विषै विलंबी आत्माँ मजकण खाया मीनिंग

विषै विलंबी आत्माँ मजकण खाया सोधि मीनिंग

विषै विलंबी आत्माँ, मजकण खाया सोधि।
ग्याँन अंकूर न ऊगई, भावै निज प्रमोध॥
Bishe Bilambi Aatma, majkan Khaya Sodhi,
Gyan Ankur Na Ugayi, Bhave Nij Pramodh.
विषै विलंबी आत्माँ : विषय विकारों में उलझी हुई आत्मा.
मजकण खाया सोधि : मध्यकण, सारतत्व को खा जाती है.
ग्याँन अंकूर न ऊगई : ज्ञान रूपी अंकुर उग नहीं पाता है.
भावै निज प्रमोध : भले ही इश्वर ही क्यों न समझावें.
विषै : विषय विकार (सांसारिक लोभ और वासना)
विलंबी: संलिप्त, पड़ी हुई.
आत्माँ : जीवात्मा.
मजकण : मध्यकण, सार तत्त्व.
खाया : खा लिया.
सोधि : खोज कर, ढूंढ कर.
ग्याँन अंकूर: ज्ञान का पल्लवन.
न ऊगई : उगता नहीं है.
भावै : भले ही.
निज : स्वंय इश्वर.
प्रमोध : समझा दे.
कबीर साहेब की वाणी है की जो आत्मा विषय विकारों, सांसारिक लोभ में फंसा हुआ रहता है जो की माया का ही भ्रम जाल होता है. भाव है की विषय विकारों में फंसकर जीवात्मा अंदर से खोखली हो जाती है. उसका सारतत्व विषय विकार रूपी घुन ही खा जाता है और बाहर केवल मात्र एक खोखला आवरण शेष बचता है. जैसे खोखले हो चुके दाने को बोने पर अंकुर नहीं फूटता है, ऐसे ही विषय विकार में पड़ी आत्मा जो खोखली हो चुकी है, उसमें भक्ति का बीज अंकुरित नहीं हो पाता है. भक्ति के पल्लवन के लिए भी विषय विकारों का त्याग आवश्यक है अन्यथा वह सार तत्व समाप्त कर देती है. ऐसे में भले ही स्वंय इश्वर आकर उसे क्यों ना समझाएं, वह समझ नहीं पाता है. 

खेज में खाद्यान्न उपन्न करने के लिए जहाँ भूमि का उपजाऊं होना आवश्यक है वहीँ पर बीज भी उत्तम होना चाहिए. जब बीज ख़राब होता है तो वह उग ही नहीं पाता है. अतः यदि आत्मा को खेत और हमारी भक्ति को बीज समझ लिया जाए तो यह तभी पल्लवित होगा जब हम अपने बीज को घुन से बचा कर रखेंगे. प्रस्तुत साखी में रूपक और द्रष्टान्त अलंकार की व्यंजना हुई है.
Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

दैनिक रोचक विषयों पर में 20 वर्षों के अनुभव के साथ, मैं कबीर के दोहों को अर्थ सहित, कबीर भजन, आदि को सांझा करती हूँ, मेरे इस ब्लॉग पर। मेरे लेखों का उद्देश्य सामान्य जानकारियों को पाठकों तक पहुंचाना है। मैंने अपने करियर में कई विषयों पर गहन शोध और लेखन किया है, जिनमें जीवन शैली और सकारात्मक सोच के साथ वास्तु भी शामिल है....अधिक पढ़ें

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