मन ना रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा ।।
आसन मारि मंदिर में बैठे, ब्रम्ह-छाँड़ि पूजन लगे पथरा ।।
कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बाढ़ाय जोगी होई गेलें बकरा ।।
जंगल जाये जोगी धुनिया रमौले काम जराए जोगी होए गैले हिजड़ा ।।
मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ो रंगौले, गीता बाँच के होय गैले लबरा ।।
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, जम दरवजवा बाँधल जैबे पकड़ा ।।
आसन मारि मंदिर में बैठे, ब्रम्ह-छाँड़ि पूजन लगे पथरा ।।
कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बाढ़ाय जोगी होई गेलें बकरा ।।
जंगल जाये जोगी धुनिया रमौले काम जराए जोगी होए गैले हिजड़ा ।।
मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ो रंगौले, गीता बाँच के होय गैले लबरा ।।
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, जम दरवजवा बाँधल जैबे पकड़ा ।।
भक्ति के आडंबर पर कबीर साहेब की वाणी है की लोग साधू का वेश धारण कर लेते हैं लेकिन आत्मिक रूप से भक्ति को ग्रहण नहीं करते हैं। वे अपने कपड़ों को रंगवाते हैं लेकिन आत्मा को भक्ति में रंगवाते नहीं है। आशय है की वे भक्ति को सच्चे अर्थों में नहीं करते हैं। वे आडंबर करते हैं और आसन लगाते हैं, आसन करके अपने मंदिर में बैठते हैं लेकिन वे सर्वत्र व्याप्त निराकार ईश्वर को छोड़कर / पूर्ण ब्रह्म को छोड़कर पत्थर की पूजा करने में लगे रहते हैं। वे अपने कानों को फाड़ लेते हैं, कान को छिदवा लेते हैं, जटा को बढ़ा लेते हैं दाढ़ी को बढ़ा लेते हैं और वे योगी होकर बकरे की तरह से बालों को बढाकर फिरते हैं। जोगी बनकर वे धुनि रमाते हैं, काम वासना का दमन करके वे हिंजड़े की भाँती हो जाए हैं। वे अपने सर को मुंडवाते हैं और योगी के कपडे को धारण कर लेते हैं। वे गीता को पढ़कर बड़ी बड़ी बाते करते हैं। ऐसे में कबीर साहेब कहते हैं की ऐसे में तुमको यमराज पकड़ कर दरवाजे पर डाल देता है। इस पद में कबीर साहेब बाहरी आडम्बरों और दिखावे को नकारते हुए मन की शुद्धि और आंतरिक विकास पर जोर देते हैं। वे कहते हैं कि जो लोग केवल बाहरी रूप-रंग पर ध्यान देते हैं, वे आंतरिक रूप से विकसित नहीं होते हैं।
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Author - Saroj Jangir
दैनिक रोचक विषयों पर में 20 वर्षों के अनुभव के साथ, मैं कबीर के दोहों को अर्थ सहित, कबीर भजन, आदि को सांझा करती हूँ, मेरे इस ब्लॉग पर। मेरे लेखों का उद्देश्य सामान्य जानकारियों को पाठकों तक पहुंचाना है। मैंने अपने करियर में कई विषयों पर गहन शोध और लेखन किया है, जिनमें जीवन शैली और सकारात्मक सोच के साथ वास्तु भी शामिल है....अधिक पढ़ें। |