जीवन एक संग्राम है देना होगा अपना

जीवन एक संग्राम है देना होगा अपना सबसे बेस्ट


जीवन एक संग्राम है
देना होगा अपना सबसे बेस्ट,
करना होगा आज पास ये टेस्ट,
कर्मों को करके मेहनत इन्वेस्ट,
बनेंगे बेस्ट करते नहीं रेस्ट।

किसी भी हाल में आज से अभी से,
जाना आगे मुझे सभी से जमीन पे,
छिड़ी है जंग भी तभी से,
दबी है यही पे कभी से जान,
तूफ़ान में संग्राम में।

खड़ा हूं जंग के मैदान में,
सिर पे कफन को बांध के,
घर पे ना कर आराम बे,
चल काम पे कर कर्मयोग,
अपनी क्षमता का कर प्रयोग।

हर पल आलस में भोग मत,
खुद को मेहनत से रोक मत,
कर्तव्य से कर संकोच मत,
सुन इतना ज़्यादा सोच मत,
बन कर धरती पर बोझ मत।

जिनके जीवन में युद्ध नहीं,
उनसा हत भागी क्या होगा,
जो चुक जाते हैं बिस्तर पर,
उनसा अपराधी क्या होगा।

जीवन इक रण है अंतहीन,
हर क्षण बस डटकर लड़ना है,
जब जलने वाले जल गये,
पत्थर को छलनी करना है।

और शांति-शांति रटने वालों,
क्या जीतेजी पा सकते हो,
भोले-भाले यहां खर्च हुए,
क्या उनको वापस ला सकते हो?

युद्ध तपस्वी भी करता है,
तत्व अलग होने से क्या,
कोई युद्धों से बच पाया है,
हथियार अलग होने से क्या।

उनको भी तो है शान्ति नहीं,
बस आंख मूंद कर बैठे हैं,
है आंख खोलने की देरी,
दुश्मन भिड़ने को बैठे हैं।

मूंदी आंखों का युद्ध अलग,
जो सबसे भीषण होता है,
खुद से लड़कर विजयी होना,
ये सबसे दुष्कर होता है।

जब तक शरीर में श्वास रही,
हमको बस लड़ना पड़ता है,
इसे युद्ध कहें या मज़दूरी,
हर दिन ही करना पड़ता है।

ये भी तो एक यथार्थ रहा,
मौतें बिस्तर पर होती हैं,
जो लड़ बैठा कुछ कर बैठा,
बाधायें रोना रोती हैं।

जब पुरुष हिरण्यगर्भ वाला,
रचना करने बैठा होगा,
कुछ रचने से पहले वह भी,
हर पंगत पर ठिठका होगा।

जब कुछ नहीं था सृष्टि में,
बस घुप्प अंधेरा था पसरा,
अनहद की हद के लिए पुरुष,
भी युद्धों में संलग्न रहा।

युद्ध नहीं जिनके जीवन में,
वे भी बहुत अभागे होंगे,
या तो प्रण को तोड़ा होगा,
या फिर रण से भागे होंगे।

दीपक का कुछ अर्थ नहीं है,
जब तक तम से नहीं लड़ेगा,
दिनकर नहीं प्रभा बांटेगा,
जब तक स्वयं न जागेगा।

कभी दहकती ज्वाला के बिन,
कुंदन भला बना है सोना,
बिना घिसे मेहंदी ने बोलो,
कब पाया है रंग सलौना।

जीवन के पथ के राही को,
क्षण भर का विश्राम नहीं है,
कौन भला स्वीकार करेगा,
जीवन एक संग्राम नहीं है।

अपना अपना युद्ध सभी को,
हर युग में लड़ना पड़ता है,
और समय के शिलालेख पर,
खुद को खुद गढ़ना पड़ता है।

सच की खातिर हरिश्चंद्र को,
सकुटुम्ब बिक जाना पड़ता,
और स्वयं काशी में जाकर,
अपना मोल लगाना पड़ता।

दासी बन करके भरती है,
पानी पटरानी पनघट में,
और खड़ा सम्राट वचन के,
कारण काशी के मरघट में।

ये लगातार लड़ता है,
कभी होता युद्ध विराम नहीं है,
कौन भला स्वीकार करेगा,
जीवन एक संग्राम नहीं है।

हर रिश्ते की कुछ कीमत है,
जिसका मोल चुकाना पड़ता,
और प्राण पण से जीवन का,
हर अनुबंध निभाना पड़ता।

सच ने मार्ग त्याग का देखा,
झूठ रहा सुख का अभिलाषी
दशरथ मिटे वचन की खातिर,
राम जिये होकर वनवासी।

आग जली फिर चली थी सीता,
रही समय की ऐसी इच्छा,
देनी पड़ी नियति के कारण,
सीता को भी अग्नि परीक्षा।
 
वन को गईं पुनः वैदेही,
निरपराध ही सुनो अकारण,
जीतीं रहीं उम्रभर बनकर,
त्याग और संघर्ष उदाहरण।

लिए गर्भ में निज पुत्रों को,
वन का कष्ट स्वयं ही झेला,
खुद के बल पर लड़ा सिया ने,
जीवन का संग्राम अकेला।

धनुष तोड़ कर जो लाए थे,
अब वो संग में राम नहीं है,
कौन भला स्वीकार करेगा,
जीवन एक संग्राम नहीं है।

यह पंक्तियां हमें हमारे कर्तव्य की याद दिलाती हैं। इनमें मेहनत, कर्मयोग, और साहस का महत्व बताया गया है। यह सिखाती हैं कि हमें आलस्य से दूर रहकर, हर परिस्थिति में अपने कार्य को पूरी लगन और निष्ठा से करना चाहिए। अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना ही असली संग्राम है।


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