कबीर लज्या लोक की सुमिरै नाँही साच मीनिंग
कबीर लज्या लोक की, सुमिरै नाँही साच।
जानि बूझि कंचन तजै, काठा पकड़े काच॥
Kabir Lajya Lok Ki Sumire Nahi Sanch,
Jaani Bujhi Kanchan Taje, katha Pakade Kach
कबीर लज्या लोक की : कबीर लोक लाज की मर्यादा रखने के लिए.
सुमिरै नाँही साच : सत्य का सुमिरन नहीं करते हैं.
जानि बूझि कंचन तजै : जान बुझ कर सोने को छोड़ देते हैं.
काठा पकड़े काच : कांच (मिथ्या) को पकड़ कर बैठ जाते हैं.
लज्या : शर्म, लाज, मर्यादा.
लोक की : लोगों की.
सुमिरै : सुमिरन नहीं करते हैं.
नाँही : नहीं.
साच : सत्य.
जानि बूझि : जान बुझ कर, पता होने के बावजूद.
कंचन : स्वर्ण, सोना.
तजै : छोड़ देते हैं.
काठा : जोर से पकड़ लेते हैं.
पकड़े : पकड़ लेते हैं.
काच : व्यर्थ की वस्तु (स्वर्ण के आगे)
कबीर साहेब की वाणी है की लोग मान मर्यादा और लोक लाज के कारण से वह सत्य का सुमिरन नहीं कर पाता है. वह लोगों के द्वारा प्रचलित मान्यताओं का ही पालन करता है. इस मान्यताओं में तीर्थ करना, कर्मकांड करना और पाखण्ड की बहुलता है, लेकिन साहेब की वाणी है की यह वास्तविक भक्ति नहीं है.
हृदय से इश्वर की भक्ति नहीं करने पर कुछ भी प्राप्त नहीं होने वाला है.
हृदय से इश्वर की भक्ति स्वर्ण है और बाकी सभी भक्ति के मार्ग तुच्छ हैं. लोग देखा देखी में मिथ्या को ग्रहण करते हैं. साहेब के अनुसार भक्ति में दिखावा कैसा ?
हृदय से भक्ति करने पर ही साधक के मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है. बाहर तो केवल भटकाव ही है, सत्य क्या है, सत्य आंतरिक है. प्रस्तुत साखी में रुप्कतिश्योक्ति अलंकार की सफल व्यंजना हुई है.
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Author - Saroj Jangir
दैनिक रोचक विषयों पर में 20 वर्षों के अनुभव के साथ, मैं कबीर के दोहों को अर्थ सहित, कबीर भजन, आदि को सांझा करती हूँ, मेरे इस ब्लॉग पर। मेरे लेखों का उद्देश्य सामान्य जानकारियों को पाठकों तक पहुंचाना है। मैंने अपने करियर में कई विषयों पर गहन शोध और लेखन किया है, जिनमें जीवन शैली और सकारात्मक सोच के साथ वास्तु भी शामिल है....अधिक पढ़ें।
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