दीवाली का त्योहार पूरे देश में बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार, यह त्योहार कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है, जो अंग्रेजी कैलेंडर में अक्टूबर या नवंबर के महीने में आता है। दीवाली का दिन पूरे परिवार को एक साथ लाने का अवसर होता है। इस दिन माता लक्ष्मी की पूजा होती है, और धन-समृद्धि की कामना की जाती है। इस आर्टिकल में हम दीवाली पर कुछ खास कविताएं साझा कर रहे हैं, इनको आप इस दीपावली पर शेयर कर सकते हैं। बच्चे इन कविताओं (Deepawali Poems) को आप अपने दोस्तों में शेयर कर सकते हैं। नीचे कुछ सुंदर कविताएं दी गई हैं, जिन्हें आसानी से शेयर किया जा सकता है।
हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!
छज्जों में, छत में, आले में,
तुलसी के नन्हें थाले में,
यह कौन रहा है दृग को ठग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!
पर्वत में, नदियों, नहरों में,
प्यारी प्यारी सी लहरों में,
तैरते दीप कैसे भग-भग!
जगमग जगमग जगमग जगमग!
राजा के घर, कंगले के घर,
हैं वही दीप सुंदर सुंदर!
दीवाली की श्री है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!
छज्जों में, छत में, आले में,
तुलसी के नन्हें थाले में,
यह कौन रहा है दृग को ठग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!
पर्वत में, नदियों, नहरों में,
प्यारी प्यारी सी लहरों में,
तैरते दीप कैसे भग-भग!
जगमग जगमग जगमग जगमग!
राजा के घर, कंगले के घर,
हैं वही दीप सुंदर सुंदर!
दीवाली की श्री है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!
जगमग-जगमग / सोहनलाल द्विवेदी
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
है कंहा वह आग जो मुझको जलाए,
है कंहा वह ज्वाल पास मेरे आए,
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,
नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,
आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
मैं तपोमय ज्योति की, पर, प्यास मुझको,
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,
स्नेह की दो बूंदे भी तो तुम गिराओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा,
कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा,
किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
है कंहा वह आग जो मुझको जलाए,
है कंहा वह ज्वाल पास मेरे आए,
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,
नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,
आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
मैं तपोमय ज्योति की, पर, प्यास मुझको,
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,
स्नेह की दो बूंदे भी तो तुम गिराओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा,
कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा,
किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ / हरिवंशराय बच्चन
आओ फिर से दिया जलाएं
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें
बुझी हुई बाती सुलगाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल
वर्त्तमान के मोह-जाल में
आने वाला कल न भुलाएं।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएं।
आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें
बुझी हुई बाती सुलगाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल
वर्त्तमान के मोह-जाल में
आने वाला कल न भुलाएं।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएं।
आओ फिर से दिया जलाएँ
आओ फिर से दिया जलाएं / अटल बिहारी वाजपेयी
सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।।
लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में,
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में,
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में,
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में,
लक्ष्मी सर्जन हुआ कमल के फूलों में,
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।
गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार,
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार,
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल,
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल।
शकट चले जलयान चले गतिमान गगन के गान,
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।
उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे,
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर,
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर।
भवन-भवन तेरा मंदिर है स्वर है श्रम की वाणी,
राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।।
वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी,
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी,
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल,
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
तू ही जगत की जय है, तू है बुद्धिमयी वरदात्री,
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।
युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।।
दीप से दीप जले / माखनलाल चतुर्वेदी
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।।
लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में,
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में,
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में,
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में,
लक्ष्मी सर्जन हुआ कमल के फूलों में,
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।
गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार,
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार,
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल,
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल।
शकट चले जलयान चले गतिमान गगन के गान,
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।
उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे,
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर,
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर।
भवन-भवन तेरा मंदिर है स्वर है श्रम की वाणी,
राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।।
वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी,
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी,
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल,
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
तू ही जगत की जय है, तू है बुद्धिमयी वरदात्री,
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।
युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।।
दीप से दीप जले / माखनलाल चतुर्वेदी
जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल
बार-बार उलझ जाती है,
एक दिया वहाँ भी जलाना।।
जाना, फिर जाना,
एक दिया वहाँ जहाँ नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं,
एक दिया वहाँ जहाँ उस नन्हें गेंदे ने
अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है,
एक दिया उस लौकी के नीचे
जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है।
एक दिया वहाँ जहाँ गगरी रखी है,
एक दिया वहाँ जहाँ बर्तन मँजने से
गड्ढा-सा दिखता है,
एक दिया वहाँ जहाँ अभी-अभी धुले
नये चावल का गंधभरा पानी फैला है।
एक दिया उस घर में -
जहाँ नई फसलों की गंध छटपटाती है,
एक दिया उस जंगले पर जिससे
दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती है,
एक दिया वहाँ जहाँ झबरा बँधता है,
एक दिया वहाँ जहाँ पियरी दुहती है,
एक दिया वहाँ जहाँ अपना प्यारा झबरा
दिन-दिन भर सोता है।।
एक दिया उस पगडंडी पर
जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है,
एक दिया उस चौराहे पर
जो मन की सारी राहें
विवश छीन लेता है,
एक दिया इस चौखट,
एक दिया उस ताखे,
एक दिया उस बरगद के तले जलाना।
जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
जाना, फिर जाना।।
दीपदान / केदारनाथ सिंह
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल
बार-बार उलझ जाती है,
एक दिया वहाँ भी जलाना।।
जाना, फिर जाना,
एक दिया वहाँ जहाँ नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं,
एक दिया वहाँ जहाँ उस नन्हें गेंदे ने
अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है,
एक दिया उस लौकी के नीचे
जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है।
एक दिया वहाँ जहाँ गगरी रखी है,
एक दिया वहाँ जहाँ बर्तन मँजने से
गड्ढा-सा दिखता है,
एक दिया वहाँ जहाँ अभी-अभी धुले
नये चावल का गंधभरा पानी फैला है।
एक दिया उस घर में -
जहाँ नई फसलों की गंध छटपटाती है,
एक दिया उस जंगले पर जिससे
दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती है,
एक दिया वहाँ जहाँ झबरा बँधता है,
एक दिया वहाँ जहाँ पियरी दुहती है,
एक दिया वहाँ जहाँ अपना प्यारा झबरा
दिन-दिन भर सोता है।।
एक दिया उस पगडंडी पर
जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है,
एक दिया उस चौराहे पर
जो मन की सारी राहें
विवश छीन लेता है,
एक दिया इस चौखट,
एक दिया उस ताखे,
एक दिया उस बरगद के तले जलाना।
जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
जाना, फिर जाना।।
दीपदान / केदारनाथ सिंह
सब बुझे दीपक जला लूँ!
घिर रहा तम आज दीपक रागिनी अपनी जगा लूँ।।
क्षितिज कारा तोड़ कर अब
गा उठी उन्मत आँधी,
अब घटाओं में न रुकती
लास तन्मय तड़ित बाँधी,
धूलि की इस वीण पर मैं तार हर तृण का मिला लूँ।।
भीत तारक मूँदते दृग
भ्रांत मारुत पथ न पाता,
छोड़ उल्का अंक नभ में
ध्वंस आता हरहराता,
उँगलियों की ओट में सुकुमार सब सपने बचा लूँ।।
लय बनी मृदु वर्तिका
हर स्वर जला बन लौ सजीली,
फैलती आलोक-सी
झंकार मेरी स्नेह गीली,
इस मरण के पर्व को मैं आज दीपावली बना लूँ।।
देख कर कोमल व्यथा को
आँसुओं के सजल रथ में,
मोम-सी साधें बिछा दीं
थीं इसी अंगार पथ में,
स्वर्ण हैं वे मत हो अब क्षार में उन को सुला लूँ।।
अब तरी पतवार ला कर
तुम दिखा मत पार देना,
आज गर्जन में मुझे बस
एक बार पुकार लेना!
ज्वार को तरणी बना मैं इस प्रलय का पार पा लूँ!
