
भोले तेरी भक्ति का अपना ही
छका सो थका फिर देह धारे नहीं,
कर्म और कपट सब दूर किया।
जिने स्वास उस्वास का प्रेम प्याला पिया,
नाम दरियाव तहाँ पेसी जिया।
चढ़ी मथवाल हुआ मन साबिता,
फटक ज्यूं फेर नहीं फुट जावे,
कहे कबीर जिने बास निर्भय किया।
तो बहुरी संसार में नहीं आवें।
इस घट में ओघट पाविया, ओघट माहीं घाट,
रंगहि ते रंग ऊपजे, सब रंग देखा एक,
कौन रंग है जीव का, ताकर करहु विवेक।
थारा रंग महल में, अजब शहर में, आजा रे हंसा भाई,
निरगुण राजा पे सिरगुण सैज बिछाई,
सिरगुण सैज बिछाई।
हाँ रे भाई, उणा देवलिया में देव नाहीं,
झालर कूटे गरज कसी।
हाँ रे भाई, उणा मंदरियाँ में देव नाहीं,
झालर कूटे गरज कसी।।
थारा रंग महल में, अजब शहर में, आजा रे हंसा भाई,
हां रे भाई, बेहद की तो गम नाहीं,
नुगरा से सैन कसी,
थारा रंग महल में, अजब शहर में, आजा रे हंसा भाई,
निरगुण राजा पे सिरगुण सैज बिछाई,सिरगुण सैज बिछाई।
हां रे भाई, अमृत प्याला भर पावो,
भाईला से भ्रांत कसी।
थारा रंग महल में, अजब शहर में, आजा रे हंसा भाई,
निरगुण राजा पे सिरगुण सैज बिछाई,सिरगुण सैज बिछाई।
हां रे भाई, कहै कबीर विचार,
सैण माही सैण मिली।
थारा रंग महल में, अजब शहर में, आजा रे हंसा भाई,
थारा रंग में अजब शहर में । Thara Rang Mahal Mein Ajab Shahar mein।Kabir bhajan Prahlad singh Tipanya
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Author - Saroj Jangir
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