मातृमंदिर का समर्पित दीप मैं लिरिक्स Matramandir Ko Samarpit Deep Main Lyrics
मातृ मंदिर का समर्पित दीप मैं,
चाह मेरी यह की मैं जलता रहूं,
मातृ मंदिर का समर्पित दीप मैं,
चाह मेरी यह की मैं जलता रहूं।
कर्म पथ पर मुस्कराऊँ सर्वदा,
आपदाओं को समझ वरदान मैं,
जग सुने झूमे सदा अनुराग में,
उल्लसित हो नित्य गाऊँ गान मैं,
चीर तम दल अज्ञता निज तेज से,
बन अजय निश्शंक मैं चलता रहूं।
सुमन बनकर सज उठे जयमाल में,
राह में जितने मिले वे शूल भी,
धन्य यदि मै जिन्दगी की राह में,
कर सके अभिषेक मेरा धूल भी,
क्योंकि मेरी देह मिट्टि से बनी है,
क्यों न उसके प्रेम में पलता रहूं।
मैं जलूँ इतना कि सारे विश्व में,
प्रेम का पावन अमर प्रकाश हो,
मेदिनी यह मोद से विहँसे मधुर,
गर्व से उत्फुल्ल वह आकाश हो,
प्यार का संदेश दे अन्तिम किरण,
मैं भले अपनत्व को छलता रहूं।
मातृ मन्दिर का अकिंचन दीप मैं,
चाह मेरी यह कि मैं जलता रहूं,
मातृ मंदिर का समर्पित दीप मैं,
चाह मेरी यह की मैं जलता रहूं।
चाह मेरी यह की मैं जलता रहूं,
मातृ मंदिर का समर्पित दीप मैं,
चाह मेरी यह की मैं जलता रहूं।
कर्म पथ पर मुस्कराऊँ सर्वदा,
आपदाओं को समझ वरदान मैं,
जग सुने झूमे सदा अनुराग में,
उल्लसित हो नित्य गाऊँ गान मैं,
चीर तम दल अज्ञता निज तेज से,
बन अजय निश्शंक मैं चलता रहूं।
सुमन बनकर सज उठे जयमाल में,
राह में जितने मिले वे शूल भी,
धन्य यदि मै जिन्दगी की राह में,
कर सके अभिषेक मेरा धूल भी,
क्योंकि मेरी देह मिट्टि से बनी है,
क्यों न उसके प्रेम में पलता रहूं।
मैं जलूँ इतना कि सारे विश्व में,
प्रेम का पावन अमर प्रकाश हो,
मेदिनी यह मोद से विहँसे मधुर,
गर्व से उत्फुल्ल वह आकाश हो,
प्यार का संदेश दे अन्तिम किरण,
मैं भले अपनत्व को छलता रहूं।
मातृ मन्दिर का अकिंचन दीप मैं,
चाह मेरी यह कि मैं जलता रहूं,
मातृ मंदिर का समर्पित दीप मैं,
चाह मेरी यह की मैं जलता रहूं।
मातृमंदिर का समर्पित दीप मै।।देशभक्ति गीत।। अंश मालवीय।। सरस्वती विद्या मंदिर हरदा।।
मातृ-मंदिर का समर्पित दीप मै
चाह मेरी यह की मै जलता रहूँ ॥धृ॥
कर्म पथ पर मुस्कराऊँ सर्वदा
आपदाओं को समझ वरदान मैं
जग सुने झूमे सदा अनुराग मे
उल्लसित हो नित्य गाऊँ गान मैं
चीर तम-दल अज्ञता निज तेज से
बन अजय निश्शंक मै चलता रहूँ ॥१॥
सुमन बनकर सज उठे जयमाल में
राह में जितने मिले वे शूल भी
धन्य यदि मै जिन्दगी की राह में
कर सके अभिषेक मेरा धूल भी
क्योंकि मेरी देह मिट्टि से बनी है
क्यों न उसके प्रेम में पलता रहूं ॥२॥
मै जलूँ इतना कि सारे विश्व में
प्रेम का पावन अमर प्रकाश हो
मेदिनी यह मोद से विहँसे मधुर
गर्व से उत्फुल्ल वह आकाश हो
प्यार का संदेश दे अन्तिम किरण
मैं भले अपनत्व को छलता रहूं ॥३॥