कबीर दास के 10 बेहतरीन दोहे हिंदी अर्थ सहित जो सीखाते हैं जीवन की राह Most Famous Kabir Dohe Hindi Arth Sahit
Kabir Ke Dohe With Hindi Meaning: संत कबीरदास महान दार्शनिक, विचारक और समाज को दिशा देने वाले रहे हैं। उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम धर्म में व्याप्त कुरीतियों का विरोध कर उनका तार्किक खंडन किया। उनके विचार यदि जीवन में उतार लिए जाएँ तो व्यक्तिगत जीवन सफल हो जाता है। उनके अमूल्य विचार जो दोहों के रूप में हैं हमारे लिए अमूल्य हैं। कबीर दास जी के दोहों की भाषा सरल है जिसे आसानी से समझा जा सकता है। वर्तमान समय में भी कबीर साहेब के विचार प्रासंगिक हैं, तो आइये जान लेते हैं कबीर साहेब के 10 दोहे और उनका अर्थ हिंदी में।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
हिंदी अर्थ : धार्मिक किताबें और शास्त्र पढ़कर जगत के लोग मरे जा रहे हैं लेकिन कोई भी वास्तविक पंडित/ग्यानी ना हो पाया है। जिसने भी ढाई अक्षर प्रेम के सीख लिए हैं वही ग्यानी है। कबीरदास जी के इस दोहे में उन्होंने सच्चे ज्ञान और प्रेम के महत्व को स्पष्ट किया है। वह कहते हैं कि संसार में कितने ही लोग धार्मिक ग्रंथों और शास्त्रों का अध्ययन करके अपना जीवन व्यतीत कर लेते हैं, लेकिन वे वास्तविक ज्ञान को प्राप्त नहीं कर पाते। उनके अनुसार, केवल पुस्तकों का अध्ययन करना ही ज्ञान का मापदंड नहीं हो सकता। सच्चा ज्ञान वही है जो प्रेम की गहराई को समझे और उसे अपने जीवन में उतारे। "ढाई आखर प्रेम" का मतलब है कि प्रेम ही ऐसा तत्व है जो व्यक्ति को सच्चा ज्ञानी और पंडित बना सकता है। इस प्रकार, कबीर प्रेम को जीवन का असली सार मानते हैं, जो हर तरह के ज्ञान से ऊपर है।
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पांय
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय।
अर्थ- कबीर साहेब के इस दोहे का अर्थ है की गुरु/सतगुरु और ईश्वर दोनों ही सामने खड़े हैं, ऐसे में पहले किसके पावों को छुआ जाय, नमन किया जाय ? मैं गुरु साहेब को पहले नमन करता हूँ क्योंकि उनके माध्यम से ही ईश्वर की प्राप्ति हुई है। आशय है की गुरु का स्थान ईश्वर से भी अधिक महान है।
कबीरदास जी इस दोहे में गुरु के महत्व को सर्वोपरि बताते हैं। उनके अनुसार, गुरु और ईश्वर दोनों एक साथ खड़े हों, तो पहले गुरु के चरण स्पर्श करने चाहिए। क्योंकि गुरु ही वह माध्यम हैं जिन्होंने ईश्वर का ज्ञान और मार्ग दिखाया है। गुरु के बिना ईश्वर की प्राप्ति असंभव है, इसलिए गुरु का स्थान सबसे ऊंचा और महान है। गुरु न केवल जीवन का सही मार्ग दिखाते हैं, बल्कि ईश्वर से साक्षात्कार भी करवाते हैं। इसीलिए कबीर कहते हैं कि गुरु का आदर और सम्मान सर्वोपरि है, क्योंकि गुरु के बिना ईश्वर तक पहुंचना कठिन संभव नहीं है।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय।
अर्थ- कबीर साहेब के इस दोहे का अर्थ है की गुरु/सतगुरु और ईश्वर दोनों ही सामने खड़े हैं, ऐसे में पहले किसके पावों को छुआ जाय, नमन किया जाय ? मैं गुरु साहेब को पहले नमन करता हूँ क्योंकि उनके माध्यम से ही ईश्वर की प्राप्ति हुई है। आशय है की गुरु का स्थान ईश्वर से भी अधिक महान है।
