मानती थी और विवाहित होने के कारन वे किसी अन्य से विवाह नहीं करना चाहती थी। उस समय पुरुष प्रधान समाज था और पित्रसत्तात्मक परिवार होने के कारन विवाह के योग्य होने की उम्र में उनका विवाह उनकी इच्छा के विरुद्ध १५७३ में मेवाड़ के राजकुमार भोजराज के साथ कर दिया गया था। रोचक बात है की मीराबाई ने विवाह से साफ़ मन कर दिया था और वे अक्सर रोती रहती थीं। शादी के समय भी वे अपने घर से कृष्ण जी की मूर्ति अपने साथ ससुराल लेकर गयी थीं।

पति की मृत्यु के बाद क्या हुआ मीरा बाई के साथ : पति की मृत्यु के बाद मीरा बाई की भक्ति अधिक बढ़ गयी। वे मंदिर में साधू सन्यासियों के साथ घंटों बैठी रहती और कृष्ण की भक्ति में लीन रहती। अक्सर प्रेम में डूबी मीरा नाचने लग जाती। परिवार के सदस्यों को यह कतई पसंद नहीं था और वे इसे स्वंय की इज्जत पर धब्बा मानते थे। इसी कारन उन्हें जहर दिया गया। मीरा बाई ने सहर्ष जहर पिया और ससुराल को छोड़ दिया। लोग जहाँ उनके मरने का इन्तजार कर रहे थे वही भगवान् श्री कृष्ण के आशीर्वाद से जहर भी मीरा के लिए अमृत बन गया। ऐसी मान्यता है की इस घटना के बाद उन्होंने वृन्दावन में जाकर प्रभु की भक्ति की जिसे लोगों के द्वारा खूब मान सम्मान दिया गया।

मीरा बाई की मृत्यु कैसे हुयी : ऐसी मान्यता है की पुरे जीवन मीरा बाई ने कृष्ण जी की भक्ति की और अपने अंतिम समय तक वे श्री कृष्ण जी की भक्ति में ही लीन रही। मृत्यु के समय वे कृष्ण जी की मूरत में ही समां गयी थी। द्वारका में लोगों के सामने ही वे भक्ति में लींन होकर कृष्ण जी मूर्ति में समां गयी थी।

क्या पूर्व जन्म में मीरा बाई गोपी थी : मान्यता है की पूर्व जन्म में मीरा बाई राधा जी की एक सहेली रही थी और जब श्री कृष्ण जी का विवाह हुआ तो वे बहुत व्यथित हो गयी। श्री कृष्ण जी के प्रति इसी तड़प के कारन उसकी मौत हो गयी और वे ही अगले जन्म में 'मीरा बाई' के रूप में प्रकट हुयी थी।

क्या मीरा अकबर से मिली थीं : मीरा बाई की भक्ति की चर्चा समस्त उत्तर भारत में थी। मीरा बाई की भक्ति की चर्चा जब मुग़ल शासक अकबर के पास पहुंची तो वे भी इससे बहुत प्रभावित हुए और मीरा बाई से मिलने का फैसला किया। अकबर कला के प्रेमी थे और कटटर इस्लाम के पक्ष में नहीं थे। वे हर धर्म का सम्मान करते थे। लेकिन मीरा बाई के पति और अकबर के रिश्ते मधुर नहीं थे तो उन्होंने दरबारी गायक तानसेन की मदद से आम जन का वेश बनाकर मंदिर पहुंचे जहाँ पर मीरा अक्सर कृष्ण भक्ति किया करती थी। मीरा के भजन सुनाने के बाद अकबर खड़े हुए और कीमती रत्नों की माला मीरा को दी। मीरा ने वो माला कृष्ण जी की मूर्ति को अर्पित कर दी। जब लोगों ने देखा की एक आम आदमी इतना कीमती उपहार कैसे दे सकता है तो परिस्थिति को भांप कर अकबर और तानसेन वहां से चले गए। जब इसकी खबर भोजराज को मिली तो उन्होंने मीरा को ही इस सब के लिए दोषी माना और कुल के विपरीत जाने के लिए उन्हें कई यातनाएं दी। व्यथित मीरा नदी में कूद कर जान देने वाली ही थी की कृष्ण जी प्रकट हुए और उन्हें द्वारका जाने को कहा।

मीरा की भक्ति : विरह वेदना और अनंत प्रेम की प्रतिक हैं कृष्णा। कृष्णा की प्रेम दीवानी है मीरा की भक्ति जो दैहिक नहीं आध्यात्मिक भक्ति है। मीरा ने अपने भजनों में कृष्ण को अपना पति तक मान लिया है। यह भक्ति और समर्पण की पराकाष्ठा है। मीरा की यह भक्ति उनके बालयकाल से ही थी। मीरा की भक्ति कृष्ण की रंग में रंगी है। मीरा की भक्ति में नारी की पराधीनता की एक कसक है जो भक्ति के रंग में और गहरी हो गयी है। मीरा ने कृष्ण को अपना पति मान लिया और अपना मन और तन कृष्ण को समर्पित कर दिया। मीरा की एक एक भावनाएं भी कृष्ण के रंग में रंगी थी। मीरा पद और रचनाएँ राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं और मीरा के पद हृदय की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीराबाई के पद अनमोल संपत्ति हैं। मीरा के पदों में अहम् को समाप्त करके स्वयं को ईश्वर के प्रति पूर्णतया मिलाप है। कृष्ण के प्रति उनका इतना समर्पण है की संसार की समस्त शक्तियां उसे विचलित नहीं कर सकती है। मीरा की कृष्ण भक्ति एक मिशाल है जो स्त्री प्रधान भक्ति भावना का उद्वेलित रूप है।

इस संसार से सभी वैभव छोड़कर मीरा ने श्री कृष्ण को ही अपना सब कुछ माना। राजसी ठाठ बाठ छोड़कर मीरा कृष्ण भक्ति और वैराग्य में अपना वक़्त बिताती हैं। भक्ति की ये अनूठी मिशाल है। मीरा के पदों में आध्यात्मिक अनुभूति है और इनमे दिए गए सन्देश अमूल्य हैं। मीरा के साहित्य में राजस्थानी भाषा का पुट है और इन्हे ज्यादातर ब्रिज भाषा में रचा गया है।

1 टिप्पणी

  1. मीराबाई ने रूढ़ियों का विरोध किस प्रकार किया विस्तार से लिखो ? इस प्रश्न का उत्तर बताओ प्लीज