चलि सुंदरी बोली बृन्दावन भजन

चलि सुंदरी बोली बृन्दावन भजन

चलि सुंदरी बोली बृन्दावन।
कामिनि कंठ लागि किनि राजहि,
तू दामिनि मोहन नौतन घन।
कंचुकी सुरंग विविधि रँग सारी,
नख युग ऊन बने तेरे तन।
ये सब उचित नवल मोहन कौं,
श्रीफल कुच योबन आगम धन।।
अतिशय प्रीति हुती अन्तर गति,
जय श्रीहित हरिवंश चली मुकलित मन।
निबिड निकुंज मिले रस सागर,
जीत शत रतिराज सुरत रन।।

इस पद में एक सुंदर स्त्री वृंदावन में प्रवेश करती है और कहती है कि हे कामिनी, तुमने अपने गले में राजा (कृष्ण) को क्यों धारण किया है? तुम बिजली की तरह हो और मोहन (कृष्ण) नए बादल के समान हैं। तुम्हारी कंचुकी (ब्लाउज) सुंदर रंगों से सजी है, और विविध रंगों की साड़ी पहने हुए हो। तुम्हारे नाखूनों की जोड़ी तुम्हारे शरीर को अलंकृत कर रही है। ये सभी आभूषण और श्रृंगार नवल मोहन (कृष्ण) के लिए उपयुक्त हैं। तुम्हारे श्रीफल (स्तन) और यौवन की संपत्ति उनके लिए ही है। अत्यधिक प्रेम की अंतरंग स्थिति में, श्री हित हरिवंश कहते हैं कि वह (सुंदरी) मुग्ध मन से चली गई। घने निकुंज में रस सागर (कृष्ण) से मिलन हुआ, जो शत-शत कामदेवों को भी पराजित करने वाली सुरत (प्रेम क्रीड़ा) की रणभूमि है।
 

चलि सुंदरी बोली वृन्दावन | मान | श्री हित चतुरासी | श्री हित अम्बरीष जी

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