कबीरदास जी इस दोहे में गुरु के महत्व को सर्वोपरि बताते हैं। उनके अनुसार, गुरु और ईश्वर दोनों एक साथ खड़े हों, तो पहले गुरु के चरण स्पर्श करने चाहिए। क्योंकि गुरु ही वह माध्यम हैं जिन्होंने ईश्वर का ज्ञान और मार्ग दिखाया है। गुरु के बिना ईश्वर की प्राप्ति असंभव है, इसलिए गुरु का स्थान सबसे ऊंचा और महान है। गुरु न केवल जीवन का सही मार्ग दिखाते हैं, बल्कि ईश्वर से साक्षात्कार भी करवाते हैं। इसीलिए कबीर कहते हैं कि गुरु का आदर और सम्मान सर्वोपरि है, क्योंकि गुरु के बिना ईश्वर तक पहुंचना कठिन संभव नहीं है।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
हाथों में माला के फिराने से कोई लाभ नहीं होने वाला है, यदि कोई मन से इश्वर की भक्ति ना करे, इसलिए कबीर साहेब का कथन है की हाथों की माला को फिराने के कोई ओचित्य नहीं है, इसे छोड़कर मन के मनके को फिराने से ही लाभ होने वाला है। आशय है की भक्ति सच्चे मन से की जाय तो ही सार्थक है, आडम्बर और कर्मकांड से कोई लाभ नहीं होने वाला है।
कबीरदास जी इस दोहे में कहते हैं कि केवल बाहरी आडंबर और कर्मकांडों से ईश्वर की सच्ची भक्ति संभव नहीं है। यदि कोई व्यक्ति वर्षों तक हाथ में माला लेकर जप करता रहे, लेकिन उसके मन में सच्ची श्रद्धा और भक्ति न हो, तो उसका कोई लाभ नहीं होता, उसकी भक्ति निर्थक होती है। माला फेरने से ज्यादा महत्वपूर्ण है मन का सुधार और उसकी शुद्धि। जब तक मन को ईश्वर की ओर नहीं मोड़ा जाता, तब तक भक्ति निरर्थक है। इसलिए कबीरदास जी ने सुझाव दिया कि बाहरी माला छोड़कर, मन के मोतियों को फेरना चाहिए, क्योंकि सच्ची भक्ति मन से होती है, न कि केवल बाहरी कर्मकांडों से।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
हाथों में माला के फिराने से कोई लाभ नहीं होने वाला है, यदि कोई मन से इश्वर की भक्ति ना करे, इसलिए कबीर साहेब का कथन है की हाथों की माला को फिराने के कोई ओचित्य नहीं है, इसे छोड़कर मन के मनके को फिराने से ही लाभ होने वाला है। आशय है की भक्ति सच्चे मन से की जाय तो ही सार्थक है, आडम्बर और कर्मकांड से कोई लाभ नहीं होने वाला है।
कबीरदास जी इस दोहे में कहते हैं कि केवल बाहरी आडंबर और कर्मकांडों से ईश्वर की सच्ची भक्ति संभव नहीं है। यदि कोई व्यक्ति वर्षों तक हाथ में माला लेकर जप करता रहे, लेकिन उसके मन में सच्ची श्रद्धा और भक्ति न हो, तो उसका कोई लाभ नहीं होता, उसकी भक्ति निर्थक होती है। माला फेरने से ज्यादा महत्वपूर्ण है मन का सुधार और उसकी शुद्धि। जब तक मन को ईश्वर की ओर नहीं मोड़ा जाता, तब तक भक्ति निरर्थक है। इसलिए कबीरदास जी ने सुझाव दिया कि बाहरी माला छोड़कर, मन के मोतियों को फेरना चाहिए, क्योंकि सच्ची भक्ति मन से होती है, न कि केवल बाहरी कर्मकांडों से।
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।
सभी व्यक्ति दिखावे की भक्ति करते हैं जिसका खंडन कबीर साहेब करते हैं और कहते हैं की मन में विरक्ति और भक्ति भाव बिरला ही अपना सकता है। तन से सभी जोगी/योगी हो जाते हैं लेकिन मन से कोई बिरला ही भक्त बन पाता है। सम्पूर्ण सिद्धियां सहज ही प्राप्त हो जाती हैं यदि कोई मन से भक्ति करे
