कबीर इस संसार को समझाऊँ कै बार
कबीर इस संसार को, समझाऊँ कै बार।
पूँछ जु पकड़ै भेड़ की, उतर्या चाहै पार॥
Kabir Is Sansaar Ko, Samjhaau Ke Baar,
Punch Ju Pakade Bhed Ki, Utaraya Chahe Paar.
कबीर इस संसार को : इस संसार को
समझाऊँ कै बार : कितनी बार समझाऊ.
पूँछ जु पकड़ै भेड़ की : जो लोग भेड़ की पूंछ कर.
उतर्या चाहै पार : वह भव से पार होना चाहता है.
कबीर इस संसार को : इस जगत को,
समझाऊँ कै बार : कितनी बार समझाऊं, कैसे समझाऊं.
पूँछ जु : जो पूंछ पकड़ते हैं.
पकड़ै : पकड़ता है.
भेड़ की : भेड़ की.
उतर्या : उतरना चाहता है.
चाहै पार : चाहता है.
कबीर साहेब कहते हैं मैं इस जगत को कैसे/कितनी बार समझाऊं ? इस जगत को समझाना कठिन है. यह जगत भेड़ की पूंछ पकड़ कर भव सागर पार करना चाहता है. भेड़ की पूंछ पकड़ लेने से भाव है की वह कर्मकांड और बाह्य जगत की भक्ति के माध्यम से इश्वर को प्राप्त करना चाहता है. सच्ची भक्ति अलग है और दिखावे की भक्ति अलग होती है. लोग देखा देखी में कार्य करते हैं. शास्त्रीय भक्ति, कर्मकांड आदि भेड़ की पूंछ पकड़ने के समान ही है. अतः हृदय से भक्ति करना महत्त्व रखता है, दिखावे की भक्ति से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता है.
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