सेवैं सालिगराँम कूँ मन की भ्रांति मीनिंग Seve Saligram Ku Meaning Kabir Dohe, Kabir Ke Dohe (Saakhi) Hindi Arth/Hindi Meaning Sahit (कबीर दास जी के दोहे सरल हिंदी मीनिंग/अर्थ में )
सेवैं सालिगराँम कूँ, मन की भ्रांति न जाइ।सीतलता सुपिनै नहीं, दिन दिन अधिकी लाइ॥
Seve Saligram Ku, Man Ki Bhranti Na Jaai,
Seetalta Supine Nahi, Din Din Adhiki Laai.
सेवैं सालिगराँम कूँ : जो सालिग्राम की पूजा करते है (मूर्तिपूजा).
मन की भ्रांति न जाइ : मन का भ्रम दूर नहीं होता है.
सीतलता सुपिनै नहीं : मन में उनके शीतलता नहीं रहती है.
दिन दिन अधकी लाइ : दग्धता दिन प्रतिदिन अधिक से अधिक बढती ही जाती है.
सेवैं : पूजा करते हैं, अराधना.
सालिगराँम : पत्थर की मूर्ति, मूर्ति.
कूँ : को.
मन की : हृदय की, चित्त की.
भ्रांति : भ्रम.
न जाइ : दूर नहीं होता है.
सीतलता : शीतलता.
सुपिने : सपने में भी नहीं मिलती है.
दिन दिन : दिन प्रतिदिन.
अधिकी : अधिक.
लाइ : अग्नि, ज्वाला, जलन.
मन की भ्रांति न जाइ : मन का भ्रम दूर नहीं होता है.
सीतलता सुपिनै नहीं : मन में उनके शीतलता नहीं रहती है.
दिन दिन अधकी लाइ : दग्धता दिन प्रतिदिन अधिक से अधिक बढती ही जाती है.
सेवैं : पूजा करते हैं, अराधना.
सालिगराँम : पत्थर की मूर्ति, मूर्ति.
कूँ : को.
मन की : हृदय की, चित्त की.
भ्रांति : भ्रम.
न जाइ : दूर नहीं होता है.
सीतलता : शीतलता.
सुपिने : सपने में भी नहीं मिलती है.
दिन दिन : दिन प्रतिदिन.
अधिकी : अधिक.
लाइ : अग्नि, ज्वाला, जलन.
जो व्यक्ति मूर्तिपूजा को ही भक्ति समझ कर उसकी पूजा पाठ करते हैं, ऐसे लोगों लोगों के लिए कबीर साहेब का सन्देश है की वे लोग सपने में भी सुख की प्राप्ति नहीं कर पाते हैं. उनका दैहिक, भौतिक और दैविक ताप अधिकता से बढ़ता ही चला जाता है. उन्हें सपने में भी शीतलता नहीं मिल सकती है. भाव है की मूर्तिपूजा एक भ्रम है. लोग सोचते हैं की वे मूर्तिपूजा करके भक्ति को प्राप्त कर लेंगे लेकिन साहेब ने इसका खंडन किया है.
वस्तुतः जीवात्मा पूर्ण परमात्मा की तरफ ही बढ़ना चाहती है. साहेब ने इसे ही अशांति कहा है. उसे शीतलता तभी मिल पाती है जब वह सच्चे हृदय से इश्वर की भक्ति करे, सद्मार्ग पर चलकर हरी के नाम का सुमिरन करे. सांसारिक विषय विकारों में उसका चित्त अधिक अशांत ही होता चला जाता है. सांसारिक विकारों की अग्नि में वह अधिकता से जलता ही रहता है. प्रस्तुत साखी में कबीर साहेब ने मूर्तिपूजा को निरर्थक बताया है. इस साखी में विशेशोक्ति अलंकार की सफल व्यंजना हुई है.
वस्तुतः जीवात्मा पूर्ण परमात्मा की तरफ ही बढ़ना चाहती है. साहेब ने इसे ही अशांति कहा है. उसे शीतलता तभी मिल पाती है जब वह सच्चे हृदय से इश्वर की भक्ति करे, सद्मार्ग पर चलकर हरी के नाम का सुमिरन करे. सांसारिक विषय विकारों में उसका चित्त अधिक अशांत ही होता चला जाता है. सांसारिक विकारों की अग्नि में वह अधिकता से जलता ही रहता है. प्रस्तुत साखी में कबीर साहेब ने मूर्तिपूजा को निरर्थक बताया है. इस साखी में विशेशोक्ति अलंकार की सफल व्यंजना हुई है.