कबीरदास जी इस दोहे में दिखावे की भक्ति और सच्ची आंतरिक भक्ति के अंतर को स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि बाहरी रूप से योगी बनना आसान है, भगवे वस्त्र पहनकर और तपस्वी का दिखावा करना सरल है, लेकिन मन को योगी बनाना बहुत कठिन है। केवल वही व्यक्ति सच्ची भक्ति कर पाता है, जो अपने मन को संसार से विरक्त कर, ईश्वर की ओर समर्पित करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए सारी सिद्धियां और आंतरिक शांति सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। कबीर साहेब का संदेश है कि सच्ची भक्ति मन से की जाती है, न कि केवल शरीर और बाहरी आडंबर से।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।
सभी व्यक्ति दिखावे की भक्ति करते हैं जिसका खंडन कबीर साहेब करते हैं और कहते हैं की मन में विरक्ति और भक्ति भाव बिरला ही अपना सकता है। तन से सभी जोगी/योगी हो जाते हैं लेकिन मन से कोई बिरला ही भक्त बन पाता है। सम्पूर्ण सिद्धियां सहज ही प्राप्त हो जाती हैं यदि कोई मन से भक्ति करे
कबीरदास जी इस दोहे में दिखावे की भक्ति और सच्ची आंतरिक भक्ति के अंतर को स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि बाहरी रूप से योगी बनना आसान है, भगवे वस्त्र पहनकर और तपस्वी का दिखावा करना सरल है, लेकिन मन को योगी बनाना बहुत कठिन है। केवल वही व्यक्ति सच्ची भक्ति कर पाता है, जो अपने मन को संसार से विरक्त कर, ईश्वर की ओर समर्पित करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए सारी सिद्धियां और आंतरिक शांति सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। कबीर साहेब का संदेश है कि सच्ची भक्ति मन से की जाती है, न कि केवल शरीर और बाहरी आडंबर से।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही
अर्थ- व्यक्ति के अहम् होने पर भक्ति मार्ग पर बढ़ पाना सम्भव नहीं होता है। जब तक मैं/अहम भाव रहता है हृदय में हरी का वास नहीं होता है। जब अहम /मैं का भाव समाप्त हो जाता है तो वास्तविक रूप से उसे ईश्वर रूपी दीपक दिखाई देता है और अज्ञान का सम्पूर्ण अन्धकार मिट जाता है।
जब व्यक्ति अपने "मैं" यानी अहंकार में डूबा रहता है, तब उसे ईश्वर का अनुभव नहीं होता। लेकिन जैसे ही वह अपने अहं भाव को छोड़ देता है, उसकी आत्मा में ईश्वर का प्रकाश प्रकट होता है, उसके भीतर का अन्धकार दूर हट जाता है। कबीर साहेब का संदेश है कि अहंकार के रहते प्रभु को पाना संभव नहीं है, और जब यह "मैं" समाप्त हो जाता है, तो ज्ञान का दीपक जल उठता है और अज्ञान का अंधकार मिट जाता है। तब व्यक्ति को सच्चे ईश्वर का अनुभव होता है, और वह ईश्वर को प्राप्त कर पाता है।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।
अर्थ- ज्ञान में, साधन सम्पन्नता में कोई बड़ा बन जाए तो इसका कोई लाभ नहीं होता है। जैसे खजूर का पेड़ बहुत बड़ा/ऊँचा होता है लेकिन ना तो राही को छाया मिल पाती है और उसके फल भी अत्यंत ऊंचाई पर लगे रहते हैं। आशय है की किसी के ज्ञान का तभी लाभ है जब वह विनम्र हो और दूसरों के लिए उपयोगी बनें।