आज दीपक राग गा लूँ।।
बुझे दीपक जला लूँ / महादेवी वर्मा
घिर रहा तम आज दीपक रागिनी अपनी जगा लूँ।।
क्षितिज कारा तोड़ कर अब
गा उठी उन्मत आँधी,
अब घटाओं में न रुकती
लास तन्मय तड़ित बाँधी,
धूलि की इस वीण पर मैं तार हर तृण का मिला लूँ।।
भीत तारक मूँदते दृग
भ्रांत मारुत पथ न पाता,
छोड़ उल्का अंक नभ में
ध्वंस आता हरहराता,
उँगलियों की ओट में सुकुमार सब सपने बचा लूँ।।
लय बनी मृदु वर्तिका
हर स्वर जला बन लौ सजीली,
फैलती आलोक-सी
झंकार मेरी स्नेह गीली,
इस मरण के पर्व को मैं आज दीपावली बना लूँ।।
देख कर कोमल व्यथा को
आँसुओं के सजल रथ में,
मोम-सी साधें बिछा दीं
थीं इसी अंगार पथ में,
स्वर्ण हैं वे मत हो अब क्षार में उन को सुला लूँ।।
अब तरी पतवार ला कर
तुम दिखा मत पार देना,
आज गर्जन में मुझे बस
एक बार पुकार लेना!
ज्वार को तरणी बना मैं इस प्रलय का पार पा लूँ!
आज दीपक राग गा लूँ।।
बुझे दीपक जला लूँ / महादेवी वर्मा
साथी, घर-घर आज दिवाली।
फैल गई दीपों की माला,
मंदिर-मंदिर में उजियाला,
किंतु हमारे घर का, देखो, दर काला, दीवारें काली।
साथी, घर-घर आज दिवाली।।
हास उमंग हृदय में भर-भर,
घूम रहा गृह-गृह पथ-पथ पर,
किंतु हमारे घर के अंदर डरा हुआ सूनापन खाली।
साथी, घर-घर आज दिवाली।।
आंख हमारी नभ मंडल पर,
वही हमारा नीलम का घर,
दीप मालिका मना रही है रात हमारी तारों वाली।
साथी, घर-घर आज दिवाली।।
– हरिवंशराय बच्चन
फैल गई दीपों की माला,
मंदिर-मंदिर में उजियाला,
किंतु हमारे घर का, देखो, दर काला, दीवारें काली।
साथी, घर-घर आज दिवाली।।
हास उमंग हृदय में भर-भर,
घूम रहा गृह-गृह पथ-पथ पर,
किंतु हमारे घर के अंदर डरा हुआ सूनापन खाली।
साथी, घर-घर आज दिवाली।।
आंख हमारी नभ मंडल पर,
वही हमारा नीलम का घर,
दीप मालिका मना रही है रात हमारी तारों वाली।
साथी, घर-घर आज दिवाली।।
– हरिवंशराय बच्चन
आती है दीपावली, लेकर यह संदेश।
दीप जलें जब प्यार के, सुख देता परिवेश।।
सुख देता परिवेश, प्रगति के पथ खुल जाते।
करते सभी विकास, सहज ही सब सुख आते।
‘ठकुरेला’ कविराय, सुमति ही संपत्ति पाती।
जीवन हो आसान, एकता जब भी आती।।
दीप जलाकर आज तक, मिटा न तम का राज।
मानव ही दीपक बने, यही मांग है आज।।
यही मांग है आज, जगत में हो उजियारा।
मिटे आपसी भेद, बढ़ाएं भाईचारा।
‘ठकुरेला’ कविराय, भले हो नृप या चाकर।
चलें सभी मिल साथ, प्रेम के दीप जलाकर।।
जब आशा की लौ जले, हो प्रयास की धूम।
आती ही है लक्ष्मी, द्वार तुम्हारा चूम।।
द्वार तुम्हारा चूम, वास घर में कर लेती।
करे विविध कल्याण, अपरिमित धन दे देती।
‘ठकुरेला’ कविराय, पलट जाता है पासा।
कुछ भी नहीं अगम्य, बलबती हो जब आशा।।
दीवाली के पर्व की, बड़ी अनोखी बात।
जगमग जगमग हो रही, मित्र, अमा की रात।।
मित्र, अमा की रात, अनगिनत दीपक जलते।
हुआ प्रकाशित विश्व, स्वप्न आंखों में पलते।
‘ठकुरेला’ कविराय, बजी खुशियों की ताली।
ले सुख के भंडार, आ गई फिर दीवाली।।
– त्रिलोक सिंह ठकुरेला
दीप जलें जब प्यार के, सुख देता परिवेश।।
सुख देता परिवेश, प्रगति के पथ खुल जाते।
करते सभी विकास, सहज ही सब सुख आते।
‘ठकुरेला’ कविराय, सुमति ही संपत्ति पाती।
जीवन हो आसान, एकता जब भी आती।।
