रहना नहीं देस बेगाना है भजन
कबीर हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोए,
ऐसी करनी कर चलो, कि हम हँसे जग रोए,
कबीर खड़ा बाज़ार में सबकी माँगे खैर,
ना किसी से दोस्ती तो ना किसी संग बैर,
अब रहना नहीं देस बेगाना है,
यहाँ रहना नहीं देस बेगाना है,
बेगाना है, यह दीवाना है,
यहाँ रहना नहीं देस बेगाना है,
यह सँसार कागज़ की पुड़िया,
इसे छाँट लगे घुल जाना हैं,
अब रहना नहीं देस बेगाना है,
यह संसार काँटों की बेल है,
यहाँ उलझ उलझ मर जाना है,
अब रहना नहीं देस बेगाना है,
यह संसार फूस की टपली,
इसे ताप लगे जल जाना है,
अब रहना नहीं देस बेगाना है,
कहत कबीरा सुनो रे साधो,
आखिर सब को जाना है,
अब रहना नहीं देस बेगाना है,
इस भजन का हिंदी भाव : यह भजन कबीर साहेब की वाणी को दर्शाता है जिसमें साहेब का उद्देश्य जन को यह समझाना है की यह जगत जीव का स्थाई घर नहीं है, यह अपना नहीं बल्कि बेगाना है। यह संसार कागज की पुडिया है जिसे पानी की बूंद लगने पर गल जाना है, भाव है की यह विश्वाश के लायक नहीं है, स्थाई नहीं है। इस संसार में माया के जनित जितने भी आचार और व्यवहार हैं वे सभी काँटों के समान है जिनमे उलझ उलझ कर जीव को मर जाना है। यह संसार फूंस की (घास फूंस) की टपली (अस्थाई घर- छान/मकान) है जिसे ताप लगने पर जल जाना है। कबीर साहेब की वाणी है की एक रोज सभी को जाना है कोई यहाँ स्थाई रूप से रहने वाला नहीं है। वस्तुतः यह अज्ञान का भ्रम की हम हैं और हम सदा ही रहेंगे यह माया जनित है। गुरु के ज्ञान के प्रकाश में ही यह भ्रम दूर होने वाला है। जब अहम् समाप्त होता है तभी उस परम सत्ता का ज्ञान / बोध होता है। यह देश किसी का अपना नहीं है एक रोज सभी को जाना है, इसलिए इसे अपना घर मत समझो। एक रोज मालिक के घर जाना है जहां पर जीव के कर्मों का हिसाब होना है।
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Author - Saroj Jangir
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