इस दोहे में कबीरदास जी यह संदेश दे रहे हैं कि केवल ऊंचाई या महानता का कोई मूल्य नहीं है, अगर वह दूसरों के लिए उपयोगी न हो। जैसे खजूर का पेड़ बहुत ऊंचा होता है, लेकिन न तो वह राहगीरों को छाया प्रदान कर पाता है और न ही उसके फल आसानी से मिल पाते हैं। उसी प्रकार, यदि कोई व्यक्ति ज्ञान, धन, या प्रतिष्ठा में बड़ा हो जाए लेकिन उसमें विनम्रता और दूसरों के प्रति सहानुभूति न हो, तो उसकी महानता का कोई वास्तविक लाभ नहीं है। सच्ची महानता तभी है जब वह दूसरों के काम आए और सभी के लिए लाभदायक हो।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।
अर्थ- ज्ञान में, साधन सम्पन्नता में कोई बड़ा बन जाए तो इसका कोई लाभ नहीं होता है। जैसे खजूर का पेड़ बहुत बड़ा/ऊँचा होता है लेकिन ना तो राही को छाया मिल पाती है और उसके फल भी अत्यंत ऊंचाई पर लगे रहते हैं। आशय है की किसी के ज्ञान का तभी लाभ है जब वह विनम्र हो और दूसरों के लिए उपयोगी बनें।
इस दोहे में कबीरदास जी यह संदेश दे रहे हैं कि केवल ऊंचाई या महानता का कोई मूल्य नहीं है, अगर वह दूसरों के लिए उपयोगी न हो। जैसे खजूर का पेड़ बहुत ऊंचा होता है, लेकिन न तो वह राहगीरों को छाया प्रदान कर पाता है और न ही उसके फल आसानी से मिल पाते हैं। उसी प्रकार, यदि कोई व्यक्ति ज्ञान, धन, या प्रतिष्ठा में बड़ा हो जाए लेकिन उसमें विनम्रता और दूसरों के प्रति सहानुभूति न हो, तो उसकी महानता का कोई वास्तविक लाभ नहीं है। सच्ची महानता तभी है जब वह दूसरों के काम आए और सभी के लिए लाभदायक हो।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ- धर्म, जाती, रंग रूप का भक्ति से कोई लेना देना नहीं होता है। व्यक्ति को ज्ञान की कदर करनी चाहिए। जैसे साधू की जाती नहीं पूछनी चाहिए, उसके ज्ञान की कद्र करनी चाहिए। जैसे तलवार का मोल/ मूल्य होता है म्यान का नहीं उसी प्रकार से साधू/संतजन के ज्ञान का महत्त्व होता है उसकी जाती और धर्म का नहीं।
साधु या सज्जन व्यक्ति की जाति पूछने के बजाय उसके ज्ञान और आचरण को महत्व देना चाहिए। जैसे तलवार की कीमत होती है, न कि उसे ढकने वाले म्यान की, वैसे ही किसी व्यक्ति का असली मूल्य उसके ज्ञान, अनुभव और सद्गुणों में होता है, न कि उसकी जाति या धर्म में। इस दोहे का संदेश है कि सच्ची पहचान व्यक्ति के गुणों और ज्ञान से होती है, बाहरी पहचान से नहीं।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ- धर्म, जाती, रंग रूप का भक्ति से कोई लेना देना नहीं होता है। व्यक्ति को ज्ञान की कदर करनी चाहिए। जैसे साधू की जाती नहीं पूछनी चाहिए, उसके ज्ञान की कद्र करनी चाहिए। जैसे तलवार का मोल/ मूल्य होता है म्यान का नहीं उसी प्रकार से साधू/संतजन के ज्ञान का महत्त्व होता है उसकी जाती और धर्म का नहीं।
साधु या सज्जन व्यक्ति की जाति पूछने के बजाय उसके ज्ञान और आचरण को महत्व देना चाहिए। जैसे तलवार की कीमत होती है, न कि उसे ढकने वाले म्यान की, वैसे ही किसी व्यक्ति का असली मूल्य उसके ज्ञान, अनुभव और सद्गुणों में होता है, न कि उसकी जाति या धर्म में। इस दोहे का संदेश है कि सच्ची पहचान व्यक्ति के गुणों और ज्ञान से होती है, बाहरी पहचान से नहीं।
मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय ||
अर्थ- यदि अहम् भाव को समाप्त कर दिया जाय तो यह श्रेष्ठ उपाय है। जीवन रहते ही मर जाना चाहिए, आशय है की अभिमान का त्याग कर देना चाहिए। शारीरिक रूप से मरने से पहले जो अभिमान का त्याग कर देता है वह अजर और अमर हो जाता है।
सच्ची मुक्ति उसे प्राप्त होती है, जो जीते जी अपने अहंकार को समाप्त कर देता है। यह "मरना" शारीरिक मृत्यु नहीं, बल्कि आत्मिक मृत्यु है, जिसमें व्यक्ति अपने अहं, लालच, और मोह को त्याग देता है। जो व्यक्ति यह समझ लेता है और अहंकार से ऊपर उठ जाता है, वह जीवन में ही अजर-अमर हो जाता है। उसके लिए जीवन और मृत्यु का कोई भय नहीं रह जाता, क्योंकि उसने सच्चे ज्ञान और भक्ति को प्राप्त कर लेता है।
शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल |
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल ||
अर्थ- जो गुरु के शब्दों, ज्ञान पर चलता है वह कृतार्थ हो जाता है। वह काम क्रोध से दूर हट जाता है और काल का निवाला बनने से मुक्त हो जाता है, जन्म मरण से मुक्त हो जाता है।
कबीरदास जी के इस दोहे का अर्थ है कि जो व्यक्ति गुरु के उपदेशों और ज्ञान को गंभीरता से विचार कर अपने जीवन में उतारता है, वह जीवन में सफल और कृतार्थ हो जाता है। ऐसा व्यक्ति काम, क्रोध, और अन्य नकारात्मक भावनाओं से बचा रहता है। गुरु के ज्ञान के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति काल (मृत्यु) के भय से मुक्त हो जाता है और उसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त होती है।
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल ||
अर्थ- जो गुरु के शब्दों, ज्ञान पर चलता है वह कृतार्थ हो जाता है। वह काम क्रोध से दूर हट जाता है और काल का निवाला बनने से मुक्त हो जाता है, जन्म मरण से मुक्त हो जाता है।
कबीरदास जी के इस दोहे का अर्थ है कि जो व्यक्ति गुरु के उपदेशों और ज्ञान को गंभीरता से विचार कर अपने जीवन में उतारता है, वह जीवन में सफल और कृतार्थ हो जाता है। ऐसा व्यक्ति काम, क्रोध, और अन्य नकारात्मक भावनाओं से बचा रहता है। गुरु के ज्ञान के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति काल (मृत्यु) के भय से मुक्त हो जाता है और उसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त होती है।
प्रस्तुत कबीर साहेब के दोहे आपको कैसे लगे, हमें कमेंट के माध्यम से अवश्य ही बताएं, धन्यवाद।
लेखक: सरोज जांगिड़
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- माया छाया एक सी बिरला जाने कोय मीनिंग Maya Chhaya Ek Si Hindi Meaning
Author - Saroj Jangir
दैनिक रोचक विषयों पर में 20 वर्षों के अनुभव के साथ, मैं कबीर के दोहों को अर्थ सहित, कबीर भजन, आदि को सांझा करती हूँ, मेरे इस ब्लॉग पर। मेरे लेखों का उद्देश्य सामान्य जानकारियों को पाठकों तक पहुंचाना है। मैंने अपने करियर में कई विषयों पर गहन शोध और लेखन किया है, जिनमें जीवन शैली और सकारात्मक सोच के साथ वास्तु भी शामिल है....अधिक पढ़ें। |