दीप जलाकर आज तक, मिटा न तम का राज।
मानव ही दीपक बने, यही मांग है आज।।
यही मांग है आज, जगत में हो उजियारा।
मिटे आपसी भेद, बढ़ाएं भाईचारा।
‘ठकुरेला’ कविराय, भले हो नृप या चाकर।
चलें सभी मिल साथ, प्रेम के दीप जलाकर।।
जब आशा की लौ जले, हो प्रयास की धूम।
आती ही है लक्ष्मी, द्वार तुम्हारा चूम।।
द्वार तुम्हारा चूम, वास घर में कर लेती।
करे विविध कल्याण, अपरिमित धन दे देती।
‘ठकुरेला’ कविराय, पलट जाता है पासा।
कुछ भी नहीं अगम्य, बलबती हो जब आशा।।
दीवाली के पर्व की, बड़ी अनोखी बात।
जगमग जगमग हो रही, मित्र, अमा की रात।।
मित्र, अमा की रात, अनगिनत दीपक जलते।
हुआ प्रकाशित विश्व, स्वप्न आंखों में पलते।
‘ठकुरेला’ कविराय, बजी खुशियों की ताली।
ले सुख के भंडार, आ गई फिर दीवाली।।
– त्रिलोक सिंह ठकुरेला
हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग।।
छज्जों में, छत में, आले में,
तुलसी के नन्हे थाल में,
यह कौन रहा है दृग को ठग?
जगमग जगमग जगमग जगमग।।
पर्वत में, नदियों, नहरों में,
प्यारी प्यारी सी लहरों में,
तैरते दीप कैसे भग-भग!
जगमग जगमग जगमग जगमग।।
राजा के घर, कंगले के घर,
है वही दीप सुंदर सुंदर!
दीवाली की श्री है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग।।
– सोहनलाल द्विवेदी
दीपावली का त्योहार आया,
साथ में खुशियों की बहार लाया।
दीपकों की सजी है कतार,
जगमगा रहा है पूरा संसार।
अंधकार पर प्रकाश की विजय लाया,
दीपावली का त्योहार आया।
सुख-समृद्धि की बहार लाया,
भाईचारे का संदेश लाया।
बाजारों में रौनक छाई,
दीपावली का त्योहार आया।
किसानों के मुंह पर खुशी की लाली आई,
सबके घर फिर से लौट आई खुशियों की रौनक।
दीपावली का त्योहार आया,
साथ में खुशियों की बहार लाया।
– नरेंद्र वर्मा
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग।।
छज्जों में, छत में, आले में,
तुलसी के नन्हे थाल में,
यह कौन रहा है दृग को ठग?
जगमग जगमग जगमग जगमग।।
पर्वत में, नदियों, नहरों में,
प्यारी प्यारी सी लहरों में,
तैरते दीप कैसे भग-भग!
जगमग जगमग जगमग जगमग।।
राजा के घर, कंगले के घर,
है वही दीप सुंदर सुंदर!
दीवाली की श्री है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग।।
– सोहनलाल द्विवेदी
दीपावली का त्योहार आया,
साथ में खुशियों की बहार लाया।
दीपकों की सजी है कतार,
जगमगा रहा है पूरा संसार।
अंधकार पर प्रकाश की विजय लाया,
दीपावली का त्योहार आया।
सुख-समृद्धि की बहार लाया,
भाईचारे का संदेश लाया।
बाजारों में रौनक छाई,
दीपावली का त्योहार आया।
किसानों के मुंह पर खुशी की लाली आई,
सबके घर फिर से लौट आई खुशियों की रौनक।
दीपावली का त्योहार आया,
साथ में खुशियों की बहार लाया।
– नरेंद्र वर्मा
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Author - Saroj Jangir
दैनिक रोचक विषयों पर में 20 वर्षों के अनुभव के साथ, मैं एक विशेषज्ञ के रूप में रोचक जानकारियों और टिप्स साझा करती हूँ। मेरे लेखों का उद्देश्य सामान्य जानकारियों को पाठकों तक पहुंचाना है। मैंने अपने करियर में कई विषयों पर गहन शोध और लेखन किया है, जिनमें जीवन शैली और सकारात्मक सोच के साथ वास्तु भी शामिल है....अधिक पढ़ें। |