हमसे जनि लागै तू माया भजन

हमसे जनि लागै तू माया भजन

 
हमसे जनि लागै तू माया भजन

हमसे जनि लागै तू माया।
थोरेसे फिर बहुत होयगी,
सुनि पैहैं रघुराया।
अपनेमें है साहेब हमारा,
अजहूँ चेतु दिवानी।
काहु जनके बस परि जैहो,
भरत मरहुगी पानी।
तरह्वै चितै लाज करु जनकी,
डारु हाथकी फाँसी।
जनतें तेरो जोर न लहिहै,
रच्छपाल अबिनासी।
कहै मलूका चुप करु ठगनी,
औगुन राउ दुराई।
जो जन उबरै रामनाम कहि,
तातें कछु न बसाई।

गरब न कीजै बावरे लिरिक्स
गरब न कीजै बावरे,
हरि गरब प्रहारी।
गरबहितें रावन गया,
पाया दुख भारी।
जरन खुदी रघुनाथके,
मन नाहिं सुहाती।
जाके जिय अभिमान है,
ताकि तोरत छाती।
एक दया और दीनता,
ले रहिये भाई।
चरन गहौ जाय,
साधके रीझै रघुराई।
यही बड़ा उपदेस है,
पर द्रोह न करिये।
कह मलूक हरि सुमिरिके,
भौसागर तरिये।


|| हमसे जन लागै तू माया - संत मलूकदास : सद्गुरु सिद्धार्थ औलिया ||

हमसे जन लागै तू माया - संत मलूकदास वाणी पर सद्गुरु सिद्धार्थ औलिया जी का प्रवचन ...LIVE from Nanak Dham, Murthal, Haryana (India) 

माया का जाल बिछाकर मन को लूटने वाली, थोड़े से अभिमान से बहुत बड़ा कष्ट लाती है, रघुराया को सुनाते ही सब भाग जाती। अपने अंदर ही साहेब बसते हैं, फिर भी दिवानी बनी चेतना जागृत रहती। जनकी की लाज बचाने को चितवृत्ति, हाथ की फाँसी डालकर भी रक्षक अबिनासी है। गरब न करो बावरे, हरि तो गरब के प्रहारी हैं, रावन की तरह गरब से दुख भारी पाया। जन्म की खोटी अहंकार रघुनाथ को कभी न भाता, अभिमान से छाती तोड़ देती। दया-दीनता धारण कर चरण गहो, यही बड़ा उपदेश है, द्रोह न करो। मलूक कहते हरि सुमिरन से भवसागर पार हो जाता।
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